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Monday, April 1, 2013

प्रसारण के डिजिटलीकरण की जिद


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सौमित्र रॉय

पहले एंटीना, फिर केबल और अब छतरी। कल का बुद्धू बक्सा आज बाजार की दौड़ में समझदार हो गया है। दिसंबर 2011 में संसद ने कानून पारित कर इसे तकनीकी रूप से ताकतवर भी बना दिया है। केबल टीवी नेटवर्क (नियमन) कानून 1995 की धारा 9 में संशोधन से डिजिटल टीवी प्रसारण अनिवार्य हिस्सा बन चुका है। इसको सरकार की बचकानी जिद कहें या बाजार का बढ़ता दबाव, यह मान लिया गया है कि जिसके पास सामर्थ्य होगी वह बिना गुण-दोषों को परखे इसे मान लेगा और बाकी आखिर में मानने पर मजबूर हो ही जाएंगे। यह पूछे बिना कि आखिर सरकार को अचानक टेलीविजन प्रसारण का डिजिटलीकरण करने की क्यों सूझी? केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय इसे एक ऐसी पारदर्शी व्यवस्थाओं की शुरुआत बता रही है, जो टीवी उपभोक्ताओं की वास्तिविक संख्या यानी 20 करोड़ परिवारों की जानकारी देगा। इससे फर्जी उपभोक्तावाद के रूप में केबल ऑपरेटरों की काली कमाई बंद होगी। सर्विस टैक्स और मनोरंजन कर की ज्यादा वसूली होगी।

लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि डिजिटलीकरण की अनिवार्यता से एक स्पष्ट विभाजन की स्थिति बनेगी। यानी जो डिजिटल टीवी देख पाने में समर्थ हैं और वे जो इसकी हैसियत नहीं रखते। केंद्र सरकार डिजिटलीकरण की प्रक्रिया के पीछे जिस पारदर्शिता का दावा कर रही है, उसकी हवा देश के चार महानगरों में पिछले साल ही निकल चुकी है। इसके बावजूद दूसरे चरण में भोपाल, इंदौर और जबलपुर समेत देश के 38 बड़े शहरों में इसे 31 मार्च तक अनिवार्य रूप से लागू किया जा रहा है। यह प्रक्रिया तकरीबन आधार कार्ड जैसी है, जिसका कोई वैज्ञानिक व प्रमाणिक आधार नहीं है। टीवी प्रसारणकर्ताओं और मास्टर ऑपरेटर्स के लिए तो यह फायदे का सौदा है, क्योंकि बैठे-बिठाए उन्हें 70 प्रतिशत तक ज्यादा कमाई होगी। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में उपभोक्ता बंधुआ हो जाएगा। इसका दर्द उसे अभी से महसूस हो रहा है। सौ फीसदी डिजिटलीकरण के दावे से सजे दिल्ली और मुंबई में स्थानीय केबल ऑपरेटरों ने उपभोक्ताओं की पूरी जानकारी भरे बगैर उन्हें घटिया सेट टॉप बॉक्स (एसटीबी) थमा दिए। इसके लिए दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के द्वारा तय 800 रुपए से ज्यादा लिए गए।

इस दलील पर कि 800 रुपए में तो घटिया एसटीबी आएगा। लेकिन 1500 रुपए देने के बाद भी प्रसारण की गुणवत्ता पहले से भी घटिया है। ट्राई ने बीआईएस मानक के एसटीबी मुहैया कराने की हिदायत दी है, लेकिन पहले चरण और अब दूसरे चरण के शहरों में भी इस तरह के डिब्बों की संख्या 30 प्रतिशत से भी कम है। इसका खामियाजा उपभोक्ताओं को भुगतना होगा, क्योंकि उन्हें इस पूरी प्रक्रिया की कोई तकनीकी जानकारी नहीं है। इसे सेवाओं का तकनीकी विभाजन भी कहा जा सकता है, क्योंकि 20 करोड़ परिवारों में से उपभोक्ताओं का 80 फीसदी केबल प्रसारण पर निर्भर हैं। इन्हें पहली पीढ़ी की गुणवत्ता वाले प्रसारण से काम चलाना होगा, जबकि बाकी के 20 फीसदी घरों में छतरी से सीधे पहुंच रहा डायरेक्ट टू होम (डीटीएच) तीसरी और चौथी पीढ़ी का है।

डिजिटलीकरण की अनिवार्यता के कारणों को समझते समय हमें यह देखना होगा कि आखिर पूरी प्रक्रिया की कमान किसके हाथ होगी? आप अपने हाथ में टीवी का रिमोट होने पर चाहे जितना इतराएं, पर असल में इसका नियंत्रण केंद्र सरकार के हाथ में होगा। वह जब चाहे, केबल प्रसारण पर रोक लगा सकती है।

टीवी पर दिखाए जा रहे विज्ञापनों को भी केंद्र सरकार नियंत्रित करेगी। चूंकि डिजिटलीकृत प्रसारण एनक्रिप्टेड यानी नकल न किए जा सकने योग्य होंगे, तो इस स्थिति में स्थानीय चैनलों और शहर के विज्ञापनों पर भी रोक लग जाएगी। उपभोक्ता तब झक मारकर वही देखने पर मजबूर होगा, जो उसे प्रसारणकर्ता और मल्टी सिस्टम ऑपरेटर दिखा रहा है। डिजिटलीकरण के दूसरे चरण में पहले चरण के मुकाबले पांच गुना ज्यादा खर्च आ रहा है, क्योंकि लगभग आधा भारत इसके दायरे में आ जाएगा। केंद्र ने केबल टीवी प्रसारण में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाकर 74 फीसदी कर दी है। यह पैसा न तो शहरी निम्न मध्य वर्गीय उपभोक्ताओं की सुविधा बढ़ाने के लिए लगाया जा रहा है और न ही गांव के आखिरी व्यक्ति के लिए। कंपनियों ने तैयारी कर ली है। उनके लिए 122 करोड़ उपभोक्ताओं का खुला बाजार है। वे खास उपभोक्ता वर्ग के लिए चैनल तैयार कर रहे हैं। इनमें से ज्यादातर हाई डेफिनिशन में होंगे। इन्हें देखने के लिए पूरा टीवी और सेट टॉप बॉक्स बदलना होगा। कुछ चैनलों के गुच्छे नए सिरे से तैयार हो रहे हैं, क्योंकि लोगों में उनकी मांग है। नतीजा यह होगा कि उपभोक्ताओं को जहां डिजिटल केबल प्रसारण के लिए प्रति माह 170 से 200 रुपए का वादा किया जा रहा है, उनसे आने वाले समय में 300 रुपए वसूले जाएंगे।

आजकल सरकार कानून और नीतियां अलग-अलग बनाती है और दोनों में भिन्न बात कही जाती है। कानून हकदारी की बात करता है तो नीतियां भेदभावपूर्ण होती हैं। इस मामले में भी केंद्र सरकार ने केबल उपभोक्ताओं से प्रतिमाह लिए जाने वाले शुल्क के निर्धारण का हक एमएसओ और स्थानीय केबल ऑपरेटरों पर छोड़ दिया। सरकार इस बात की भी कोई गारंटी नहीं दे रही कि शहरी निम्न वर्गीय परिवारों और आगे चलकर गांव के गरीब परिवारों से रियायती दरों पर शुल्क वसूला जाएगा। पेट्रोल- डीजल की तरह सब कुछ बाजार भरोसे है। बाजार अपनी मनमानी करेगी और सरकार चुपचाप देखती रहेगी। इस प्रक्रिया में लाखों परिवार सूचनाओं और मनोरंजन के पिटारे का लुत्फ उठाने से वंचित हो जाएंगे। आखिर में हार मानते हुए उन्हें अपने घरेलू बजट का एक हिस्सा सरकार और केबल ऑपरेटरों की जिद के आगे न्योछावर करना होगा।

निश्चित रूप से यह हकदारी देने के बजाय टेलीविजन जैसे सूचना-संचार के अहम साधन से वंचितों को दूर करने वाला कदम है। हालांकि व्यापक मध्यमवर्गीय समाज को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसके सामने सवाल भेदभाव का नहीं, मनोरंजन की मजबूरी का है। तेजी से आधुनिक हो रहे सिनेमाहॉल और मल्टीप्लेक्स में मनोरंजन 300 रुपए से ज्यादा महंगा है। सही मायनों में यही वर्ग उपभोक्ता है। गरीब, वंचितों को कौन पूछता है।

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं व विकास संवाद संस्था से जुड़े हैं।

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