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Saturday, May 18, 2013

गीतिका मर गई, मिरासी मगर जिंदा हैं !


जगमोहन फुटेला
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गोपाल कांडा के हाथ में हाथ है, वाह संजय अरोड़ा की क्या बात है!

  
कोई औरत किसी मरे हुए आदमी के हाथ पे लगा खून ले के अगर अपनी मांग में भर ले तो उसे क्या कहेंगे? विधवा, पत्नी, कुलच्छिनी या पापिनी कुछ भी.... और पूरे शहर, समाज और मानवता को कलंकित कर के जाने वाले व्यक्ति को चंद टुकड़ों की खातिर जो उसे बचाते, छुपाते या उस की महिमा गाते फिरें तो फिर उसे क्या कहेंगे? एक शब्द में कहें तो... संजय अरोड़ा.
 
संजय मेरे लिए वे गोपाल कांडा के कर्मकांडों का गुणगान करने वालों के प्रतीक हो गए हैं. उमेश जोशी से शुरू करते हैं.
 
उमेश जोशी तब भी गोपाल कांडा के चैनल में मुख्य संपादक के रूप में सब तरह से सुख भोग रहे थे जब गीतिका रोग से ग्रसित कांडा 'न मानने' पर उस का दुबई तक पीछा करते घूम रहे थे. तब भी कि जब दिल्ली पुलिस को कांडा की तलाश थी. कौन बेवकूफ मानेगा कि कांडा चैनल की जिस वैन में छुप के दिल्ली की सड़कों पे चलते छुपते फिरे उसका आना जाना जोशी की जानकारी में नहीं था. लेकिन कांडा के रुपयों में इतनी चमक है कि जोशी को किसी जलालत से कोई फर्क नहीं पड़ता. गीतिका भी किसी की बेटी है इस का ख्याल खुद तीन बेटियों वाले जोशी को कभी नहीं आया. कांडा  के अंदर चले जाने के बाद नहीं. सुप्रीम कोर्ट तक से उस की ज़मानत रद्द हो जाने के बाद भी नहीं. जिन के लिए गांधी के चित्र वाले नोट और किसी की इज्ज़त आबरू लूट लेने वाले चरित्र में कोई फर्क नहीं होता वे पत्रकारिता के नाम पर गुलामी और हर तरह की बेगारी करते रहने को अभिशप्त होते हैं.
 
कांडा के राग दरबारियों में दूसरे मिरासी हैं दीपक अरोड़ा. पहले, जिन्हें न या कम पता हो, उन्हें बता दें कि ये मिरासी होते कौन हैं. शायद कभी आप ने प्लास्टिक की पन्नी हाथ में ले के किसी लंबी कमीज़ और ढीली पगड़ी वाले किसी ढपली या डमरू हाथ में लिए बंदे को अपने साथी को घटिया घटिया व्यंगों पर उस के सीने पे वो पन्नी मारते देखा हो. पाकिस्तान के साथ लगते प्रांतों और इलाकों में ऐसे जोड़े आम होते हैं. किसी के भी यहां भी शादी, बेटा या मुंडन हो तो इनको खबर इंटरनेट की स्पीड से भी पहले पंहुच जाती है. बल्कि वे ध्यान रखते हैं कि शादी साल भर पहले हुई तो बच्चा हुआ या होने वाला होग. ऐसे ही बेटा हुए इतना समय हो गया तो अब मुंडन फलां दिन होना चाहिए. ऐसे मिरासियों को पालने की परंपरा भी रही है. रेडियो, टीवी, इंटरनेट और हरियाणा न्यूज़ जैसे चैनल तब कहां थे? राजे रजवाड़े अपने प्रचार के लिए इन्हीं मिरासियों पे निर्भर करते थे. सो, राजे रजवाड़े तो चले गए मगर मिरासी अभी भाई हैं. तो, गोपाल कांडा के दूसरे मिरासी हैं, दीपक अरोड़ा. जिस हिंदुस्तान में अखबारी पत्रकार भी टीवी की विधा में आ के फिट और कामयाब नहीं हो पाए उस टीवी में दीपक अरोड़ा का अनुभव जीरो है. कहने को उन के पास अपने भाई की कृपा से एक अख़बार का दिया हुआ शायद पत्रकार वाला कार्ड भी था. जो जारी हो ही जाता है बहुत से अखबारों में अगर आप ठीक ठाक सा विज्ञापन ला के दे सकने की हालत में हों. बहरहाल, दीपक एक एड एजेंसी-कम-इवेंट कंपनी चलाते थे जब उन की गोपाल कांडा के चैनल में सीओओ जैसे पद पर नियुक्ति हुई. न, किसी मुगालते में न रहिएगा. दीपक कोई सीए, एमबीए या किसी एमएनसी की महा प्रबंधकी छोड़ के आए हुए प्रोफेशनल भी नहीं हैं. उन की सब से बड़ी या कहें कि एकमात्र योग्यता ये है कि वे उन संजय अरोड़ा के छोटे भाई हैं जो सिरसा में काफी संख्या में बिकने वाले अख़बार के सिरसा नरेश हैं. वे अपने आप को ब्यूरो चीफ बताते हैं. हालांकि सारी दुनिया के किसी भी अख़बार या टीवी में संपादक की तरह ब्यूरो चीफ भी होता सिर्फ एक है. फिर भी मान लीजिए कि वे सिरसा के ब्यूरो चीफ हैं. लेकिन ये भी उन के लिए छोटी बात चीज़ है. वे असल में बहुत बड़ी, तोप चीज़ हैं.
 
अख़बार में आप का नाम, फोटो छपता हो तो शोहरत आप को सिर्फ अपने लेखन या विचारों से नहीं मिलती. टीवी में दिखते रहने की वजह से भाव तो हिंदुस्तान में वोडाफोन वाले कुत्ते का भी बढ़ गया था. संजय अरोड़ा का भी बढ़ा और उन्हें एक ग़लतफ़हमी भी हो गई. वे मुख्यमंत्री की भेजी कार पे चढ़ गए. हरियाणा को चार जोनों में बांट के सरकार ने पत्रकारों की पूछ पड़ताल करने की जिम्मेवारियां सौंपी थी. संजय अरोड़ा धन्य हो गए. वे घूम घूम कर पत्रकारों के सहलाते रहे. हालांकि इस जलालत में दिल को तसल्ली देने के लिए एक सांत्वना थी कि जाते वे जिस कार पे थे उस पे विभाग की तरफ से जारी होने वाली परमिशन न होने के बावजूद वे लाल बत्ती लगा लेते थे.
 
सरकार ने उन्हें काना करना था. कर लिया. ऐसा कुछ था भी नहीं कि जो आईएएस अफसरों और सैकड़ों करोड़ रूपए के बजट से लैस जनसंपर्क महकमा खुद नहीं कर सकता था. कांग्रेस ने उन्हें पता नहीं किस चीज़ की तरह की तरह इस्तेमाल किया और फेंक दिया. बहरहाल, कुछ देर बेरोजगार रहने के बाद उसी अख़बार की सेवा उन्हें फिर मिल गई. लेकिन इस बार रकम और इज्ज़त दोनों कम मिली. संजय अरोड़ा अपने धंधे में लग गए. अपनी असली जात छुपा के उन्होंने अपने आप को अरोड़ा लिखना शुरू कर दिया था. अ-रोड़ा यानी जी किसी की राह में कभी रोड़ा नहीं बनता. संजय ने इस की उस की, राजनीति में हैं तो एक दूसरे के दुश्मनों की भी, सब की तारीफें और चमचागिरी करनी शुरू की. सिर्फ पत्रकार ही होते तो सरकारी ठप्पा लगवाते ही क्यों?
 
ईमान के बाज़ार और कपड़े उतार देने के व्यापार में एक बार किसी को भी कोठे पे 'बिठा' लेने के बाद 'मौसम' की 'चंदा' चुस्की तो किसी के भी साथ लगा लेती है. संजय ने भी 'न' कभी किसी को नहीं की. वे हरेक के तलुवे चाटने लगे. 'मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई' तो वे हरेक को बताने लगे. नीचे कुछ बानगियां देखिए और देखते समय ध्यान रखें कि ये खबरें नहीं, नेता चालीसा हैं.
 
वो देखने से पहले ये समझ लीजिए कि अरोड़ा बंधू आजकल कांडा के गुनाह बख्शवाने में लगे हैं. अब गोबिंद कांडा को ये समझाने में कि फिकर मत करो, बहुमत फिर किसी का नहीं आना. एमएलए हम तुम्हें बनवा देंगे और गृह मंत्रालय ले के तो मुख्यमंत्री खुद चल के आएगा. दीपक की नौकरी के नाम पे अच्छी खासी रकम आ ही रही है. सुना ये भी है कि पंजाब केसरी के इस्तेमाल का राज़ खुल जाने से कहीं वो नौकरी जाती हो तो गोबिंद कांडा ने एक प्रिंटिंग प्रेस खरीद के तैयार रखी है. गीतिका मर गयी बेशक, कांडा के मिरासी अभी ज़िंदा हैं.
 
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