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Wednesday, March 6, 2013

भ्रष्टाचार में अव्वल स्वास्थ्य का मध्य प्रदेश

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चाहे शिशु मृत्यु दर की बात हो या मातृ मृत्यु दर की, मध्य प्रदेश इन बुनियादी स्वास्थ्य मानकों पर सालों से सबसे निचली और भ्रष्टाचार में अव्वल पायदान पर है. आखिर यह स्थिति सुधरने का नाम क्यों नहीं लेती? शिरीष खरे की रिपोर्ट.

आम तौर पर यदि कोई राष्ट्रीय नेता, यदि वह प्रभावशाली भी है तो अपनी पार्टी वाले राज्य और निर्वाचन क्षेत्र में कम से कम अपनी मर्जी की योजना तो चलवा ही सकता है. ऐसे में कछुआ गति से चलने वाले सरकारी तंत्र को भी जैसे-तैसे सहयोग करना पड़ता है. लेकिन पिछले दिनों मध्य प्रदेश के प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग ने अपनी कामचोरी से लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज को इतना दुखी कर दिया कि वे उसे सार्वजनिक रुप से कोसने से भी नहीं चूकीं. दरअसल सुषमा ने दो साल पहले अपने संसदीय क्षेत्र विदिशा में सांसद निधि से आठ एंबुलेंस खरीदकर लोगों को उनके घर पर बेहतर चिकित्सा सेवा पहुंचाने के लिए संजीवनी नामक चलित अस्पताल योजना चलाई थी. लेकिन स्वास्थ्य विभाग की अनदेखी के चलते उनकी यह योजना जब परवान नहीं चढ़ी तो तंग आकर उन्होंने इसे अपने क्षेत्र के तीन जिलों के कलेक्टरों को दे दिया. किंतु यहां भी सुषमा की कोई सुनवाई नहीं हुई और निराश होकर उन्होंने अंततः यह योजना हैदराबाद की एक गैरसरकारी संस्था 108 के हवाले कर दी. और ऐसा नहीं है कि उनकी प्रदेश के मुख्यमंत्री से कोई अनबन है. असल में प्रदेश का स्वास्थ्य विभाग इस समय इस अराजकता की हालत में आ पहुंचा है किअच्छी से अच्छी योजनाएं भी कुप्रशासन और भ्रष्टाचार के चलते बेपटरी हो चुकी हैं.

‌इन हालात के चलते स्थिति यह है कि मप्र स्वास्थ्य मानकों की कसौटी पर देश के बाकी राज्यों के मुकाबले सबसे बुरी हालत में है. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि प्रदेश में हर दिन 58 से अधिक बच्चों की मौत निमोनिया जैसी बीमारियों के चलते हो रही है. बीते साल यहां छह से 12 साल तक के 21 हजार 404 बच्चों की मौत हुई है. भारत सरकार के सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के मुताबिक शिशु मृत्यु दर के मामले में प्रदेश कई सालों से अव्वल है. यहां हर साल एक हजार शिशुओं पर 59 की मौत हो जाती है. स्वास्थ्य की दूसरी बड़ी कसौटी मातृ मृत्यु दर के मामले में मप्र का हाल बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा से कहीं बदत्तर है. यहां हर लाख पर 269 महिलाएं दम तोड़ रही हैं.

किंतु इससे भी स्याह तस्वीर मप्र के आदिवासी इलाकों की है. गौरतलब है कि प्रदेश की कुल आबादी के एक चौथाई भाग पर आदिवासी हैं और इनके इलाके अब दुनिया के अति गंभीर कुपोषणग्रस्त क्षेत्र के तौर पर चिह्नित हैं. मप्र में हर साल एक हजार आदिवासी बच्चों में से 140 से अधिक बच्चों की मौत हो रही है. वहीं एक लाख पर 354 आदिवासी महिलाएं दम तोड़ रही हैं. इसी के साथ भारत का यह सघन आदिवासी क्षेत्र इन दिनों मलेरिया और टीबी जैसी बीमारियों के मामले में टॉप पर है. बीते साल ही झाबुआ, नीमच, मंदसौर और सीधी सहित कई आदिवासी जिलों में मलेरिया से सैकड़ों लोगों की मौत ने सियासी पारा चढ़ा दिया था और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जिस सीधी जिले को गोद लिया था उसी के चौपाई गांव में मलेरिया से चौबीस से अधिक बच्चों की मौत हुई थी. वहीं टीबी से हुई मौतों की संख्या भी दूसरी बड़ी चुनौती के तौर पर उभरी है. बीते साल टीबी के चलते यहां एक हजार से अधिक लोगों की मौत हुई थी. बावजूद इसके राज्य सरकार के स्वास्थ्य बुलेटिन में मलेरिया और टीबी का विस्तृत ब्योरा न होना यह बताता है कि स्वास्थ्य विभाग का अपना कोई सूचना तंत्र भी नहीं है.

बीते साल यहां छह से 12 साल तक के 21 हजार 404 बच्चों की मौत हुई है.

एक तबका मप्र में स्वास्थ्य की बिगड़ी हालत को यहां की भौगोलिक स्थिति से जोड़ता है. इसके मुताबिक मप्र का तकरीबन एक चौथाई हिस्सा जंगली और पठारी है. और यहां के एक बड़े इलाके तक या तो सड़कें पहुंची ही नहीं या पहुंची भी हैं तो वे बहुत अच्छी नहीं हैं. स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख सचिव प्रवीण कृष्ण की मानें तो, ‘ऐसे इलाके में यदि अच्छी स्वास्थ्य व्यवस्था हो भी जाए लेकिन सड़कें नहीं बनें तो कोई मतलब नहीं.’

वहीं दूसरा तबका मप्र की इस दुर्दशा के पीछे स्वास्थ्य विभाग में फैली अराजकता को जिम्मेदार मानता है. संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के प्रतिनिधि डॉ. प्रकाश देव के मुताबिक, ‘सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों का टोटा ही यहां की सबसे बड़ी बाधा है.’ गौरतलब है कि मप्र के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर 1,155 डॉक्टरों की जरूरत है किंतु 614 पद खाली हैं. इनमें भी बैतूल, मंडला, डिंडौरी, सिंगरौली, उमरिया, श्योपुर और अलीराजपुर जैसे आदिवासी इलाकों में 65 प्रतिशत पद खाली पड़े हैं. वहीं राजधानी भोपाल सहित बड़े शहरों में अच्छी-खासी सुविधाएं होने के बावजूद जरूरत से ज्यादा विशेषज्ञ तैनात हैं. इसी के साथ मलेरिया और टीबी से संबंधित कार्यक्रम में मदद करने वाले पुरुष स्वास्थ्य कर्मचारी के 42 प्रतिशत पद नहीं भरे जाने से नीचे के स्तर पर भी काम का बोझ काफी अधिक है जिसके चलते स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा गई हैं. यही वजह है कि प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में मातृ मृत्यु दर पर लगाम कसने के लिए संस्थागत (अस्पताल आधारित) प्रसव के नाम पर शुरू की गई मुहिम रंग नहीं दिखला पा रही है. बड़वानी जिले में आदिवासी स्वास्थ्य अधिकारों से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाली माधुरी कृष्णास्वामी कहती हैं, ‘संस्था और स्त्री रोग विशेषज्ञ के बिना संस्थागत प्रसव संभव भी नहीं है.’ गौरतलब है कि प्रदेश के 15 आदिवासी जिलों के किसी भी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर एक भी स्त्री रोग विशेषज्ञ नहीं है.

हालांकि स्वास्थ्य राज्य मंत्री महेंद्र हार्डिया ने डॉक्टरों की कमी को पूरा करने के लिए इस साल फिर मप्र लोकसेवा आयोग को खाली पद भरने के लिए कहा है. मगर आयोग सालों से नियुक्ति का काम नहीं कर पा रहा है. कई विशेषज्ञ इसके लिए मप्र में स्वास्थ्य की गलत नीति को दोषी ठहराते हैं. मप्र चिकित्सा अधिकारी संघ के अध्यक्ष डॉ. ललित श्रीवास्तव का कहना है कि आदिवासी गांवों में उनके लिए लैब, उपकरण और तकनीशियन तक नहीं हैं. श्रीवास्तव की राय में, ‘हमारा पद डिप्टी कलेक्टर के बराबर है. डिप्टी कलेक्टर जैसी सुविधाएं पाता है वैसी सुविधाएं चिकित्सा अधिकारी को जब तक नहीं मिलेंगी, वह किसी आदिवासी गांव में नहीं जाना चाहेगा.’
दरअसल कुछ सालों में मप्र की मेडिकल शिक्षा का पैटर्न जिस तेजी से बदला है उसी के मुताबिक डॉक्टरों का नजरिया भी बदला है. मप्र सरकार की पूर्व मुख्य सचिव निर्मला बुच कहती हैं, ‘पहले मेडिकल शिक्षा की बुनियाद सरकारी थी. इससे निकलने वाले छात्र महंगी फीस जमा नहीं करते थे.

पर अब प्राइवेट कॉलेज के छात्र लाखों रुपये देकर डॉक्टर बनते हैं और इसलिए वे आदिवासी गांव में नहीं जाना चाहते.’ गौरतलब है कि मप्र में बीते सात साल सात बड़े प्राइवेट मेडिकल कॉलेज खुले हैं. इसी के साथ कई नेताओं के नर्सिंग और पैरा मेडिकल कॉलेज भी खुले हैं, जिनमें पढ़ने वाले आदिवासी और दलित छात्रों का पैसा राज्य सरकार देती है. हमीदिया अस्पताल के पूर्व मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. डीके वर्मा के मुताबिक, ‘इस तरह नेताओं ने यहां कॉलेज चलाने के साधन ढूंढ़ लिए हैं.’ वहीं मप्र सरकार अब स्वास्थ्य को धंधा बनाने की तैयारी कर रही है. जानकारों की राय में यदि ऐसा हुआ तो राज्य सरकार कई बड़े प्राइवेट अस्पतालों को जमीन, टैक्स में छूट और मरीजों के इलाज से लेकर उनके ऑपरेशन के पैसे भी देगी. इससे सरकारी अस्पताल के कई मरीज तो प्राइवेट अस्पताल में जाएंगे ही, सरकार के कई डॉक्टर भी प्राइवेट अस्पताल की ओर रुख करेंगे. ऐसे में सरकारी सेवा ही कमजोर होनी है. जाहिर है राज्य में सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था की डगर और अधिक कठिन है.

भ्रष्टाचार की बीमारी
इस समय मप्र का स्वास्थ्य महकमा घोटालों का सबसे बड़ा अड्डा बन गया है. बीते नौ साल के दौरान इसी विभाग से 600 करोड़ रुपये से अधिक की काली कमाई छापों में मिली है. अब तक पूर्व स्वास्थ्य मंत्री अजय विश्नोई के अलावा एक स्वास्थ्य आयुक्त और तीन संचालकों पर आय से कई गुना अधिक संपत्ति पाए जाने का आरोप है. दरअसल घोटालों का यह सिलसिला 2005 में केंद्र के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के साथ ही शुरू हो गया था. इस कड़ी में सबसे पहले 2007 में तत्कालीन स्वास्थ्य संचालक डॉ. योगीराज शर्मा और उनके करीबी बिजनेसमैन अशोक नंदा के 21 ठिकानों पर आयकर विभाग ने छापे मारे और गद्दों के अंदर से करोड़ों रुपये बरामद किए. इसके बाद स्वास्थ्य संचालक बने डॉ. अशोक शर्मा के ठिकानों पर 2008 और अमरनाथ मित्तल के ठिकानों पर  आयकर छापे पड़े और इनके यहां भी लाखों की अवैध संपत्ति मिली.

2005 से अब तक स्वास्थ्य विभाग में घोटालों का लंबा पुलिंदा है जिसमें फिनाइल, ब्लीचिंग पाउडर से लेकर मच्छरदानी, ड्रग किट, कंप्यूटर और सर्जिकल उपकरण खरीद से जुड़े करोड़ों रुपये के काले कारनामे छिपे हैं. इसी कड़ी में केंद्र की दीनदयाल अंत्योदय उपचार योजना में विभाग के अधिकारियों ने मिलीभगत करके दवा-वितरण में लगभग 658 करोड़ रुपये का चूना लगाया है. नौकरशाही ने पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था को इस हद तक बीमार बना दिया है कि अधिकारी ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त बनाने के लिए केंद्र से भेजे गए 725 करोड़ रुपये का फंड भी खर्च नहीं कर पा रहे हैं. दिलचस्प है कि मप्र में हर साल स्वास्थ्य के लिए आवंटित इस बजट के एक चौथाई हिस्से का उपयोग ही नहीं हो पा रहा है. भ्रष्टाचार की हालत यह है कि इस विभाग के अधिकारियों के खिलाफ सबसे अधिक 42 प्रकरण लोकायुक्त में लंबित हैं.

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