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Wednesday, May 2, 2012

हमारे हॉलीवुड की हेट स्टोरी

विनय सुल्तान

बम्बईया सिनेमा अपनी पैदाइश से ही बाजारू रहा है. जब फिल्म निर्माण की नींव पड़ी तब इसके ईंट गारे में अर्थशास्त्र का सरोकार तो था लेकिन सरोकार के लिए कभी कोई अर्थशास्त्र विकसित नहीं किया गया. पारसी थियेटर के बाद सिनेमा में पैसा उन लोगों ने लगाया जो इसके जरिए अच्छा पैसा पीटना चाहते थे. यह खालिस अमीर-उमरावों की दिल्लगी के लिए बना था. पहली बार जब भारत में इसे दिखाया गया तब इस तमाशे को देखने वाले तमाशबीन वही लोग थे जो इसकी अच्छी कीमत दे सकते थे. यहाँ तक कि सिनेमा में काम करने वाली औरतों को सामाजिक मान्यता तब मिली जब सम्भ्रांत परिवारों की औरतें सिनेमा में आने लगीं.
कला के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि सत्ता के मनोरंजन का साधन बना दी जाती है. साहित्य, संगीत, नृत्य, गायकी आदि सभी निजामों और सरमायेदारों के सामने अक्सर अश्लील नुमाइश कराती नज़र आती है. हमारे यहाँ राजा का "बिरद" गाते-गाते भाटों की कई नस्लों अपने गले उधेड़ लिए. नवाबज़ादों की खूंखार ख्वाहिशों के सामने नामालूम कितनी तवायफों ने कोठे पर अपने पों पटक-पटक कर तोड़ लिए. पता नहीं  कला की यह नियति कौन लिखता है पर सदियों से कला की यही नियति रही है.
200 साल तक उपनिवेश रहने के बाद हम भले ही राजनैतिक रूप से हमे आजाद कहा जा सकता है परन्तु हम उस बौद्धिक जड़ता को नहीं तोड़ पाए जो उपनिवेश काल में संस्थागत तौर पर पैदा की गई थी.आनंद स्वरुप वर्मा के शब्दों में हमारे दिमाग का "डीकोलोनाइजेशन" नहीं हो पाया. ऐसे में हम नवउदारवाद के सबसे असान शिकार थे. हमारे जनसंचार माध्यमों ने सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के सामने हथियार डाल दिए. यह हमारे मीडिया के लिए सबसे आसान और फायदेमंद था.नव उदारवाद के २० साल बाद अब बम्बईया सिनेमा को बाजारू ग्लोबलाइजेसन से नए तरीके का मुकाबला करने पड़ रहा है.नव उदारवाद के साये में जो नई नस्ल पैदा हुई उसके पास अपनी "डब्बाबंद संस्कृति" है.हालाँकि यह चौंका देने वाला नहीं है.क्योंकि  की इस डब्बाबंद संस्कृति का सबसे बड़ा वितरक हमारा मिडिया है और उसका धंधा आज भी अच्छा चला रहा है.
हाल में ही एक फिल्म पर बड़ा हो-हल्ला हो रहा है. फिल्म का नाम है "हेट-स्टोरी". यह फिल्म भी हालीवुड मशहूर एरोटिक थ्रिलर "बेसिक इंस्टिंक्ट" से प्रेरित है.इस फिल्म में जिस तरीके से सेक्स का इस्तेमाल हुआ है वहां "कहानी की मांग" का तर्क बहुत ही खोखला लगता है.
बहरहाल अब स्थितियां कुछ बदल रही है.आज हमारे शाहरुख़ खान को को न सिर्फ दूसरे खानों, कपूरों, कुमारो, से मुकाबला करना पड़ रहा है साथ ही वो ब्रेड पिट, टॉम क्रूज़ और बिल स्मिथ से भी दो-दो हाथ करने पड़ रहा हैं. मुक्त बाज़ार ने आज बाज़ार को  विकल्पों से भर दिया है .अब भारतीय दर्शक की होलिवुड तक पहुँच उतनी मुश्किल नहीं रही.साथ ही डबिंग के जरिये हालीवुड  ने बम्बईया सिनेमा पर बड़ा पैना वार किया.अब हिंदी पट्टी का सिनेमा मार-धाड,सेक्स,मसाला फिल्मे देखने के लिए मुंबई का मोहताज नहीं है.अब होलीवुड उसकी अपनी भाषा में बोल रहा है.
हालीवुड की इस चुनौती का सामना करने के लिए बम्बईया सिनेमा ने जो तरीका खोजा है वो और भी बेहूदा है. हालाँकि होलीवुड की नक़ल की जो प्रवृत्ति हम
देखते है वो आज की नहीं है. यहाँ तक की बम्बईया सिनेमा ने हॉलीवुड की ही तर्ज पर अपना नाम बहुत पहले बदल कर बोलीवुड कर लिया था और तमिल सिनेमा ने टोलीवुड. सिक्क्वल, विज्ञान फंतासी, अश्लील, हास्य ये सब बॉलीवुड ने अपने नाम की तरह होलीवुड से सामाजिक सरोकारों को रेहन पर रख कर उधार लिया है. कई बार तो रचनात्मकता का इतना अकाल देखा जाता है की संवाद तक नहीं बदले जाते. शाहरुख़ खान की हालिया फिल्म "रा-वन" से ले कर डोन के बेहूदा सिक्वल में यही भेड़चाल देखी जा सकती है.
पूंजीवाद बड़ी ही अवसरवादी किस्म की व्यवस्था है.आज से सौ साल पहले टाइटेनिक के डूबने से तकरीबन डेढ़ हज़ार लोग मारे गए थे.अब इस अवसर पर भी मुनाफा पीटा जा रहा है.1997 में टाइटेनिक हादसे पर डिकैप्रियो और केट विंसलेट अभिनीत मशहूर फिल्म बनी थी.अब इस फिल्म को 3 -डी में फिर से रोसा जा रहा है.इस फिल्म को मिडिया ने जिस तरीके से कवर किया वो हैरान करने वाला था.इस फिल्म ने अब तक 55 करोड़ से ज्यादा का कलेक्सन कर लिया है.गणित बहुत सीधा सा है.जिस मुक्त व्यापर का झंडा बदार हमारा सिनेमा बना हुआ अब उसी झंडे के वजन से उसके कंधे बेझिल हो रहे हैं.हालाँकि हालीवुड  की चुनौती इतनी बड़ी नहीं है पर जिस तरीके से हम संस्कृतिक साम्राज्यवाद की चपेट में आये हैं ये मुकाबला हमेशा एक तरफा नहीं रहने वाला है.

(आईआईएमसी के छात्र रह चुके विनय फिलहाल स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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