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Saturday, March 23, 2013

घर की पत्नी दाल बराबर...


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मैंने अभी अभी अपने बालों को इसलिये डाय करना शुरू किया कि मंत्रालय की महिला अधिकारियों ने पंडित जी के स्थान पर दादा जी कहना शुरू कर दिया है, लेकिन वाह रे फागुन - फागुन आते ही न केवल उन महिला अधिकारियों का सम्बोधन बदला बल्कि मेरा भी लोगों के यहां आना जाना बढ़ गया।
मैं तो मेनटेन रहता हूं। न किसी की सुनता हूं, न किसी की कहता हूं - अपनी मस्ती में मदमस्त रहता हूं। आजकल अपनी पत्नी की तरफ देखता भी नहीं हूँ, क्योंकि घर की....।
एक दिन श्रीमती गिरधारीलाल साहित्य पर चर्चा के लिए श्रीमती से मिलने आईं अपन ने समीक्षा ब्रीफिंग की तरह अपने ही दड़वे में उन्हें लपक लिया - हमें क्या पता था श्रीमती जी अंदर रसोईघर में हैं - हम अपने श्रृंगार पर उतर आये और मदमस्त फागुन पर चर्चा करते करते ईसुरी की फागों तक चर्चारत हो गये। गिरधारीलाल की एक आदत खराब है वो भी मेरी तरह वे किसी के भी घर में जाते हैं तो बोलते हैं भाभी जी कहां हैं?- बहुत दिन से दर्शन नहीं हुये - एक बार तो गिरधारीलाल एक लेखक मित्र की पत्नी की रसोई तक में चले गये और फागुन के दोहे चस्पा कर दिये थे, वो तो अच्छा हुआ कि हम जैसे श्रृंगार प्रेमी पूर्व से ही भाभी जी की रसोई में थे। दृश्य देखने लायक था।
गिरधारीलाल की शक्ल उस समय ऐसी हो गई जैसे वर्तमान सरकार जाने के बाद जनसम्पर्क विभाग के संचालक की हो जाती है। उनकी चोरी तो पकड़ा गई, साथ ही यह भी पता चल गया कि वे पड़ौसी लेखक मित्र की रसोई पर पी.एच.डी. क्यों करने पर तुले हुये हैं।
हमारी श्रीमती जब आईं तब एक साथ दो लेखक देखकर दंग रह गई, बेचारी थीं आखिर तो घर की मुर्गी...

(म.प्र. समाचार सेवा, होली न्यूज)

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