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Tuesday, August 2, 2011

क्या लिंगपूजन भारतीय संस्कृति है?

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क्या लिंगपूजन भारतीय संस्कृति है?

भारत में तैतीस करोड़ देवी देवता हैं, मगर यह देव अनोखा है। सभी देवताओं का मस्तक पूजा जाता है, चरण पूजे जाते हैं, परन्तु इस देवता का ​'लिंग' पूजा जाता है। बच्चे, बूढ़े, नौजवान, स्त्री, पुरुष, सभी बिना किसी शर्म लिहाज़ के, योनी एवं लिंग की एक अत्यंत गुप्त गतिविधि को याद दिलाते इस मूर्तिशिल्प को पूरी श्रद्धा से पूजते हैं और उपवास भी रखते हैं। क्या यही भारतीय संस्कृति है?

एक ऐसे भगवान की पूजा आराधना जिसे आदि शक्ति माना जाता है, जिसकी तीन आँखें हैं और जब वह मध्य कपाल में स्थित अपनी तीसरी आँख खोलता है तो दुनिया में प्रलय आ जाता है। इस भगवान का रूप बड़ा विचित्र है। शरीर पर मसान की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटा में गंगा नदी तथा माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। बैल को उन्होंने अपना वाहन बना रखा है।

यह भगवान जिसकी बारात में भूत—प्रेत—पिशाचों जैसी काल्पनिक ​शक्तियाँ शामिल होती हैं, एक ऐसा शक्तिशाली देवता जो अपनी अर्धांगिनी के साथ एक हज़ार वर्षों तक संभोग करता है और जिसके वीर्य स्खलन से हिमालय पर्वत का निर्माण हो जाता है। एक ऐसा भगवान जो चढ़ावे में भाँग—धतूरा पसंद करता है और विष पीकर नीलकण्ठ कहलाता है। ओफ्फो— और भी न जाने क्या—क्या विचित्र बातें इस भगवान के बारे में प्रचलित हैं जिन्हें सुन—जानकर भी हमारे देश के लोग पूरी श्रद्धा से इस तथा​कथित शक्ति की उपासना में लगे रहते है।

हमारी पुरा कथाओं में इस तरह के बहुत से अदृभुत चरित्र और उनसे संबधित अदृभुत कहानियाँ है जिन्हें पढ़कर हमारे पुरखों की कल्पना शक्ति पर आश्चर्य होता है। सारी दुनिया ही में एक समय विशेष में ऐसी फेंटेसियाँ लिखी गईं जिनमें वैज्ञानिक तथ्यों से परे कल्पनातीत पात्रों, घटनाओं के साथ रोचक कथाओं का तानाबाना बुना गया है। सभी देशों में लोग सामंती युग की इन कथाओं को सुन—सुनकर ही बड़े हुए हैं जो वैज्ञानिक चिंतन के अभाव में बेसिर पैर की मगर रोचक हैं। परन्तु, कथा—कहानियों के पात्रों को जिस तरह से हमारे देश में देवत्व प्रदान किया गया है, अतीत के कल्पना संसार को ईश्वर की माया के रूप में अपना अंधविश्वास बनाया गया है, वैसा दुनिया के दूसरे किसी देश में नहीं देखा जाता। अंधविश्वास किसी न किसी रूप में हर देश में मौजूद है मगर भारत में जिस तरह से विज्ञान को ताक पर रखकर अंधविश्वासों को पारायण, जप—तप, व्रत—त्योहारों के रूप में किया जाता है यह बेहद दयनीय और क्षोभनीय है।

देश की आज़ादी के समय गाँधी के तथाकथित 'सत्य' का ध्यान इस तरफ बिल्कुल नहीं गया। नेहरू से लेकर देश की प्रत्येक सरकार ने विज्ञान के प्रचार-प्रसार, शिक्षा और भारतीय जनमानस के बौद्धिक विकास में किस भयानक स्तर की लापरवाही बरती है, वह इन सब कर्मकांडों में जनमानस की, दिमाग ताक पर रखकर की जा रही गंभीरतापूर्ण भागीदारी से पता चलता है। आम जनसाधारण ही नहीं पढ़े लिखे शिक्षित दीक्षित लोग भी जिस तरह से आँख मूँदकर 'शिवलिंग' को भगवान मानकर उसकी आराधना में लीन दिखाई देते हैं, वह सब देखकर इस देश की हालत पर बहुत तरस आता है।

यह भारतीय संस्कृति है! अंधविश्वासों का पारायण भारतीय संस्कृति है ! वे तथाकथित शक्तियाँ, जिन्होंने तथा​कथित रूप से विश्व रचा, जो वस्तुगत रूप से अस्तित्व में ही नहीं हैं, उनकी पूजा-उपासना भारतीय संस्कृति है! जो लिंग 'मूत्रोत्तसर्जन' अथवा 'कामवासना' एवं 'संतानोत्पत्ति' के अलावा किसी काम का नही, उसकी आराधना, पूजन, नमन भारतीय संस्कृति है? चिंता का विषय है !! कब भारतीय जनमानस सही वैज्ञानिक चिंतन दृष्टि सम्पन्न होगा!! कब वह सृष्टी में अपने अस्तित्व के सही कारण जान पाएगा!! कब वह इस सृष्टि से काल्पनिक शक्तियों को पदच्यूत कर अपनी वास्तविक शक्ति से संवार पाएगा ?

(परमेश्वर लहरे ब्लागर हैं और दलित मुक्ति मोर्चा से संबद्ध हैं)

साभार - विस्फोट डोट कॉम

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