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Saturday, April 23, 2011

भूरिया के नाम पर चलेगी दिग्विजय की दुकानदारी

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विनोद उपाध्याय

श्री भूरिया को प्रदेश कांग्रेस की गुटबाजी को खत्म करने से पहले अपने घर (संसदीय क्षेत्र) में झांकना होगा, क्योंकि प्रदेश की ही तरह उनके गृह जिले में भी गुटबाजी चरम पर है। ऐसे में प्रदेशाध्यक्ष बने केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया के सामने चुनौतियां बढ़ गई हैं।
खोदा पहाड़, निकली चुहिया...यह कहावत प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व के मामले में भी सही साबित होती है। सुरेश पचौरी जैसे सुपर फ्लॉप चेहरे को विदा करने के बाद, जो नया चेहरा आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया का प्रस्तुत किया गया, उसमें भी मास अपील तो बिलकुल ही नहीं है। झाबुआ के मामाओं के बीच ही लोकप्रिय भूरिया पूरे प्रदेश में कांग्रेस का परचम कैसे लहरा पाएंगे, एक तरह से कांग्रेसी आलाकमान ने प्रदेश में हार की हैट्रिक सुनिश्चित करवा दी और शिवराजसिंह चौहान ही फिलहाल तो भूरिया एंड कंपनी पर भारी दिख रहे हैं।
मध्य प्रदेश की कांग्रेस की राजनीति को नजदीक से जानने वाले बताते हैं कि प्रदेश की राजनीति से अज्ञातवास काट रहे दिग्विजय सिंह ने बड़ी होशियारी से भूरिया के बहाने अपनी बंद पड़ी दुकान के शटर भी चालू कर दिए। अब तक श्री भूरिया को पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की अंगुली पकडक़र चलने वाला नेता माना जाता था, लेकिन अब समय आ गया है, जब वे कांग्रेस नेताओं को अपनी अंगुली के इशारे पर नचा सकते हैं। प्रदेश कांग्रेस के 34वें अध्यक्ष नामांकित हुए भूरिया दिग्विजय सरकार में आदिम जाति कल्याण मंत्री थे, वे केंद्र में पहले राज्यमंत्री और फिर कैबिनेट मंत्री बने। कांग्रेस के पारंपरिक गढ़ झाबुआ में लंबे समय तक दो भूरिया- दिलीप सिंह और कांतिलाल में से कोई एक ही चुना जाता रहा था। कांग्रेस में आदिवासी मुख्यमंत्री की मुहिम में असफल होने के बाद दिलीप सिंह भूरिया भाजपा में चले गए थे। इसके बाद पृथक छत्तीसगढ़ बनने के बाद के मप्र में कांतिलाल भूरिया आदिवासी नेतृत्व का निर्विवाद चेहरा बन गए थे। उन्हें पार्टी और गुट में सीधी सपाट निष्ठा का प्रतिफल मिला है।
अब सवाल उठता है कि पूरे प्रदेश में कांग्रेस की जबर्दस्त मिट्टïी पलित है और ऐसा लगता है कि विपक्ष नाम की कोई चिडिय़ा ही इस प्रदेश में नहीं उड़ती। ऐसे में कांन्तिलाल भूरिया गुटों में बटी कांग्रेस को किस प्रकार संजीवनी दे पाएंगे। अपने 10 साल के कार्यकाल में दिग्विजयसिंह ने जहां विकास के मामले में प्रदेश का भट्टा बैठाया, वहीं एक-एक कर सारे कांग्रेसी छत्रपों को हाशिये पर पटक दिया। संगठन या पार्टी नाम की तो कोई चीज कांग्रेस में है ही नहीं और कार्यकर्ता तो कोई नहीं, सारे ही नेता हैं और सभी को सिर्फ सत्ता सुख ही चाहिए। दिग्विजयसिंह की करनी का फल तो कांग्रेस को मिला और प्रदेश में सुपड़ा साफ हो गया। सुभाष यादव को हटाकर दिल्ली से पेराशूट के जरिए उतारे गए सुरेश पचौरी को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का ताज पहनाया गया, मगर पहले ही दिन से पचौरी अनफिट साबित हुए।

दरअसल सुरेश पचौरी ने कभी भी जमीनी नेतागिरी नहीं की, बल्कि राज्य सभा के दरवाजे से ही वे सांसद बनते रहे और इसी के बलबूते पर मंत्री पद भी मिल गया। दोनों विधानसभा चुनावों में सुरेश पचौरी के नेतृत्व में कांग्रेस ने जबर्दस्त हार का सामना किया और टिकट वितरण में तो जबर्दस्त गड़बडिय़ां की गई। साफ-साफ आरोप लगे कि लाखों रुपए लेकर टिकटें बांटी गई। सुरेश पचौरी को भी इस बात का अहसास अच्छी तरह हो गया कि उनके नेतृत्व में तो तीसरी बार प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के कोई आसार हैं नहीं, लिहाजा वे भी फडफ़ड़ा रहे थे कि प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद से छुटकारा मिले और नई दिल्ली जाकर मंत्री पद कबाडक़र चैन की सांस लें। इस तरह दिग्विजयसिंह ने 10 साल में प्रदेश में कांग्रेस को खोखला किया और अलग-अलग गुट बनवा दिए। कमलनाथ से लेकर सिंधिया और स्व. अर्जुनसिंह के खेमों में बंटी कांग्रेस इसलिए एकजुट नहीं हो सकी और लगातार हार का मुंह सारे ही चुनावों में देखना पड़ा। विधानसभा, लोकसभा से लेकर नगरीय निकायों और पंचायतों तथा उपचुनावों में भी कांग्रेस सिर्फ और सिर्फ हारती ही रही। श्री भूरिया को प्रदेश कांग्रेस की गुटबाजी को खत्म करने से पहले अपने घर (संसदीय क्षेत्र) में झांकना होगा, क्योंकि प्रदेश की ही तरह उनके गृह जिले में भी गुटबाजी चरम पर है। ऐसे में प्रदेशाध्यक्ष बने केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया के सामने चुनौतियां बढ़ गई हैं।
10 साल का राजनैतिक वनवास लेने वाले दिग्विजय सिंह नई दिल्ली जाकर कांग्रेस के महासचिव तो बन गए, मगर मध्यप्रदेश में उनकी रुचि कम नहीं हुई। हालांकि सैकड़ों मर्तबा उन्होंने पत्रकारों से चर्चा करते हुए यह बयान दिया कि मेरी दुकान बंद हो चुकी है और नेता-कार्यकर्ता दूसरी दुकान ढूंढ लें। मगर दिग्विजयसिंह पक्के राजनीतिज्ञ हैं और उन्होंने ज्योतिरादित्य सिंधिया को रोकने के लिए कांतिलाल भूरिया का नाम आगे बड़वाया। दरअसल पिछले दिनों प्रदेश कांग्रेस के नेतृत्व परिवर्तन की जब कवायद शुरू हुई, तब भूरिया, राजूखेड़ी के अलावा तीसरा सशक्त नाम ज्योतिरादित्य सिंधिया के रूप में ही सामने आया था, क्योंकि श्री सिंधिया की छबि जहां साफ-सुथरी है, वहीं उनमें मॉस अपील भी अन्य तमाम कांग्रेसी नेताओं की तुलना में अत्यधिक है, लेकिन कांग्रेस आलाकमान को भूरिया का नाम जंचवाकर उन्हें कल प्रदेश अध्यक्ष भी घोषित करवा दिया। हालांकि उनका मंत्री पद फिलहाल बरकरार रखा गया है। सुरेश पचौरी का नई दिल्ली में पुनर्वास कैसे होगा, इसका भी अभी फैसला नहीं हुआ।
पचौरी को रणछोड़दास बनवाकर दिग्विजयसिंह ने एक तीर से फिर कई निशाने साध लिए। सिंधिया का प्रवेश जहां प्रदेश में बतौर अध्यक्ष रोक दिया, वहीं स्व. अर्जुनसिंह के खाते से उनके पुत्र अजयसिंह को अब नेता प्रतिपक्ष बनवा दिया जाएगा, इधर श्री भूरिया का प्लस पाइंट यह है कि वे सभी को साथ लेकर चलेंगे और टिकट वितरण में भी उनकी रुचि सिर्फ झाबुआ बेल्ट में ही रहेगी। अन्य क्षेत्रों के टिकट दिग्गी, सिंधिया और कमलनाथ खेमों को उनकी मनमर्जी से बांटने की छूट दे देंगे, जहां तक इंदौर का सवाल है दिग्गी के मोहरे के रूप में बने कांतिलाल भूरिया के कारण महेश जोशी फिर से ताकतवर हो जाएंगे। वहीं कांतिलाल भूरिया के सबसे खास और अत्यंत नजदीकी राजू भाटी का दबदबा भी बढ़ जाएगा। कुल मिलाकर कांग्रेस आलाकमान ने कांतिलाल भूरिया को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर जुआं तो खेला है, क्योंकि फिलहाल तो उनके नेतृत्व में भी कांग्रेस आगामी विधानसभा चुनाव में कोई चमत्कार कर सत्ता हासिल कर लेगी, इसके आसार कम ही नजर आते हैं, क्योंकि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की छबि दिनोंदिन निखरती जा रही है। जगत मामा के रूप में मशहूर शिवराज ने आम आदमी और गरीबों के लिए जितनी कल्याणकारी योजनाएं शुरू की, वह इसके पूर्व किसी मुख्यमंत्री के कार्यकाल में नजर नहीं आई और पिछला चुनाव में शिवराजसिंह चौहान के बलबूते पर ही भाजपा ने जीता और शिवराज का ग्राफ लगातार चढ़ता ही गया। अब कांतिलाल भूरिया को साबित करना है कि वे कांग्रेस के सुतली बम साबित होंगे या खुद को रस्सीबम बना पाएंगे।
श्री भूरिया के प्रदेशाध्यक्ष बनने की संभावना फरवरी में उस समय ही शुरू हो गई थी, जब प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने मंत्रिमंडल में बदलाव के संकेत दिए थे। हालांकि उस समय श्री भूरिया से न तो मंत्री पद लिया गया, न ही प्रदेशाध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी गई। अब जबकि वे प्रदेशाध्यक्ष बन चुके हैं, तब भी वे मंत्री हैं। इससे उन्हें दोहरा प्रतिनिधित्व (केंद्र और राज्य) मिल गया है। एक साथ दोनों पदों पर होने से उन नेताओं के भी सुर बदल गए हैं, जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उनकी खिलाफत करते रहे थे। श्री भूरिया को प्रदेश की बागडोर सौंपने की चर्चा के बाद से ही स्थानीय नेताओं के कान दिल्ली और प्रदेश से आने वाली हर खबर से लग गए थे। श्री भूरिया के मंत्री रहते कांग्रेस के असंतुष्ट गुटों पर भले ही ज्यादा ध्यान न दिया गया हो, लेकिन चूंकि वे प्रदेशाध्यक्ष हैं, ऐसे में संगठन को मजबूत बनाना उनकी मुख्य जिम्मेदारी होगी। उन्हें अब अर्जुन सिंह गुट के पूर्व विधायक शिवकुमार झालानी को भी साधना पड़ेगा और दिग्विजय सिंह के पसंदीदा रहे विधायक प्रभुदयाल गेहलोत को भी। उनकी बड़ी चुनौती विपरीत धु्रवों श्री गेहलोत और प्यारे मियां के बीच समन्वय बनाने की भी रहेगी। अब सिंधिया गुट के समर्थक महेंद्रसिंह कालूखेड़ा और उनसे जुड़े लोगों को अस्तित्व कायम रखने के लिए भी ज्यादा प्रयास करना होगा। मौजूद कार्यवाहक शहर अध्यक्ष डॉ. राजेश शर्मा और विधायक का चुनाव लड़ चुके प्रमोद गुगलिया के बीच वैचारिक मतभेद होने से इनमें तालमेल के लिए भी श्री भूरिया को प्रयास करना होंगे, क्योंकि ये दोनों ही उनके काफी नजदीक हैं।
भूरिया ऐसे आदिवासी नेता हैं, जिनमें ईगो नहीं है। उन्हें प्रदेश और देश के सभी बड़े नेता चाहते हैं। उनके प्रदेशाध्यक्ष बनने से कांग्रेसी एकसूत्र में बंधेंगे। हाईकमान ने एक साथ दो जिम्मेदारियां देकर भाजपा के ख्याली पुलाव पकाने वाले नेताओं को उत्तर दे दिया है। नेता प्रतिपक्ष जमुनादेवी के निधन के बाद प्रदेश में आदिवासियों के नेतृत्व की कमी थी। श्री भूरिया के अध्यक्ष बनने से यह कमी पूरी हो गई है। चूंकि वे प्रदेश और देश दोनों जगह सक्रिय रहे हैं, अत: उन्हें लंबा राजनीतिक अनुभव है। इससे जो कांग्रेस कमजोर नजर आ रही है, वह और मजबूत होगी।

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