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Thursday, April 12, 2012

मूर्खों को ही क्यों, चैनलों को भी 'तेरा ही आसरा' है

इस बात का कोई सुबूत तो नहीं है लेकिन शत-प्रतिशत ऐसा ही है कि टैम भी निर्मल बाबा के हाथों बिक चुका है, क्योंकि तीसरी आंख वाले बाबा का ढोंग बकौल न्यूज़ चैनल्स एक विज्ञापन के तौर पर प्रसारित किया जा रहा है, लेकिन सवाल ये है कि आखिर एक विज्ञापन को टीआरपी में क्यों गिना जा रहा है। हर हफ्ते टैम की ओर से जारी होने वाली रिपोर्ट में वो आधे घंटे टीआरपी में क्यों गिने जा रहे हैं। न्यूज़ चैनलों के संपादक शायद अपने साथियों की मेहनत को मिट्टी में मिलाने में तुले हैं लेकिन क्या टैम वालों पर भी तीसरी आंख की कृपा हो गई है? क्या टैम वालों ने भी घर में कढ़ी चावल बनाने शुरू कर दिये हैं? सवाल लाख टके का ये भी है।

देशभर के जिन शहरों में टीआरपी सैंटर हैं उन शहरों में ऐसा तो है नहीं कि 100 फीसदी अनपढ़ लोग ही बसे हैं। वहां एक पढ़ा लिखा और जागरूक तबका भी मौजूद है और ऐसा भी नहीं है कि टामियों की टीआरपी के मापदंड तय करने वाली मशीनें समाज के ऐसे तबके के घरों में लगे हैं जिन्हें आस्था और अंधविश्वास के बीच का फर्क नहीं मालूम। इसलिए आखिर तीसरी आंख वाले बाबा के इस कार्यक्रम की टीआरपी ऐसे उछाल पर क्यों है, इससे ज्यादा बेहतर और कहीं ना कहीं मनोरंजन करने वाले विज्ञापन भी करीब करीब हर न्यूज़ चैनल पर प्रसारित किये जा रहे हैं लेकिन उनकी टीआरपी क्यों नहीं आ रही?

खास बात ये है कि अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाले इस तरह के कई विज्ञापन पहले भी कई न्यूज़ चैनलों पर प्रसारित किये जाते रहे हैं लेकिन आज से पहले कभी उन विज्ञापनों को टीआरपी में नहीं गिना गया, इससे तो यही ज़ाहिर होता है कि तीसरी आंख वाले बाबा जी के दरबार में पड़ने वाली लाखों रुपयों की बारिश की कुछ छींटे टैम के ऊपर भी पड़ी हैं जिसकी बदौलत बाबा जी रातों रात शोहरत बटोरने में कामयाब हो गये हैं, और अगर ये बात कहीं ना कहीं सच साबित होती है तो वाकई उन तमाम मीडियाकर्मियों के लिए सोचने का विषय है जो 20-20 हज़ार रुपये या फिर उससे भी कम मानदेय पर न्यूज़ चैनलों के तमाम स्पेशल प्रोग्राम बनाते हैं और उनके बदले की टीआरपी ले जाती है तीसरी आंख।

हैरानी की बात तो ये है कि आखिर इस तरह की बकवास पर कोई इस कदर आंख मूंद कर भरोसा कैसे कर सकता है। सवाल तो न्यूज़ चैनल चला रहे संपादकों और मालिकों से भी है कि अगर तीसरी आंख की कृपा से ही टीआरपी आ रही है तो फिर तमाम कार्यक्रम बनाने की क्या ज़रूरत है? इस बारे में वक्त रहते अगर न्यूज़ चैनलों में काम कर रहे पत्रकारों की आंखें नहीं खुली और एकजुट होकर उन्होंने थर्ड आई ऑफ निर्मल बाबा नामक भ्रांति का विरोध नहीं किया तो वो दिन दूर नहीं जब न्यूज़ चैनलों के मालिकों के लिए सोने की मुर्गी साबित हो रहे निर्मल बाबा जैसे लोग ही न्यूज़ चैनलों पर प्रसारित किये जाएंगे और वहां काम करने वाले लोगों की न्यूज़ चैनलों के मालिकों को रत्तीभर भी ज़रूरत नहीं रहेगी।

एक और बात ये कि दुनिया टैलेंट के मामले में हिंदुस्तान का लोहा मानती है यानी हमारे देश में जिस तरीके से नकल होती है उसी तरीके से लोगों के पास अपने भी आईडिया मौजूद है इसलिए आने वाले दिनों में कुछ लोग तीसरी आंख वाले बाबा जी की नकल तो कर ही सकते हैं साथ ही अपनी प्रतिभा दिखाकर कुछ इसी तरीके के अंधविश्वास और फर्जी चमत्कारों से लबरेज़ नये कार्यक्रम भी न्यूज़ चैनलों की झोली में डाल सकते हैं। इसलिए सावधान हो जाओ मेरे साथी मीडियाकर्मियों। अगर ऐसे ही चलता रहा तो पत्रकार जैसे शब्दों का कोई मतलब इस देश में नहीं रह जाएगा।

पत्रकार भी आज़ाद हिंद सेना के सिपाहियों की तरह बनकर रह जाएंगे, जिनके बारे में कुछ खास जानकारी इस दुनिया में मौजूद नहीं है। ये बात सिर्फ गरीब पत्रकारों के लिए ही चिंता का विषय नहीं है बल्कि उन संपादकों के लिए भी सोचने की बात है जो फिलहाल तो निर्मल बाबा जैसी सोने की मुर्गी अपने मालिकों को भेंट कर उन्हें खुश करने में लगे हैं लेकिन ये मुर्गी जब सोने के अंडे देने लगेगी तो उनकी भी कोई खास ज़रूरत मालिकों की नज़रों में नहीं रह जाएगी.....ज़रा सोचिये.


(मीडिया दरबार से साभार)

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