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Wednesday, November 23, 2011

आरएसएस का इस्लाम प्रेम

पंकज चतुर्वेदी  

भारत को हिन्दूराष्ट्र बतानेवाला संघ यदि मुस्लिम प्रेम की बात करें तो कुछ अजीब सा लगता है। विगत दिनों मध्यप्रदेश के राजगढ़ में आयोजित संघ के एक कार्यक्रम में स्वयंसेवकों की भारी भीड़ में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने जो बोला उसका आशय यही है कि संघ अब मुसलमानों से प्रेम करेगा यह प्रेम वास्तविक होगा या छलवा इसका उत्तर तो समय के गर्भ में है। संघ से अकेले ही जूझ रहें कांगेसी दिग्गज दिग्विजय सिंह के गढ़, राजगढ़ में भागवत ने स्पष्ट कहा कि उपासना और पूजा की पध्दति कोई भी हो पर, यदि सोच राष्ट्रवादी है तो ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों से संघ को परहेज नहीं होगा। संघ के इस मुस्लिम प्रेम के पीछे संघ का कमजोर होता ढांचा है। इसीलिये अब संघ राष्ट्रव्यापी स्तर पर राष्ट्रवादी गैर हिंदू ढूंढा रहा है। सन 1925 में डॉक्टर हेडगेवार ने जिस सोच के साथ संघ का निर्माण किया था ,ऐसा लगता है कि अब वह सोच और विचार दोनों ही बदलने का समय आ चुका है। 

इसके पहले कभी भी संघ ने अपनी विचरधारा और सिधान्तों से समझौता नहीं किया फिर वह गाँधी हत्या से जुड़े आरोप हो या आजादी के आन्दोलन में पीछे रहने की बात हो। संघ अपनी सोच पर अडिग रहा। अब विचार और आचार बदलने का कारण संघ का धीरे-धीरे कम होता आधार है। आज देश में जनसँख्या तो बढ़ रही है, पर संघ की शाखाओं और सक्रिय स्वयंसेवकों की संख्या दिनों-दिन कम होती जा रही है। संघ की शाखाओं में औसत उपस्थिति लगभग दस सक्रिय स्वयंसेवकों की है, और पन्द्रह से बीस लाख की आबादी पर ऐसी लगभग सौ शाखाएं काम कर रही है। इस सब ने संघ को अपनी रीति-नीति पर पुनर्विचार के लिए बाध्य किया। रज्जू भैया के कमान छोडने के बाद से ही इस पथ पर संघ का संचलन शुरू हो गया था। सुदर्शन के कार्यकाल से मुस्लिम प्रेम पर ठोस काम शुरू हो गया। 

प्रारंभिक प्रयास यह थे कि ऐसा कुछ हो कि सांप भी मर जाये और लाठी भी ना टूटे लेकिन यह इतना आसान नही है। संघ के भाई-बंद जिसमें विहिप, बजरंगदल आदि शामिल है, संघ के इस मुस्लिम प्रेम से रूठे हुए है। फिर भी संघ अब देश के 25 से तीस करोड़ मुसलमानों की उपेक्षा ना कर उनसे अपेक्षा कर रहा है कि वह संघ को नजदीक से देखें और पहचाने। भगवा आतंक के कथित आरोपों के प्रचार-प्रसार से संघ की छबि धूमिल हो रही है। भारत में हमेशा से ही नरमपंथियों को महत्व मिला है चाहे वह गाँधी के सामने नेता जी सुभाषचंद्र बोस हो या पंडित नेहरु के सामने सरदार पटेल। गाँधी और नेहरु को नरमपंथी रुख के कारण जनस्वीकार्यता अधिक मिली। संघ की राजनीतिक इकाई भाजपा भी नरमपंथी अटल के नेतृत्व में ही दिल्ली की सरकार बना पायी थी। अटल की तुलना में कट्टर छबि के मालिक आडवानी दो बार से प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री ही है और लगता कि वे एक बार फिर अड़े है हालाँकि दिल्ली अभी दूर है। 

शायद यह इतिहास ही संघ का रुख लचीला कर रहा है। संघ ने मुसलमानों को सुनने और समझने के लिए बकायदा मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का गठन किया है, जो सन 2008 से पैगाम अमन दे रहा है। यह मंच मुसलमानों से अदावत खत्म कर दोस्ती का हाथ बढ़ा रहा है। संघ ने इन सब गतिविधियों के लिए मुख्यत: राजस्थान, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश को केंद्रित किया है, जहाँ मुसलमानों की एक बड़ी आबादी रहती है। संघ के पूर्व प्रमुख सुदर्शन तो स्थाई रूप से मध्य प्रदेश में ही निवास कर रहें है। हाल ही में सुदर्शन ने उत्तरप्रदेश का दौरा कर तमाम बड़े मुस्लिम नेताओं और धर्मगुरुओं से मुलकात कर उनका मन संघ के प्रति साफ करने की कोशिश की है। मध्यप्रदेश की वर्तमान भाजपा सरकार का भी संघ की इस  इच्छा को ध्यान में रखते हुए मस्जिद और मदरसों की मदद को तत्पर नजर आ रही है। संघ इस बात का  भी विशेष ध्यान रख रहा है कि इन कार्यक्रमों  में मोदी जैसी कट्टर छबि का कोई  नेता ना आ जाए, नहीं तो बात बनने से पहले ही बिगड़ जायेगी। भोपाल के अपने हालिया प्रवास में संघ प्रमुख भागवत ने समाज के विभिन्न वर्गों के ऐसे लोगो से जो स्वयंसेवक नहीं थे,समूहवार चर्चा कर उन्हें संघ का मंत्र देने का प्रयास भी किया है। इस सब के बाद भी संघ की यह राह उतनी आसान नहीं है जितना संघ समझ रहा है।

देश के मुसलमान यह भी ध्यान में रखे है कि आज के पहले संघ का रुख देश के मुसलमानों और उनसे जुड़े विषयों पर कैसा था। भविष्य के लिए  अयोध्या, काशी और मथुरा जैसे विषयों पर संघ को अपना रुख आज ही बिल्कुल साफ करना होगा तभी कुछ सार्थक सामने आ सकता है, नहीं तो यह प्रयास निष्फल साबित होंगे। संघ का यह नया दांव उन राजनितिक दलों के लिए भी खतरे की घंटी है, जो अभी तक मुसलमानों को अपना वोट बैंक मानते चले आ रहे है। वैसे भी भारत में नेता बात समानता की करते है जरुर है, पर मन मस्तिष्क में साम्प्रदायिकता का ही जोर रहता है। क्योकि इस धर्मान्ध देश में धर्म के रास्ते सत्ता तक पहुचना आसान है।

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