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गरीब सवर्णों को उच्च शिक्षण संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में दस फीसदी आरक्षण के जरिए केंद्र सरकार ने एक बड़ा मास्टरस्ट्रोक जरूर खेला है लेकिन इसके अमल में आने में कई पेंच और संवैधानिक अड़चनें हैं.
गरीब सवर्णों को सरकार जो दस फीसदी आरक्षण देने की तैयारी कर रही है उसके लिए उसे मौजूदा पचास प्रतिशत की सीमा से बाहर रखा जाएगा और इसके लिए संविधान के अनुच्छेद अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन करना पड़ेगा.
जहां तक संसद का सवाल है तो बीजेपी को राज्यसभा में बहुमत न होने के बावजूद राजनीतिक तौर पर ज्यादा विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा. वरिष्ठ पत्रकार अरविंद सिंह कहते हैं, “कांग्रेस समेत ज्यादातर पार्टियां इस फैसले का सीधे-सीधे विरोध तो नहीं कर पाएंगी, लेकिन इस फैसले पर चुनावी फायदा लेने की कोशिश का आरोप तो लगा ही रही हैं और इसमें कोई संदेह भी नहीं है.”
आम चुनावों से ठीक पहले ऐसा कदम उठाने के लिए मोदी सरकार की राजनीतिक तौर पर आलोचना हो रही है. कांग्रेस ने परोक्ष रूप से सवर्ण आरक्षण का समर्थन किया है लेकिन ये सवाल भी पूछा है कि आखिर गरीबों को नौकरियां कब मिलेंगी. वहीं बहुजन समाज पार्टी ने साफ कर दिया है कि वह इस मामले में बीजेपी को संसद में समर्थन देगी.
अन्य राजनीतिक दल भी सीधे तौर पर सरकार के इस कदम का विरोध तो नहीं कर पाएंगे लेकिन उनकी कोशिश होगी कि ये फिलहाल अमल में न आ पाए ताकि केंद्र सरकार इसका श्रेय न ल सके. इस विधेयक को संसद के दोनों सदनों से दो तिहाई बहुमत से पास कराना बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती है. लेकिन यदि संसद में ये पारित भी हो गया तो इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती मिलना तय है और फिर सुप्रीम कोर्ट में यह संशोधन टिक पाएगा, अभी कहना मुश्किल है.
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और संविधान विशेषज्ञ डॉक्टर सूरत सिंह कहते हैं, “यह व्यवस्था सुप्रीम कोर्ट ने ही दी थी कि आरक्षण की सीमा पचास फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकती. दूसरे, संविधान ने आरक्षण का आधार सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को तय किया है, न कि आर्थिक पिछड़ेपन को. जाहिर है, ये संविधान के मूल ढांचे को भी प्रभावित कर सकता है.”
आरक्षण देश में हमेशा से एक संवेदनशील राजनीतिक मुद्दा रहा है खासकर 1991 में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद से. गरीब सवर्णों को आरक्षण देने की मांग भी अक्सर उठती रहती है और कई बार इसके प्रयास हुए भी हैं. पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने अपने कार्यकाल में मंडल आयोग की रिपोर्ट के प्रावधानों को लागू करते हुए अगड़ी जातियों के लिए 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने इसे खारिज कर दिया था.
शायद इसीलिए केंद्र सरकार संविधान में संशोधन करके आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था करने की तैयारी कर रही है लेकिन सुप्रीम कोर्ट में यह संशोधन टिका रह पाएगा, ये बड़ा सवाल है. हालांकि तमिलनाडु में 67 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है लेकिन वह संविधान के उन प्रावधानों के हवाले से है जिन्हें न्यायालयों में चुनौती नहीं दी जा सकती है.
जानकारों का यह भी कहना है कि किसी भी वर्ग के आरक्षण के लिए दो अनिवार्य शर्ते होती हैं. सबसे पहले तो उसके लिए संविधान में प्रावधान होना चाहिए और दूसरा यह कि उसके लिए एक आधार दस्तावेज तैयार होना चाहिए.
पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने के लिए पहले काका कालेलकर आयोग का गठन किया गया था और उसके बाद 1978 में बीपी मंडल आयोग का गठन किया गया था.
हाल ही में महाराष्ट्र में भी मराठों के आरक्षण देने के राजनीतिक फैसले से पहले एक आयोग का गठन किया गया. लेकिन सवर्णों को आरक्षण देने की केंद्र सरकार जो कोशिश करने जा रही है, उसमें इस प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है.
दूसरी ओर, सरकार के इस फैसले के पीछे राजनीतिक वजह को माना जा रहा है और इसकी टाइमिंग भी इस बात को साबित कर रही है. वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र कहते हैं कि पहले तो इसे लागू कर पाना मुश्किल है, दूसरे यदि लागू हो भी गया तो बीजेपी इसका फायदा नहीं उठा पाएगी.
उनके मुताबिक, “दरअसल, ये पहल सरकार ने ऐसे समय की है जब ठीक चुनाव का समय है. संसद में यदि ये पास नहीं हुआ तो बीजेपी इसकी जिम्मेदारी दूसरे दलों पर नहीं थोप पाएगी, क्योंकि ये सवाल उससे पूछा जाएगा कि आपने ये काम इतनी देरी से क्यों किया. दूसरे यदि पास हो भी जाता है तो चूंकि इसमें सभी राजनीतिक दलों की सहमति होगी, इसलिए अकेले बीजेपी क्रेडिट नहीं ले पाएगी.”