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Monday, July 2, 2012

यशवंत की बात भी सुनी जानी चाहिए थी :

यशवंत की बात भी सुनी जानी चाहिए थी : 
पुलिस को फैसला करने का अधिकार किसने दिया
बहुत आश्चर्यजनक है कि यशवंत की गिरफ्तारी पर अधिकांश मीडिया चुप है. वे तमाम दिग्गज शब्द-योद्धा भी चुप हैं, जिन्हें स्वयं यशवंत अपने भड़ास पर नायक बताते रहे हैं. यह बहुत विचित्र बात है. मीडिया में ऐसे लोगों की भरमार है, जो चुप रहने और बोलने के समय की सटीक पहचान रखते हैं. वे ऐसे मौकों पर मुंह फाड़ते दिखाई पड़ते हैं, जब उन्हें लाभ-हानि के गणित में लाभ का पलड़ा भारी दिखाई पड़ता है. मामूली नुकसान की गुंजाइश भी उनकी जबान पर ताले की तरह लटक जाती है. यशवंत को भी उन लोगों की पहचान नहीं है.

कौन नहीं जानता कि यशवंत के एक प्रयोग ने मीडिया को संयमित रहने को मजबूर किया, कुछ भी गलत-सलत करके निकल जाने की गुंजाइश कम की लेकिन इसी ने यशवंत के हाथ में ताकत सौंपी और उनके लिए एक रपटीली जमीन भी तैयार की. जब आप के हाथ में ज्यादा ताकत हो और गलत लोग आप से डरने लगें तो आप की जिम्मेदारियां भी बढ़ जातीं हैं, आप को भी संभल-संभल कर कदम रखने की जरूरत होती है. यशवंत लम्बे समय तक मेरे साथ रहे, मैं जानता हूँ कि वे संभल कर चलने में यकीन नहीं करते या उन्हें आता नहीं या फिर वे अपनी बे-अंदाज ताकत पर बहुत भरोसा करते हैं. यही उनकी ताकत भी है और बड़ी कमजोरी भी.

मीडिया के तमाम कनकटों को उनकी असलियत बताकर उन्होंने जो खतरा मोल लिया था, वह बहुत गंभीर था. ऐसे में उन्हें जिस सतर्कता और सावधानी की जरूरत थी, वह कभी आयी ही नहीं. उन्हें पता नहीं था कि वे लोग मौके के इंतजार में हैं, जिनकी पोल यशवंत ने खोली है, जिनके हाथ से बार-बार यशवंत ने उन्हें हासिल होने वाले अनधिकार अवसर छीने हैं. वे तो घात लगाये बैठे थे. ऐसे लोगों की सत्ता प्रतिष्ठानों और उनके छोटे-छोटे पुर्जों तक से दुरभिसंधि होती है. यशवंत अगर सजग होते तो उन्हें निराश होना पड़ता लेकिन यह यशवंत की मानसिक बुनावट में था ही नहीं. उनकी गिरफ्तारी को लेकर तमाम सारी बातें आ रहीं हैं, मैं उनके विस्तार में नहीं जाना चाहता, क्यों कि अभी तक केवल एक तरफा बातें सामने आ रही हैं. यशवंत को अपनी बात कहने का मौका नहीं मिला है. लेकिन एक बात बहुत गंभीर है कि पुलिस ने जिस तरह उन्हें गिरफ्तार किया, उसके पीछे कोई बड़ी साजिश लगती है.

उत्तर प्रदेश पुलिस को आखिर फैसला करने का अधिकार किसने दे रखा है. किसी को भी पकड़ लेना, उसकी बात सुनने से इंकार कर देना आखिर किस तरह औचित्यपूर्ण ठहराया जा सकता है. अगर किसी की शिकायत पर किसी को गिरफ्तार किया जाता है तो गिरफ्तार होने वाले की शिकायत क्यों नहीं सुनी जानी चाहिए. पुलिस जिस तरह यशवंत के साथ पेश आयी, वह निहायत आपत्तिजनक और अलोकतांत्रिक है, वह नए मुख्यमंत्री के समाजवादी लोकतंत्र के सपने के खिलाफ है. यशवंत कोई सिरफिरे, चोर-उचक्के, बदमाश तो नहीं हैं. जिन्हें बिना किसी जाँच-पड़ताल के हवालात में डाल दिया जाय, जिनकी बात अनसुनी कर दी जाय. फैसला देना अदालत का काम है, पुलिस का नहीं. पुलिस को दोनों पक्षों की बात सुननी चाहिए थी, दोनों तरफ से रिपोर्ट दर्ज करनी चाहिए थी, फिर कोई कदम आगे बढ़ाना चाहिए था. यह तरीका अस्वीकार्य है.

लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी नाकामी यही है कि यहाँ सत्ता और शक्ति के सभी पुर्जे एक-दूसरे के काम में दखलंदाजी करते हुए दिखाई पड़ते है, सभी अपनी सीमा, अपनी लक्ष्मण रेखा का अतिक्रमण करते नजर आते है. इसी घाल-मेल ने पूरे तंत्र को अविश्वसनीय बना दिया है. रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार और संवेदनहीनता, जड़ता भी इसी की दें है. सत्ता की आँखों का मोतियाबिंद उसे यह सब देखने नहीं देता. ऐसे में उन सभी लोगों को जो सही दिशा में सोच सकते हैं, जो परिवर्तन की जरूरत महसूस करते हैं और उसके लिए कुछ करना चाहते हैं, एकजुट होकर आगे आना चाहिए. यह एक नए युद्ध का समय है और इसे लड़ना पड़ेगा.
वरिष्‍ठ पत्रकार सुभाष राय जी के फेसबुक वाल से साभार.

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