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Saturday, May 18, 2013

यहाँ सजतीं हैं औरतों की मंडियां, बिकतीं है बेटियां


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हर्षिता शुक्ला की रिपोर्ट

नांदेड़। हमारे समाज में शादी के रिश्ते को सात जन्मों का रिश्ता माना जाता है। इस पवित्र बंधन के लिए हर धर्म में न जाने कितने अनगिनत रीति-रिवाज बनायें गयें हैं। यहाँ कुछ लोगों का यह भी मानना है कि जोड़ियाँ ऊपर से बन कर आतीं हैं लेकिन अगर इसी समाज में शादी के लिए मोल-भाव लगने लगे तो क्या कहेंगे? हमारे देश का कानून भी यही कहता है शादी में लेन-देन की सख्त मनाही है। इन सब मान्यताओं, रीति-रिवाजों, कानून की धाराओं के बावजूद आज भी एक ऐसी जगह है जहाँ, शादी के लिए लड़कियों का बाजार सजाया जाता है। बकायदा उनकी कीमत तय की जाती है। जैसी लड़की वैसी कीमत। इस बाजार में सब खरीदारी कर सकतें हैं चाहें वो लड़की का भाई हो या लड़की का बाप। एक इनसान के दिल को अन्दर से झकझोर देने वाले इस बाजार में बिकतीं हैं बेटियां, खरीदी जातीं हैं बहुएं और बाप भाई बोली लगा रहें होतें हैं। इस घिनौने कृत को जानते हुए भी वहां का प्रसाशन मौन है। 

सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक, देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से महज 650 किलोमीटर दूर नांदेड़ शहर से 13 किलोमीटर दूर अर्धापुर गांव जहाँ बेधड़ल्ले बेटियों को बेचने का बाजार लगता है। यहाँ के लोग औरतों को एक बिकाऊ सामान बनाने को परम्परा का नाम देतें हैं लेकिन सच्चाई तो कुछ और ही है। बाजार में खरीद-फरोख्त के बाद जो शादियाँ होतीं है वो कुछ दिनों के लिए ही होतीं। शादी के बाद पति का जब तक मन होता है वो खरीदी बीबी को अपने साथ रखता है और मन भरने के बाद औरत को फिर उसी मंडी में बिठा दिया जाता है बिकने के लिए। बिकने, खरीदने, शादी इन सब में औरत की कोई भूमिका नहीं होती। उसके मन उसके जज्बात से किसी का कोई मतलब नहीं होता। वो तब तक बेची और खरीदी जाती है जब तक उसकी कीमत वसूल न कर ली जाये या फिर वो इस दुनिया से मुक्त हो दूसरी दुनिया में न चली जाय। इस मेले में लड़कियों की कीमत भी सोच समझ कर लगाई जाती है। सूत्रों के मुताबिक, औरत की जब दूसरी बार कीमत लगायी जाती है तो पहले से ज्यादा हो जाती है। वैधु समाज की परंपरा के मुताबिक पहली बार शादी की मंडी में पहुंची लड़की की बोली आमतौर पर 20 से 30 हजार रुपए लगती है। पहली शादी से मां बन चुकी लड़की की बोली 50 हजार से 1 लाख रुपये तक तय की जाती है। यही कीमत पहली शादी के 1 साल पूरे कर चुकी लड़की की भी होती है और अगर शादी जीवन भर के लिए हो तो बोली हैसियत के मुताबिक 1 लाख रुपये या उससे भी ज्यादा की होती है।

परम्परा के नाम पर इस समाज में बेटियों की बोली लगाने का गन्दा खेल-खेला जाता है। बिकने वाली बेटी हो या बोली लगाने वाला पिता या भाई सब परम्परा की दुहाई देते हैं लेकिन सच्चाई तो कुछ और ही है परम्परा को इस कदर तोड़ा-मरोड़ा जा चुका है कि बेटियों की मंडी मुनाफा कमाने का कारोबार बनती जा रही है। यहाँ औरत बस एक पैसे कमाने का जरिया बन के रह गयी है। अक्सर लड़कियों की बोली से जो पैसे मिलते हैं पिता उससे अपने बेटों के लिए बहू खरीदते हैं। घर में 1 लड़की और 2 या 3 लड़के हों तो सभी भाइयों की शादी के लिए बेटी की कई-कई बार शादी करने की परंपरा भी है। सूत्रों से मिली ख़बरों के मुताबिक, वैधु समाज में शादी तय वक्त के लिए ही होती है। शादी को बीच में तोड़ने की भी आजादी है। लिहाजा, शादी को किसी भी बहाने तोड़ कर बेटी को फिर मंडी में पहुंचा दिया जाता है। बेटियों के इस कारोबार को समाज के पंचों की सहमति है, लिहाजा बेटी के विरोध या उसके दर्द की सुनवाई की गुंजाइश तक नहीं बचती। पंचों का कहना है कि उनके लिए कोई कानून नहीं है। लेकिन वैधु समाज में पंच खुद को कानून से कम नहीं मानते। यही वजह है कि कोई भी बेटियों को खरीदने-बेचने की इस परंपरा को तोड़ कर शादी करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता।

सूत्र यह भी बताते हैं कि वैधु समाज के लोग बेटियों के ऐसे सौदों पर कोई ऐतराज नहीं होता था। लेकिन आधुनिक शिक्षा हासिल करने वाले औरतों की कीमत समझने वाले के नौजवान अब इस परंपरा को भुला देना चाहते हैं। आज के नयी सोच के नौजवान वहां के पंचायत के नियम से बधे होतें है चाह कर भी इस कुछ नहीं कर पाते। वैधु समाज की बेसहारा, अपने ही पालनकर्ताओं द्वारा बेचीं जाने वाली लड़कियों और औरतों को सम्मान दिलाने, उन्हें एक औरत की असली पहचान से रूबरू करने की कोशिश वो लोग कर रहें हैं जो इस समाज से सम्बन्ध नहीं रखते। ऐसे लोग उन बेटियों को इस घिनौनी परम्परा की बेड़ियों से आजाद कराना चाहतें हैं। लड़कियों के लिए एक ऐसा समाज तैयार करने की कोशिश में लगें हैं जहाँ वो सम्मान के साथ अपना जीवन बिता सकें, जहाँ उन्हें बिकना न पड़े। ऐसे लोगों ने इस इस समाज में लगी इस कोढ़ को जड़ से खत्म करने का बीड़ा उठा रखा है। 

लगभग 30 साल पहले शुरू हुई इस परंपरा की नींव महाराष्ट्र के नांदेड़ इलाके में पड़ी थी। ज्यादातर समाजशास्त्रियों की नजर में इसकी वजह आर्थिक तंगी थी, गरीब परिवार में बेटियां, उनकी शादी का खर्चा न जुट पाने की सूरत में ये दुल्हन बाजार सजने लगा और बेटियों के बदले पैसे आने लगे और उन पैसों से बेटों की बहुएं खरीदी जाने लगीं। इसके बाद से ही इस मज़बूरी को परम्परा का नाम दे दिया गया। पूरे राज्य में करीब ढाई लाख वैधु समाज के लोग बसते हैं और ये सारे लोग अपने परिवार की बेटियों की बोली लगाने साल में तीन बार लगने वाले इस मेले में शिरकत करने इस गांव में आते हैं। वो गांव जिसकी आबादी करीब पंद्रह हजार है। गाहे-बगाहे उठने वाली विरोध की आवाजें वैधु समाज में ही दबा दी जाती हैं। आरोप है कि उनकी पंचायत के दबाव में विरोधियों के घर की बेटियों की समाज में शादी नहीं हो पाती। उनके साथ वैधु समाज के दबंग मारपीट से भी नहीं चूकते। विरोधी परिवारों का हुक्का पानी बंद कर दिया जाता है। उन्हें समाज से बेदखल कर दिया जाता है।

वैधु समाज की परंपरा शादी के लिए पैसों के लेनदेन को गैरकानूनी ठहराने वाले कानून के खिलाफ है। यहां नाबालिग लड़कियों की बोली भी लगती है। फिर भी वैधु समाज अपने रीति रिवाज को सही ठहराता है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि में बेटियों को मंडी में बिकने वाली चीज बनने से कौन बचाएगा? कौन बचाएगा औरतों के सम्मान की बोली लगने से ? एक ओर जहाँ औरतों को माँ, बेटी, बहन का जैसा सम्मानजनक दर्जा मिला है वहीँ इसी बेटी, इसी औरत को एक बिकाऊ सामान बना कर बाजार में बिठा दिया जाता है। कब तक परम्परा और मज़बूरी के नाम पर औरतों को ही बेचा जाता रहेगा? कब तक उनकी बोली लगती रहेगी? 


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