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Saturday, August 6, 2011

असमानता की आजादी का जश्‍न!


डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

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15 अगस्त, 2011 को हम आजादी की 65वीं सालगिरह मनाने जा रहे भारत में कौन कितना-कितना और किस-किस बात के लिये आजाद है? यह बात अब आम व्यक्ति भी समझने लगा है| इसके बावजूद भी हम बड़े फक्र से देशभर में आजादी का जश्‍न मनाते हैं| हर वर्ष आजादी के जश्‍न पर करोड़ों रुपये फूंकते आये हैं| कॉंग्रेस द्वारा भारत के राष्ट्रपिता घोषित किये गये मोहन दास कर्मचन्द गॉंधी के नेतृत्व में हम हजारों लाखों अनाम शहीदों को नमन करते हैं और अंग्रेजों की दासता से मिली मुक्ति को याद करके खुश होते हैं| लेकिन देश की जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी बयॉं करती है|


संविधान निर्माता एवं भारत रत्न डॉ. भीमराव अम्बेड़कर ने कहा था कि यदि मोहनदास कर्मचन्द गॉंधी के वंशजों को भारत की सत्ता सौंपी गयी तो इस देश के दबे-कुचले दमित, पिछड़े, दलित, आदिवासी और स्त्रियॉं ब्रिटिश गुलामी से आजादी मिलने के बाद भी मोहन दास कर्मचन्द गॉंधी के वंशजों के गुलाम ही बने रहेंगे| डॉ. अम्बेड़कर के चिन्तन को पढने से पता चलता है कि उनका मोहनदास कर्मचन्द गॉंधी के वंशजों या कॉंग्रेस का सीधे विरोध करना मन्तव्य कतई भी नहीं था, अपितु उनका तात्पर्य तत्कालीन सामन्ती एवं वर्गभेद करने वाली मानसिकता का विरोध करना था, जिसे डॉ. अम्बेडकर के अनुसार गॉंधी का खुला समर्थन था, या यों कहा जाये कि ये ही ताकतें उस समय गॉंधी को धन उपलब्ध करवाती थी| दुर्भाग्य से उस समय डॉ. अम्बेड़कर की इस टिप्पणी को केवल दलितों के समर्थन में समझकर गॉंधीवादी मीडिया ने कोई महत्व नहीं दिया था, बल्कि इस मॉंग का पुरजोर विरोध भी किया था| जबकि डॉ. अम्बेड़कर ने इस देश के बहुसंख्यक दबे-कुचले लोगों की आवाज को ब्रिटिश सत्ता के समक्ष उठाने का साहसिक प्रयास किया था| जिसे अन्तत: तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमन्त्री और मोहम्मद अली जिन्ना के समर्थन के बावजूद मोहन दास कर्मचन्द गॉंधी के विरोध के कारण स्वीकार नहीं किया जा सका|


आज डॉ. अम्बेड़कर की उक्त बात हर क्षेत्र में सच सिद्ध हो रही है| इस देश पर काले अंग्रेजों तथा कुछेक मठाधीशों का कब्जा हो चुका है, जबकि आम जनता बुरी तरह से कराह रही है| मात्र मंहगाई ही नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, मिलावट, कमीशनखोरी, भेदभाव, वर्गभेद, गैर-बराबरी, अत्याचार, शोषण, उत्पीड़न, बलात्कार, लूट, डकैती आदि अपराध लगातार बढ रहे हैं| जनता को बहुत जरूरी (मूलभूत) सुविधाओं का मिलना तो दूर उसके राशन कार्ड, ड्राईविंग लाईसेंस, मूल निवास एवं जाति प्रमाण-पत्र जैसे जरूरी दस्तावेज भी बिना रिश्‍वत दिये नहीं बनते हैं| आम लोगों को पीने को नल का या कुए का पानी उपलब्ध नहीं है, जबकि राजनेताओं एवं जनता के नौकरों (लोक सेवक-जिन्हें सरकारी अफसर कहा जाता है) के लिये 12 रुपये लीटर का बोतलबन्द पानी उपलब्ध है| रेलवे स्टेशन पर यात्रियों को बीड़ी-सिगरेट पीने के जुर्म में दण्डित किया जाता है, जबकि वातानुकूलित कक्षों में बैठकर सिगरेट तथा शराब पीने वाले रेल अफसरों के विरुद्ध कोई कार्यवाही करने वाला कोई नहीं है|


अफसरों द्वारा कोई अपराध किया जाता है तो सबसे पहले तो उसे (अपराध को) उनके ही साथी वरिष्ठ अफसरों द्वारा दबाने का भरसक प्रयास किया जाता है और यदि मीडिया या समाज सेवी संगठनों का अधिक दबाव पड़ता है तो अधिक से अधिक छोटी-मोटी अनुशासनिक कार्यवाही करके मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है, जबकि उसी प्रकृति के मामले में कोई आम व्यक्ति भूलवश भी फंस जाये तो उसे कई बरस के लिये जेल में डाल दिया जाता है| यह मनमानी तो तब चल रही है, जबकि हमारे संविधान में साफ शब्दों में लिखा हुआ है कि इस देश में सभी लोगों को कानून के समक्ष एक समान समझा जायेगा और सभी लोगों को कानून का एक समान संरक्षण प्रदान किया जायेगा| क्या हम इसी असमानता की आजादी का जश्‍न मनाने जा रहे हैं?

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