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Friday, May 4, 2012

मेडिकल माफियाओं के शिकन्जे में सरकार



अवधेश भार्गव  
 
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पीपुल्स मेडिकल कॉलेज से जुड़ा प्रबंधन भले ही खुद के ही यूनिवर्सिटी होने का हवाला देकर एडम्ीशन प्रक्रिया निर्धारित कर सभी 150 सीटों पर खुद ही एडमीशन देने का दावा कर रहा है, लेकिन राज्य सरकार ने निजी विश्वविद्यालय (स्थापना एवं संचालन) अधिनियम 2007 के तहत मिले अधिकार में विश्वविद्यालय के स्टेच्यु/आर्डीनेंस पास रखने का अधिकार अपने हाथ में रखा है। पीपुल्स विश्वविद्यालय द्वारा राज्य सरकार को भेजे गए यूनिवर्सिटी के स्टेच्यू के प्रारूप मे प्रवेश प्रक्रिया अपने हाथ में रखे जाने का हवाला दिया था। परंतु राज्य सरकार के चिकित्सा शिक्षा विभाग के हस्तक्षेप के बाद यह निर्णय लिया गया है कि प्रवेश प्रक्रिया राज्य सरकार के चिकित्सा शिक्षा विभाग, मेडिकल डेंटल काउंसिल ऑफ इंडिया के द्वारा समय-समय पर जारी किए जाने वाले निर्देशों के तहत होगी। फिलहाल मुख्यमंत्री ने विवि के अधिनियम में इस तरह का संशोधन किए जाने की नोटशीट पर तो हस्ताक्षर कर दिए है। अब देखना यह है कि उच्च शिक्षा विभाग कब तक इन संशोधनों को पीपुल्स विश्वविद्यालय द्वारा दिए गए संविधान में समविष्ट कर उसका गजट नोटिफिकेशन करवाता है? यदि सरकार से ही जुड़े कुछ प्रभावशाली लोगों के  हस्तक्षेप के बावजूद ऐसा हो सका तो यह निश्चित ही आम तबके से आने वाले प्रतिभाशाली छात्रों के भविष्य से जुड़ा एक ऐसा फैसला होगा जिसके दूरगामी सकरात्मक प्रभाव होगे और निश्चित ही इसके लिए मध्यप्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह साधुवाद के पात्र होंगे।
 
मेडिकल माफिया ने एक रास्ता प्राइवेट यूनिवर्सिटी का भी अख्तियार कर लिया है। मेडिकल कॉलेज खोलने वाले माफिया येन-केन प्रकारेण खुद को कॉलेज को यूनिवर्सिटी का दर्जा दिलाने के लिए पानी की तरह पैसा बहाते हैं और फिर मनमाने ढंग से प्रवेश देते हैं, अच्छी खासी रकम लेकर बेची जाने वाली इन सीटों में गुणवत्ता को ताक में रख दिया जाता है। मेडिकल 20 से 60 लाख तक में बेची जा रही हैं। पोस्ट ग्रेज्युएट (एमएस, एमडी) करने वाले लोगों से एक से डेढ़ करोड़ रूपये वसूले जा रहे है। इंदौर का ही मामला लें तो रेडियोलॉजी के पीजीकोर्स की सीट 1 करोड़ से ज्यादा में गई हैं। ..
भोपाल सन 1965 में जब पहली बार माफिया शब्द का प्रयोग शुरू हुआ तो किसी का अंदाजा भी नहीं होगा कि एक दिन अंडरवल्र्ड, ड्रग के सौदागरों के लिए प्रयोग होने वाला यह शब्द सभ्य समाज के आधार शिक्षा को भी चपेट में ले लेगा। शिक्षा माफिया अब एक कल्पना नहीं बल्कि हकीकत बन चुका है। और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि पिछले कुछ सालों में मेडिकल माफिया एक ऐसे दुस्वप्र के रूप मे सामने आया है जो चिकित्सा शिक्षा के नाम पर नियमों की कब्र पर दौलत का अंबार खड़ा कर रहा है। चिकित्सा शिक्षा के लिए बनाए गए मानकों, नियमों की कब्र पर खड़े इन संस्थानों से अब डॉक्टरों नही बल्कि ड्रैकुला डॉक्टरों की फौज ज्यादा निकल रही है। बड़े षडय़ंत्रपूर्व ढंग से सरकारी क्षेत्र के उच्च गुणवत्ता वाले चिकित्सा वाले संस्थानों को खत्म कर सामानांतर चिकित्सा संस्था तंत्र खड़ा किया जा रहा है। कमोवेश यही हालत इंजीनियर शिक्षा के नाम पर भी पैदा किए जा रहे है। निश्चित ही देश में इंजीनियरों की कमी है लेकिन कुकुरमुत्ते की तरह उग आऐं स्थानों में केवल डिग्रियां बांटी जा रही है। गुणवत्ता हंाशिए पर है, लेकिन चिकित्सा  का मामला संवेदनशील हो जाता है क्योंकि वह सीधे-सीधे मानव जीवन से जुड़ा हुआ है। किसी भी डॉक्टर की लापरवाही उस व्यक्ति या परिवार को जीवन भर का दंश दे सकती है जो डॉक्टर के हाथ में अपनी जीवन की नैया की पतवार पकड़ा देता है। 
मेडिकल माफिया के हाथों मे आज करोड़ों रूपये का कारोबार है जो हर कदम पर मेडिकल काउंसिल ऑफ इण्डिया, चिकित्सा मानकों को दौलत के रूप में धत्ता बताते दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति कर रहा है। इस पवित्र पेशे को कारोबार की शक्ल देकर मानवता को ताक में रख दिया है। कभी दक्षिण भारत, महाराष्ट्र से शुरू हुआ मेडिकल माफिया का यह खेल अब दुसरे राज्यों में भी अपनी विष भुंजाएं फैलाता जा रहा है। मेडिकल माफिया ने एक रास्ता प्राइवेट यूनिवर्सिटी का भी अख्तियार कर लिया है। मेडिकल कॉलेज खोलने वाले माफिया येन केन प्रकारेण खुद के कॉलेज को यूनिवर्सिटी का दर्जा दिलाने के लिए पानी की तरह पैसा बहाते है और फिर मनमाने ढंग से प्रवेश देते है, अच्छी खासी रकम लेकर बेची जाने वाली सीटों में गुणवत्ता को ताक में रख दिया जाता है। मेडिक्ल की सीटें 20 से 60 लाख तक बेची जा रही हैं। पोस्ट ग्रेज्युएट (एमएस, एमडी) करने वाले लोगों से एक से डेढ़ करोड़ रूपये वसूले जा रहे है। इंदौर का मामला ले तो रेडियोलॉजी के पीजी कोर्स की सीट 1 करोड़ रूपये से गई हैं। ऐसे संस्थानों से निकलने वाले इन तथाकथित डॉक्टरों का एक ही मकसद होता  है, वह है अपनी लागत की भरपाई। जिसका परिणाम भुगतना पड़ता है आम भोले-भाले मरीजों को। ये डॉक्टर मरीजों के पेट को तिजोरी समझते हैं और डॉक्टरी औजार को उसकी चाबी... इस चाबी से जब चाहा मरीज का पेट खोला और पैसे निकाल लिए...। 
महाराष्ट्र और दक्षिण भारत से शुरू हुआ यह खेल अब मध्यप्रदेश में भी सिर चढक़र बोलने लगा है। अटूट दौलत के दम पर आनन-फानन में कॉलेज खोले जा रहे है और सरकार की छाती पर भांगड़ा कर जमकर चांदी काटी जा रही है। सरकारी कॉलेजों के उन डॉक्टरों ने जिन्होंने सरकार के रहमों करम पर चंद हजार रूपयों में डॉक्टरी की पढ़ाई तो पूरी कर ली थी, उन्हें निजी कॉलेज मोटी तनख्वाहों पर अपने यहां ले जा रहे है। वीआरएस का फायदा लेकर सरकारी सुविधाएं भी पा रहे है और निजी कॉलेजों में सेवाएं भी दे रहे हैं। कई तो ऐसे है जो लंबी छुट्टी या अध्ययन अवकाश पर है और निजी मेडिकल इंजीनियरिंग कॉलेजों में अपनी सेवाएं दे रहे है। सरकार इन शिक्षा माफियाओं के दांव-पेंच के आगे अपने आपको असहाय पा रही है। मध्यप्रदेश में जहां चंद साल पहले तक महज 6 सरकारी कॉलेज थे वहां निजी क्षेत्र में भी 6 और कालेज खोल दिए गए है। इन कॉलेजों के लिए पैसा कहां से आया यह तो जांच का अलग विषय है, लेकिन इन कॉलेजों में मनमाने ढंग से न सिर्फ प्रवेश प्रवेश दिए जा रहे हैं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा मृदुल धर प्रकरण में दिए गए फैसले के अनुसार बनाई गई एडमीशन और फीस रेगुलेशन कमेटी को भी धता बताई जा रही है। सरकारी तंत्र में जहां इनकी अनियमितताओं के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोग भी है वहीं एक तबका ऐसे अधिकारियों, मंत्रियों, नेताओं और दलालों का भी है जो इनके गुनाहों को दौलत और सत्ता की ताकत से ढंक रहे है।

सरकारी तंत्र की नीयत भी संदेह के दायरे में

प्राइवेट यूनिवर्सिटी की आड़ मे मनमाने ढंग से छात्रों को प्रवेश देने और फीस वसूलने के इस पूरे विवाद में खुद सरकार के ही कुछ मंत्रियों, अधिकारियों और सरकार द्वारा बनाए गए आयोगों जैसे एडमीशन एवं फीस रेग्यूलेटरी कमेटी, प्राइवेट यूनिर्वसिटी कमीशन कुछ कर्ताधर्ताओं की नीयत संदेह के दायरे में है। मसलन जब उच्च शिक्षा विभाग ने आनन-फानन में ऐन काउंसलिंग के पहले पीपुल्स मेडिकल कॉलेज को यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया था तो उसे यूनिवर्सिटी के संचालन के लिए नियमों, परिनियमों का प्रकाशन भी दो माह के भीतर देना था। अव्वल होना तो यह था कि उच्च शिक्षा विभाग पूरी तैयारी के साथ यूनिवर्सिटी का दर्जा देने की घोषणा करता। चूंकि मई-जून में ही मेडिकल कॉलेजों में एडम्ीशन की प्रकिया होती है अत: सस्था विशेष को कथित रूप से फायदा पहुंचाने के लिए आनन-फानन में दिया गया है। आज आठ माह से ऊपर होने को आए हैं, लेकिन विश्वविद्यालय के स्टेच्यू, आर्डिनेंस का प्रकाशन भी अभी तक नहीं हो पाया है हांलाकि यूनिवर्सिटी ने संविधान बनाकर भी दे दिया है और न्यायालय से आदेश भी प्राप्त कर लिया है। इस पूरे मामले में पता चला है कि सरकार के ही कुछ मंत्री अपने कतिपय हितों के चलते अनियमितता के साथ खड़े हुए है। हांलाकि यह मध्यप्रदेश का सौभाग्य है कि मुख्यमंत्री की संवेदनशीलता के चलते और इस पूर गड़बड़ घोटाले पर व्यक्तिगत नजर रखने के कारण षडय़ंत्रकारी नेता, अधिकारी अभी तक पूरी तरह सफल नहीं हो पाए हैं। ऐसा नही है कि संविधान के मामले में सिर्फ मेडिकल कोर्स संचालित करने वाले संस्थान को ही उच्च शिक्षा विभाग की लापरवाही और लेतलाली का फायदा मिल रहा हो। मध्यप्रदेश में अभी तक जेपी, एमिटी, आईसेक्ट, आरके डीएफ सहित छह संस्थानों को यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया गया है। पर कड़वी हकीकत यह है कि अभी तक इनमें से सिर्फ आईसेक्ट यूनिवर्सिटी के संविधान का ही गजट नोटिफकेशन हो पाया है। बाकी सभी निजी विश्वविद्यालय अपने ढंग से प्रवेश दे रहे है। जेपी यूनिवर्सिटी का मामला ले तो वह न सिर्फ छात्रों को प्रवेश दे  रहा है बल्कि दूसरे विश्वविद्यालय द्वारा किए जानेवाले अनुसूचित जाति और जनजाति के छात्रों के आरक्षण नियमों का पालन कर रहा है। यह बात अलग है कि प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह अभी हाल हुई छात्र पंचायत में यह घोषणा कर चुके है कि आरक्षण की जद में आने वाले छात्रों के हितों से समझौता करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा।

छात्रों के भविष्य के साथ हो रहा खिलवाड़

खुद सरकारी तंत्र में नियमों के पालन करवाने की कमजोर इच्छाशक्ति और माफिया की ताकत का खामियाजा छात्रों का या तो उठाना पड़ रहा है या फिर उन्हें भविष्य में उठाना पड़ेगा। आज लाखों रूपये देकर जो छात्र पढ़ाई कर रहे है। खासकर मेडिकल कॉलेज के छात्रों को भले ही कल हाथ में डिग्री मिल जाए लेकिन जब तक वह बेमानी है जब तक कि पढ़ाई कर निकले डॉक्टरों को केन्द्र सरकार के अधीन आने वाली नियामक संस्था मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया मान्यता न दे दे। ताजा मामला ही लें तो जिन 95 छात्रों को पीपुल्स मेडिकल कॉलेज ने सन 2011-2012 के शैक्षणिक सत्र में ज्यादा प्रवेश दे दिया था अब मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया उन्हें निकाले जाने का फरमान जारी कर दिया है। 26 दिसम्बर 2011 को हुई बोर्ड ऑफ गर्वनर की बैठक के बाद एमसीआई की सचिव ने पीपुल्स मेडिकल कालेज भोपाल को पत्र भेजकर सरकार द्वारा आयोजित पीएमटी परीक्षा देकर 95 छात्रों करे ही सही ठहराते हुए सूचित किया है कि यूनिवर्सिटी ने गलत ढंग से 85 छात्रों को प्रवेश दिया है उन्हें बाहर किया जाए। सरकार एमसीआई और यूनिर्वसिटी का आपसी तानातनी के बीच 95 छात्रों का भविष्य अधर में लटक गया है। इनमें से ज्यादातर वे लोग है जिन्हें मोटी रकम लेकर मेनेजमेंट कोटे के तहत पीपुल्स यूनिवर्सिटी ने सीधे प्रवेश दे दिया था। अब सवाल यह उठता है कि जब कॉलेज को मान्यता ही 150 सीटों की थी तो उसमें 245 छात्रों को प्रवेश कैसे दे दिया गया और यदि प्रवेश दे दिया गया था तो फिर उन 95 छात्रों के भविष्य का क्या होगा जिन्हें निकाल बाहर करना है। दरअसल अब तक होता यह रहा है कि देश भर में मेडिकल को संचालित करने वाले संस्थान पहले तो एमसीआई द्वारा स्वीकृत संख्या से ज्यादा छात्रों को प्रवेश देते रहे हैं और बाद में अदालतें मानवीयता के आधार वाली इस पर इसे नियमित करती रही है पर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने 11 जनवरी 2011 को जो फैसला (जेएसएस मेडिकल कॉलेज विरूद्ध मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया) दिया है उसने उच्च न्यायालय से अमूमन मिल जाने वाली इस तरह की राहत का रास्ता भी बंद कर दिया है। कर्नाटक के जेएसएस मेडिकल कॉलेज एमसीआई द्वारा स्वीकृत 150 सीटों के बजाय 200 छात्रों को प्रवेश दे दिया गया था और बाद में उच्च न्यायालय ने राहत दे दी थी। पर जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज करते हुए स्पष्ट कहा है कि अदालतें तय संख्या से ज्यादा सीटे भरे जाने का आदेश नहीं दे सकती है। साथ ही साथ सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया है कि ऐसा करना कानून के साथ खिलवाड़ तो है ही साथ ही साथ उन 150 छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ होगा, जो नियमित ढंग से प्रवेश लेकर पढ़ाई कर रहे हैं। जब अस्पताल के पास संस्थान 150 छात्रों के लिए है ज्यादा छात्रों को प्रवेश देना उनके साथ अन्याय होगा। मध्यप्रदेश में भी यहीं स्थिति पैदा हो गई है। 95 छात्रों को या तो यूनिवर्सिटी द्वारा निकालना होगा यदि पीपुल्स उन्हें डिग्री दे भी दी (यदि यूनिवर्सिटी का दर्जा बरकरार रहा) तो यह तय है कि इन 95 छात्रों को एमसीआई से मान्यता नहीं मिलेगी। यानि लाखों रूपये और कीमती साल बर्बाद करने के बावजूद उनके हाथों में डॉक्टर की डिग्री तो हो सकती है पर वे डॉक्टरी नही कर पाएगे।

सीबीआई छापे से भी नही लिया सबक

मेडिकल माफिया के हौसले कितने बुलंद है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मान्यता, प्रवेश में अनियमितता की शिकायतों के चलते 2010 में सीबीआई ने इंदौर क इंडेक्स मेडिकल कॉलेज में भी छापे मारी की थी, मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया ने भी सख्त कदम उठाए थे और मनमाने ढंग से मैनेजमेंट कोर्ट से प्रवेश देने के मामले में इस वर्ष मैंनेजमेंट की सीटे स्टेट कोटे में ट्रांसफर कर दी थी। इसके बावजूद फीस रेग्यूलेटरी कमेटी के पास 15 छात्रों की शिकायत भेजी जिनमें ज्यादा फीस,एडवांस फीस आदि मांगी जा रही थी। बाद में एफआरसी के कड़े रूख के बाद ही कॉलेज प्रबंधन कुछ नरम हुआ। यह सही है चिकित्सा इंजिनियरिंग के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की सहभागिताबहुत जरूरी है, लेकिन एआईसीटीआई और एमसीआई के साथ-साथ सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि इसकी आड़ में शिक्षा माफिया न पनप जाए जो छात्रों के सपनों के साथ खिलवाड़ कर सिर्फ अपनी जेब भरता रहे। आम गरीब तबके से आने वाली प्रतिभाओं को भी समान अवसर मिले। जिस तरह साजिशाना ढंग से सरकारी मेडिकल, इंजिनियरिंग कॉलेजों को खत्म करने का षडय़ंत्र रचा जा रहा है वह प्रदेश के आने वाले भविष्य के लिए बहुत खतरनाक साबित होगा। वह स्थिति बहुत दु:खद होगी जब कुकुरमुत्ते की तरह उग आए इंजीनियरिंग कालेजों से निकलने वाले छात्रों के हाथों में डिग्रियां होगी और मेडिकल कालेज से निकलने वाले डॉक्टरों के चेहरों में भगवान की छवि नहीं बल्कि ड्रैकुला की छवि नजर आएगी।

हर प्रदेश में शिक्षा माफिया

महाराष्ट्र में भी कांग्रेसी नेता डॉ. डी वाई पाटिल एजुकेशन एकेडमी ने शिक्षण के नाम पर कम कीमतों पर कीमती सरकारी जमीन हथिया कर करोड़ों का घोटाला किया था, लेकिन बाद में चिकित्सा शिक्षा में हुए घोटालों ने इस सारे घोटालों को पीछे छोड़ दिया था। मेडिकल में दाखिले के लिए 50 लाख रूपये तक वसूले गए वो भी उन संस्थानों में जिन्हें सरकार ने कॉलेजों के नाम पर सस्ती जमीनें दी थी और तमाम रियायती सुविधाएं दे रही थी। शिक्षा के अधिकार कानून की धारा 13 साफ तौर पर इस ओर इशारा करता है कि स्कूलों में अनिवार्य तौर पर 25 फीसदी सीट उन बच्चों के लिए आरक्षित रखी जाएं जो कमजोर वर्ग के हों। कानून की इस धारा का पहला मर्तबा उल्लघंन करने पर 25 हजार रूपए एवं उसके उपरांत हर बार पचास हजार रूपए के जुर्माने का प्रावधान है। शिक्षा के अधिकार का कानून तो लागू हो चुका है देश के गरीब गुरूबों को सोनिया गांधी, डॉ. एमएम सिंह और मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने एक सपना दिखा दिया है कि गरीबों के बच्चें भी कुलीन परिवार के लोगों के बच्चों धनाडयों, नौकरशाहों जनसेवकों के साहबजादे के साथ अच्छे स्तर की शिक्षा ले सकते है। लेकिन चिकित्सा शिक्षा में चल रही धांधलियों को देखकर लगता है कि शिक्षा के अधिकार कानून की धज्जियां पूरी तरह यहां उड़ाई जा रही है।

प्राइवेट यूनिवर्सिटी के नाम पर धांधली

मप्र सरकार ने जब निजी विश्वद्यिालय अधिनियम पारित कर प्राइवेट यूनिवर्सिटी खोले जान की राह आसान की थी तब शायद सरकार के कर्णधारों को यह अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि कवायद जहां शिक्षा माफिया खासकर मेडिकल माफिया क े लिए एक वरदान साबित होगी और सरकार के लिए सिरदर्द बन जाएंगी। माफिया को फायदा पहुंचाने के लिए आनन-फानन में यूनिर्वसिटी का दर्जा देने की घोषणाएं तो कर दी गई है, लेकिन अधिनियम के अनुसार स्टेच्यू व आडींनेंस पारित नहीं किए गए। सरकार में बैठे जिम्मेदारों को इस लापरवाही ने अवैध कमाई का एक नया हथियार शिक्षा के नाम पर कमाई करने वालों के हाथों में  थमा दिया। मप्र की राजधानी भोपाल का मामला लें तो 5 मई 2011 को भोपाल के पीपुल्स मेडिकल कालेज को यूनिर्वसिटी का दर्जा दिए जाने का नोटिफकेशन एनकाउंसिलिंग के वक्त जारी कर दिया गया। परिणाम यह हुआ कि पीपुल्स कालेज ने मनमाने ढंग से मेडिकल काउंसलिंग ऑफ इंडिया द्वारा स्वीकृत सभी 150 सीटें खुद ही भर लीं। 

इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि पीपुल्स कॉलेज प्री-मेडिकल टेस्ट देकर हुए छात्रों का एडमीशन देने से मना कर दिया गया। पीपुल्स मेडिकल कालेज 107 सीेंटे राज्य सरकार द्वारा आयोजित की जाने वाली प्रवेश परीक्षा पीएमटी के जरिए भरी जानी थी। बाद में यह पूरा मामला अदालत तक पहुंचा और फिर सप्रीम कोर्ट के फैसले को दृष्टिगत रखते हुए माननीय उच्च न्यायालय मध्यप्रदेश ने इसे पीएमटी  से चयनित छात्रों को प्रवेश देने का आदेश दे दिया। बावजूद इसके इन्हें पहले प्रवेश में देने में आनाकानी की गई बाद में सरकार ने इसे अपनी प्रतिष्ठा कर प्रश्र बनाकर स्थानीय प्रशासन के सहयोग से अमली जामा पहनाया।  पीपुल्स के कत्र्ताधत्र्ता का कहना है कि चूंकि इन्हें यूनिवर्सिटी का दर्जा प्राप्त हो गया है इसलिए वे मध्यप्रदेश के चिकित्सा शिक्षा विभाग और एडमीशन एंड फीस रेग्यूलेटरी कमेटी(एफआरसी) के दायरे में नहीं आते है, जबकि सरकार चिकित्सा शिक्षा के मामलें अपना दखल रखना चाहती है। इस पूरे विवाद में अंतहीन कानूनी लड़ाई का रूख अख्तियार कर लिया है। सरकार मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के निर्देश, आदेश अदालत की चौखट पर पहुंच रहे हैं। इससे न सिर्फ सरकार की किरकिरी हो रही है बल्कि इस कानूनी पचड़ों में अच्छा खासा मानव संसाधन और धन भी व्यय हो रहा है। सरकारी अधिकारियों का कहना है कि पीपुन्स मेडिकल कॉलेज के कत्र्ताधर्ताओं का खुद प्राइवेट यूनिवर्सिटी होने के आधार पर मनमाने ढंग से प्रवेश देना नाजायज है। सरकार का तर्क है कि यह ठीक है उन्हें प्राइवेट यूनिवर्सिटी एक्ट के तहत यूनिवर्सिटी  का दर्जा दे दिया गया है, लेकिन उसी एक्ट की धारा (7 एम) में स्पष्ट उल्लेख है कि जब तक एक यूनिर्वसिटी के स्टेच्ययू का संविधान का राज्य सरकार द्वारा अनुमोदन कर उसका गजट नोटिफिकेशन नहीं कर दिया जाता तब तक यूनिवर्सिटी न तो प्रवेश दे सकती है और न ही कक्षाएं संचालित कर सकती है।

मप्र में मिले थे 114 मुन्ना भाई

पिछले साल ही मप्र में 114 छात्र ऐसे पाए गए थे जिन्होंने मुन्ना भाई बनकर दूसरों से अपनी कापियां लिखवाई और राज्य की पीएममटी पास करके मेडिकल कॉलेजों में दाखिला ले लिया। चिकित्सा शिक्षा विभाग के एक संयुक्त संचालक के नेतृत्व में की गई जांच के सामने आया है कि प्रदेश के छह सरकारी मेडिकल कालेजों में भोपाल, इंदौर, सागर ग्वालियर, रीवा और जबलपुरर में मुन्ना भाई दाखिला लेने में कामयाब रहे हैं।  सबसे ज्यादा ग्वालियर मेडिकल कॉलेज में 36, छात्र पाए गए। वहीं भोपाल में 26, सागर में 21, जबलपुर में 15, रीवा और इंदौर में 8-8 छात्र ऐसे है जो एमबीबीएस की डिग्री के लिए पढ़ाई कर रहे थे। मुन्ना भाई बनकर पीएमटी में सफल होने के इस खेल में करोड़ों रूपए का लेन-देन हुआ। जिन छात्रों ने ऐसा किय, जाहिर है वे अमीर परिवारों से है और उन्होंने अपने सपने को पूरा करने के लिए मोटी रकम चुकाई थी। इस गोरखधंधें को अंजाम देने के लिए बिचौलियें ने दस से बीस लाख रूपए एक-एक मुन्ना भाई से हासिल किए थे। इसमें कोई शक नहीं कि इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज चलाना आजकल देश के सबसे ज्यादा कमाई धंधें में गिना जाने लगा है। जिन लोगों के पास पैसा है, वे अपने बच्चों को इंजीनियर,डॉक्टर बनाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। उनकी इस कमजोरी को भुनाने के लिए तकनीकी शिक्षा माफिया कही भी, कैसा भी कॉलेज खोल देता है। ऐसे कॉलेजों को मान्यता देने वाली दोनो शीर्ष संस्थाओं-एआईसीटीआई और एआईएमसी में व्याप्त भ्रष्टाचार की खबरें अभी डेढ़-दो साल पहले तक जबर्दस्त चर्चा में थी। जो लोग अपने बच्चों को इंजीनियर बनाने का खर्चा उनकी शादी में मिलने वाले दहेज से निकालने का सपना देखते है, वे भी नही चाहते कि पढ़ाई पूरी करके उनका बच्चाा जिंदगी भर बेरोजगार बैठा रहे।  भारत में कामयाब इंजीनियरों का पलड़ा अभी बुरी तरह साप्टवेयर इंजीनियरिंग की तरफ झुका हुआ है। सिविल, मैकेनिकल, इलेक्ट्रिल और  टेलीकॉम इंजीनियर इंजीनियर अच्छी किस्मत रहने पर कहीं न कहीं नौकरी पाने की उम्मीद कर सकते है। लेकिन इंजीनियरों की बाकी शाखएं जिनका सम्बन्ध मैन्युफैक्चरिंग से है, फिलहाल सन्नाटे जैसी हालत झेल रही है। आंकड़े बताते है कि देश में इंजीनियरिंग सीटों की संख्या 2005-06 से 2010-11 तक के मात्र पांच सालों में 5 लाख 20 हजार से बढक़र 14 लाख 85 हजार, यानि करीब तीन गुनी हो गई है। इस बीच इंजीनियरिंग कॉलेजों में एडमीशन के मानक भी कुछ नीचे लाए गए है। यह सब शिक्षा माफिया के इशारे पर किया जा रहा है।
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