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Thursday, November 15, 2012

कुनवे में कलह


डॉ. शशि तिवारी
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                यूं तो कुनवे का हमेशा एक ही मुखिया होता है और उसके निर्णय को पूरे कुनवे को मानना भी पड़ता है। दिक्कत तब शुरू होती है जब कुनवे में छाया (शेडो) कुनवा जुड़ जाता है, तब उस कुनवे के मुखियाओं के बीच कुनवे पर नियंत्रण की लगाम को ले रस्सा-कसी शुरू होती है। सामने और पर्दे के पीछे की कशमकश को ले संघ और भाजपा में आंतरिक फूट नितिन गडकरी को ले देखी जा सकती है।

                निःसंदेह संघ की देशभक्ति एवं चरित्र पर अंगुली नहीं उठाई जा सकती है। यूं तो पांचों अंगुलिया भी बराबर नहीं होती नितिन गडकरी की चाहे कंपनियों की बात हो या विवेकानंद से आई. क्यू. की तुलना की हो संघ का रवैया एकदम स्पष्ट रहा। रहा सवाल भाजपा का तो राजनीतिक पार्टी का अपना एक संविधान, एक सेटअप होता है जिसके तहत् वह अपनी गतिविधियों को अंजाम देते है। भाजपा का सूत्र वाक्य ‘‘अ पार्टी विथ डिफरेंश’’, चाल, चरित्र, चेहरा और भ्रष्टाचार को ले अब जन मानस करनी और कथनी में अन्तर पा रहा है। गांव में एक कहावत है ‘‘कनुआ अपनी आँख नहीं देखता’’ भाजपा ने केन्द्र पर भ्रष्टाचार को ले 13 दिन देश की संसद नहीं चलने दी थी लेकिन, वही जब स्वयं पार्टी को अध्यक्ष पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे तो चाल चरित्र और चेहरा सब बदला ही नजर आया। बस यही से पार्टी की विश्वसनीयता खतरे में पड़ती दिखती है, कहते है दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है। भाजपा के पूर्व अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण पहले ही पार्टी पर भ्रष्टाचार का कलंक लगा चुके है। निःसंदेह कलंक काजल से भी काला होता है यहाँ यक्ष प्रश्न उठता है क्या फिर दूसरे कलंक की तैयारी में है भाजपा? हो सकता है कि गडकरी पर लगे सभी आरोप निराधार साबित हो लेकिन स्वामी विवेकानंद से दाउद इब्राहिम के आई क्यू. की तुलना कोई भी भारतीय पचा नहीं पा रहा हैं। जिस तरह कमान से निकला तीर वापस नहीं आ सकता। ठीक वैसे ही बोले गए शब्द वापस नहीं आते। यूं तो शब्द खोखले होते हैं लेकिन जब उसे मायने दिये जाते है तो जीवंत हो, शब्द लड़वा भी सकता है, शब्द तख्त भी छीन सकते है, शब्द बारूद भी बन सकते हैं।

                नेताओं का सामाजिक जीवन एक तलवार की धार पर चलने के समान होता है, जरा सी चूक भविष्य को गर्त में भी डाल सकती है जिस व्यक्ति के लिए भाजपा ने अपने संविधान में संशोधन दूसरे टर्म के लिये किया हो। इसी से सिद्ध होता है कि गडकरी की अहमियत संघ की नजर में क्या है और उसी के द्वारा गहरा घाव देने से पार्टी संघ सदमें में है, अवाक हैं? कुछ सूझ न ही पड़ रहा कैसे लाज बचाये, चिंता खाए जा रही है प्रतिष्ठा की, छवि की, नजरों में गिरने की, संघ का ये एक तरफा लाड़ भाजपा पार्टी के अंदर अण्डर करंट पैदा कर रहा है, हो सकता कोई मजबूरी हो, डर हो? डर इस बात का कही परोक्ष रूप से पार्टी पर संघ की पकड़ मजबूत न बन जाए, कही और हसिए पर न चले जाए आदि-आदि।



                असंतुष्ट महेश जेठमलानी ने तो भाजपा की कार्यकारिणी से इस्तीफा तक दे दिया, वे कहते है चूंकि गडकरी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे है लिहाजा वह उनके नेतृत्व में काम नहीं कर सकते है। अब गडकरी को पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ देना चाहिए। खबर तो यह भी आई है कि यशवंत सिंहा, जसवंत सिंह और शत्रुघ्न सिंहा भी रामजेठमलानी के साथ है। निःसंदेह किसी पर भी आरोप लगा देने मात्र से कोई आरोपी नहीं हो जाता। यह सिद्धांत न केवल कांग्रेस बल्कि सभी राजनीतिक पार्टियांे पर समान रूप से लागू होता है। लेकिन नितिन गडकरी के ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते अब भाजपा का कांग्रेस पर प्रहार करने की धार कुंद हो गई है ओैर यह हो भी क्यों न स्वयं जो भ्रष्टाचार के आरोपों से घिर जो गए?

                तेज तर्रार रामजेठमलानी के अनुसार नितिन गडकरी को उन पर लगे आरोपों से मुक्त होने तक एवं जांच के चलने तक उन्हें अध्यक्ष पद पर नहीं रहना चाहिए, इससे भाजपा को ही नुकसान पहुंचेगा। खैर ये तो वक्त ही बतायेगा कि पार्टी कितनी डेमेज हुई?

                वही पार्टी के ही वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवानी भी फिलहाल गडकरी के इस्तीफे के मूड में है, साथ ही नए अध्यक्ष के चुनाव तक किसी साफ छबि वाले को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया जाए। इसी बीच संघ के विचारक एस गुरूमूर्ति ने आगे बढ फिलहाल मामले पर पैबंद लगा दिया है। ये पैबंद कितना मजबूत है, कितना दबाव झेल पायेगा। ये तो भविष्य के गर्त में है, बहरहाल, गुरूमूर्ति रामजेठमलानी के सेट करने में नाकाम रहे, दीपावली नजदीक ही है कही जेठमलानी की बगावत की ये चिंगारी पार्टी के अंदर असंतोष के बारूद में जोरदार धमाका न कर दें।

 
 लेखिका ‘‘सूचना मंत्र’’ पत्रिका की संपादक है

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