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Sunday, September 16, 2012

‘‘मन’’ के तंत्र से घायल होता लोकतंत्र


‘‘मन’’ के तंत्र से घायल होता लोकतंत्र


डॉ.शशि तिवारी

मन निःसंदेह चंचल होता पलटते देर नहीं लगती, विश्वास करना बडा ही मुश्किल होताहै, लेकिन फिर भी लोग विश्वास करते हैं, और इस खेल में न केवल विश्वास टूटता है बल्कि कई बार विश्वासघात भी होता है। यही से शुरू होता है छवि बनने और बिगडने का खेल। ‘‘मन’ का मनकुछ ऐसा है कि कुछ कहता ही नही और ‘‘मन’’ का तंत्र सब कुछ कर देता है। कुछ करने और नकरने के संचय के बीच झूलते मन को विदेशी मीडिया भी अब ‘‘अण्डर अचीवर’’ मानने लगा हैऐसी ही कुछ पीड़ा पाप में शिद्दत से भागीदारी निभा रही विभिन्न राजनीतिक पार्टिंयां फिर चाहे भाजपा हो, बसपा हो, तृणमूल कांग्रेस हो, या सपा हो, की भी है।

‘‘मन’’ की धुंध इतनी गहरी है कि इन पार्टियों की नीयत और बदनियत के बीच ‘‘तुम्हीं से मोहब्बत तुम्ही से लड़ाई’’ की नूरा कुश्ती के खेल में लोकतंत्र का लोक न केवल दबा जा रहा हैबल्कि बुरी तरह से भ्रष्टाचार, महंगाई, भूखमरी, अत्याचार से बेहरमी से कुचला भी जा रहा है। यहां माननीयों का ‘‘मन’’ भी देखिए लगभग 350 माननीय सांसद जो करोड़पति है फिर भी सरकारी खजाने से पैसा लेने में कोई गुरेज नहीं है। हकीकत में देश सेवा के नाम पर जिन्हें सरकारी खजानेमें उलट पैसा देना चाहिए वे ही कहीं न कहीं भटक ‘‘लूट तंत्र’’ का हिस्सा बने हुए है। अपने-अपने धन्धों को, कंपनियों को चमकाने लगे हुए है। माननीयों की सदन में बढ़ती अनुपस्थिति एवं जनमुद्दों पर बात न करने से कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि इनका न केवल लोकतंत्र से बल्कि संविधान के पवित्र मंदिर संसद से भी विश्वास उठता जा रहा है। नित नए भ्रष्ट एवं महाभ्रष्टों के काले चेहरे उजागर हो रहे है। ऐसे में बड़ी राजनीतिक पार्टियां केवल अपने स्वार्थ तक ही सीमित हो।‘‘कालाबाजारी’’ के खेल में मस्त है ये आलोचना करने का नाटक छोड़े जनता को ठोस परिणाम देया मंच से बाहर आए, नए जनादेश के लिए?

पैट्रोल को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने का दुष्परिणाम हम सभी भोग रहे है कि अब‘‘रसोई’’ को भी अब कंपनियों के रहमों करमों पर छोड़ क्या गृह युद्ध करायेंगे? आम आदमी‘‘लोक’’ की जिन्दगी कोयला, गैस, पैट्रोल और डीजल पर ही चलती है। यहां एक यक्ष प्रश्न यह भी उठता है, क्या इनके घाटों की पूर्ति के लिए अन्य उद्योगपतियों एवं विलासिता सामग्री पर टैक्सलगा भरपाई क्यों नहीं की जा सकती? कीमतों में इजाफा सत्र के ही बाद क्यों?

एक कहावत है ‘‘जैसे नाश वैसे सवा सत्यानाश’’ कुछ इसी तर्ज पर कांग्रेस कार्य कर रहीहै। कांग्रेस को जब कंपनियों का इतना ही दर्द है तो डीजल पर 5 रूपये ही क्यों। 17 रूपये ही बढ़ादेते, गैस सिलेण्डर पर 300/- ही क्यों 347/- क्यों नहीं बढ़ाए? केरोसिन पर भी 32.7 रूपये बढ़ा देते कम से कम कोई तो खुश होता लेकिन इससे न तो जनता और न ही कंपनियां खुश होगी? ये भारतीय जनता है इस तरह के जुल्म सहने की आदी हो गई है। मुगलों और अंग्रेजों ने इतने वर्षों तक शासन इन गुलामों पर यू ही नहीं किया।

लेखिका ‘‘सूचना मंत्र’’ पत्रिका की संपादक है
मो. 09425677352

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