Pages

click new

Tuesday, March 26, 2013

इस होली पर तो टेंट खोलो सम्पादक जी


-भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
toc news internet channal


अमाँ मियाँ लेखक हूँ कोई घसियारा नहीं। माना कि तुम सम्पादक/प्रकाशक/मुद्रक हो- सोचो जरा क्या कभीं तुमने होली या किसी अन्य त्योहार पर पकवान आदि खाने के लिए हमारी हथेली पर चवन्नी तक रखा है? हुक्म चलाना जानते हो कि ये लिख दो, वो लिख दो। गोया हम तुम्हारे जरखरीद गुलाम हैं। सोचो मुझे लिखते हुए कितनी होली बीत गई और मुझे या मुझ जैसों को देने के लिए तुमने कितनी बार अपनी टेंट खोली। लानत है हम दोनों पर। एक हम रहे छपास रोगी और एक तुम माइजर दि ग्रेट। हम लिखते रहे-दुबले होते रहें और तुम लिखाते रहे तोंद फुलाते रहे। हे दुःखवर तुम इस आलेख को पढ़ो, गुनो, धुनो और सिर पकड़ कर बैठ जाओ।

पेट्रोल, डीजल, आम आदमी का एल.पी.जी. सिलिण्डर आसमान छू रहे। नून, तेल, घी, दूध, आटा, शक्कर, सब्जियों के दाम। राजनीति का बदलता रंग, आतंकवाद, नौवाँ सिलिण्डर का राहत, नित्य खुल रहे घपले-घोटाले। ऐसे में हमारी काली चाय भी हमें ‘फ्रेश’ नहीं कर पा रही है। ऊपर से शर्मनाक हादसों से बढ़ता कसैलापन। मौज करते जनप्रतिनिधि, गुस्सा करती जनता ऐसे में हम त्योहार कैसे मनाएँ भला। अब मैं विदूषक नहीं रहा। लोगों को हँसाते-हँसाते अब थक गया हूँ। लेकिन फिर भी हम लिखेंगे, जिसे पढ़कर तनावग्रस्त लोग अपने होठों पर जबरन मुस्कुराहट लाएँ और कुछ क्षण के लिए भूल जाएँ कि वह लोग तनावग्रस्त थे।

हमीं समझदार हैं क्योंकि...
होली आते ही रंगों की याद आती है, इसीलिए तो यह रंगोत्सव/रंगपर्व कहलाता है। रंगों का अर्थ अलग-अलग होता है- जो समझदार की समझ में आता है, उसे इन्द्रधनुष (रेनबो) कहा जाता है। नासमझ क्या समझेगा खाक, वह तो इसे व्यर्थ कहता है। होली वह खेलता है जो समझदार होता है- जो रंगों से बचकर होली नहीं खेलता वह बेवकूफ कहलाता है। मतलब यह कि ‘होली’ में जिस पर इसका न चढ़े रंग और न पिए ठण्डई वाली भंग उसका होता है बुरा हश्र, हो जाता है उसका अंग भंग।

मेहरबान, कद्रदान वह कहलाते हैं, जिन्हें पता होता है कि हमीं हैं हास्य-व्यंग्य दुकान के संचालक। हम समस्याओं में तलाशते हैं हंसी, लोगों के दिलों मे ठहाकों की दुकानें (गुमटियाँ ही सही) सजाते हैं।
राजनीति की बात है निराली, इसके रंग पर न चढ़े दूजा रंग नेता गिरगिट होता है, दिन में अनेकों बार रंग बदलता है। हमेशा मदमाता करता रहता है रंग में भंग।

देश के लोकतन्त्र/प्रजातन्त्र/डेमोक्रेसी के रंग होते हैं निराले। एक दूसरे पर रंग की जगह फेंकते हैं जूते-चप्पल और माइक से प्रहार करते हैं ऐसी स्थिति में कुछ चटख, कुछ फीका तो कुछ बदरंग हो जाता है परिवेश।
ब्रज-बरसाने में बड़ा जोर है। लट्ठमार होली अवध में रंगीली होती है। आनन्द उठाते हैं लोग ‘होली’ में रंग और अबीर के उठाते बादल होली में रंगीला बनकर चुराते हैं लोग कजरारे नयनों से काजल तनाव ग्रस्त व कुण्ठित होली में प्रेम-श्रृंगार से रहते हैं वंचित।

होली जिसमें हर किसी का मन पंक्षी चहकाता है। मदमस्त मौसम में पाषाण हृदय भी पिघलता है। सर्वत्र छाई मदकता जिसमें दूसरों की कौन कहे हमको ही नहीं रहता हमारा पता। हमारे पाँव जमीन पर न पड़कर जमीन से ऊपर रहते हैं। होली के मूड में लोग रंग-बिरंगे करते हैं व्यवहार बेढंगे। पर उनकी यह हरकत भी मजा देती है।
अन्त में होली की ढेर सारी रंग-बिरंगी मंगल कामनाएँ। होली पर जो कुछ लिख दिया है उसे पढ़ें और अपनी प्रतिक्रियाएँ हमें अवश्य दें। एस.एम.एस. करें या फिर प्रकाशित आलेख सेक्शन में कमेण्ट दें या अपनी टिप्पणी लिखें। पुनः होली की शुभकामनाएँ।

No comments:

Post a Comment