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Tuesday, September 3, 2013

बाबा रे बाबा

By तनवीर जाफरी
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ऋषियों, मुनियों, संतों,पीरों-फकीरों, साधकों तथा योगियों की कर्मभूमि कहा जाने वाला हमारा देश भारत तथाकथित संतों व धर्मोपदेशकों के अनैतिक आचरणों को लेकर अब सुर्खियों में रहने लगा है। अक्सर देश के किसी न किसी कोने से ऐसे समाचार सुनाई देते हैं जो कलयुग के तथाकथित संतों,उपदेशकों तथा स्वयंभू धर्माधिकारियों की अनैतिक कार्यों में संलिप्पतता उजागर करते हैं। हद तो यह है कि प्राय: ऐसी $खबरें भी सुनने को मिलती हैं जिनसे यह पता चलता है कि अमुक ढोंगी व अय्याश प्रवृति के तथाकथित 'गुरु' ने अपने ही अनुयायी अथवा शिष्य की पुत्री को अपनी हवस का शिकार बना दिया अथवा ऐसा करने का प्रयास किया।
ऐसे समाचारों का एक दूसरा अति दु:खदायी पहलू यह भी है कि जब अंधआस्था तथा विश्वास का मारा कोई भोला-भाला भक्त अपने गुरु के अभद्र व अनैतिक आचरण का शिकार व भुक्तभोगी होने के बाद कल तक भगवान का रूप दिखाई देने वाले अपने 'ढोंगी गुरु' में राक्षस का रूप देखने लग जाता है तथा अपनी व अपने परिवार की इज़्ज़त से खिलवाड़ करने वाले अपने तथाकथित भगवान रूपी गुरु की वास्तविकता को उजागर करता है उस समय सर्वप्रथम उसी शिष्य के अन्य 'गुरु भाई' उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं तथा उसपर गुरु को बदनाम करने का उल्टा आरोप मढऩे लगते हैं। और किसी भी अनैतिक व दु:खदायी प्रकरण को अपने गुरु के विरुद्ध रची गई साजि़श बताकर उसके बेगुनाह होने का $फतवा दे डालते हैं। 

परिणामस्वरूप अपने ऊंचे संबंधों,धनबल तथा समर्थकों व आस्थावानों से मिलने वाले नैतिक समर्थन के चलते वही पाखंडी गुरु कुछ ही दिनों में अपने पापों व दुष्कर्मों पर पर्दा डाल सकने में सफल हो जाता है। और शीघ्र ही पिछले घटनाक्रमों को भूलकर वह अपने किसी नए 'शिकार' की तलाश में लग जाता है। ऐसे में आ$िखर कौन है इन पाखंडियों की हौसला अ$फज़ाई करने का जि़म्मेदार?

बड़े अ$फसोस के साथ यह कहना पड़ता है कि हमारे देश में अध्यात्म के क्षेत्र में लगभग सभी धर्मों में जो भी लोग सक्रिय दिखाई देते हैं तथा अध्यात्मवाद की बातें अपने शिष्यों व अनुयाईयों को बताने की कोशिश करते हैं यदि अपनी आंखों से अंधविश्वास तथा अंधास्था का पर्दा हटाकर इन 'गुरु घंटालों' के ज्ञान, इनके गुज़रे इतिहास तथा इनकी वास्तविकता को जानने का प्रयास करें तो बड़ी ही आसानी से कोई भी बुद्धिमान, ज्ञानवान तथा समाज व दुनिया की नब्ज़ परखने वाला व्यक्ति यह समझ सकता है कि उस तथाकथित गुरु की वास्तविकता क्या है जिसे अंधास्था व विश्वास के चलते उसके अनुयायी,भगवान का अवतार अथवा साक्षात भगवान समझो बैठे हैं? लगभग सभी धर्मों में पाए जाने वाले धर्मग्रंथ तथा उनकी अपनी पौराणिक कथाएं किसी भी धर्म अथवा समाज को मार्ग दिखाने के लिए पर्याप्त हैं। हमारे प्राचीन ऋषियों, मुनियों तथा धर्मगुरुओं ने हमें जीने के कौन से मार्ग नहीं दिखाए? मानवता का कौन सा पाठ नहीं पढ़ाया? जीवनचर्या कैसी होनी चाहिए, परस्पर सामाजिक संबंध कैसे हों, क्या अच्छा-क्या बुरा,क्या पाप तो क्या पुण्य, क्या सद्कर्म तो क्या दुश्कर्म कौन सा क्षेत्र हमारे प्राचीन धर्मगुरुओं अथवा धर्मग्रंथों से अछूता रहा? फिर आखिर कलयुग के यह नए-नवेले कुकर्मी,पापी, स्वार्थी तथा धनलोभी प्रवृति के ढोंगी संत हमें आखिर कौन सी नई बात बता देंगे? हां इतना ज़रूर है कि यह तथाकथित धर्माधिकारी अपने अनुयाईयों को अपने प्रति उनकी अंधास्था के कारण उन्हें अपने वशीभूत कर उनके घरों में, मंदिरों में, दीवारों पर यहां तक कि उनके गले में अपनी फोटो अवश्य स्थापित करवा देते हैं। और अपने भक्तों के मध्य स्वयं को भगवान या ईश्वरीय अवतार बता पाने में उन्हें अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती। हद तो यह है कि ऐसे पाखंडी धर्मगुरुओं का जादू उनके अनुयाईयों पर इस हद तक सिर चढ़कर बोलने लगता है कि वे अपने गुरु की आलोचना उनकी दुष्कर्मों से जुड़ा कोई भी प्रसंग सुनना ही नहीं चाहते। यहां तक कि उसके समर्थन में मरने व मारने तक को तैयार हो जाते हैं।

सवाल यह है कि क्या समाज में कुकुरमुत्तों की तरह उगने वाले ऐसे कलयुगी धर्माधिकारियों का यूं ही बे रोक-टोक पनपने दिया जाना चाहिए? क्या समाज को यह नहीं चाहिए कि वह अपने उस तथाकथित धर्मगुरु अथवा 'अवतारी पुरुष' के पिछले इतिहास के बारे में कुछ जानने की कोशिश करे? क्या यह ज़रूरी नहीं कि दूसरों को प्रवचन सुनाने वाले, अपने अनुयाईयों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले ऐसे ढोंगी धर्मोपदेशकों की दिनचर्या, उसकी गतिविधियों तथा धर्मापदेशक बनने के पीछे के उसके लक्ष्य पर नज़रें रखी जाएं? आखिर यह हमारे समाज की कैसी विडंबना है कि पढ़ा-लिखा, बुद्धिमान, शिक्षित तथा व्यवसायी वर्ग भी इन पाखंडियों के तिलिस्म से खुद को दूर नहीं रख पाता? परिणामस्वरूप अधिकांशत: ऐसे पाखंडी धर्मगुरु इन्हीं की सहायता व सहयोग से अपनी 'मार्किटिंग' व पंथ विस्तार के नेटवर्क को संचालित करते रहते हैं तथा इसे आगे बढ़ाते हैं। यहां खासतौर पर यह बताने की ज़रूरत नहीं कि हमारे समाज की धर्मपरायण  महिलाएं तो बिना कुछ सोचे-समझे ही ऐसे पाखंडियों के संतरूप, वेशभूषा तथा उनकी बनावटी भाषा से प्रभावित होकर पलभर में ही उनकी अंध भक्त बन जाती हैं। ज़ाहिर है समाज के लोगों के इसी अंधविश्वास तथा अंध आस्था के परिणामस्वरूप कोई भी अनपढ़, स्वार्थी, धनलोभी, भ्रष्ट, दुराचारी, व्याभिचारी तथा पाखंडी तथाकथित संत स्वयं को भगवान समझ बैठता है।

ज़रा सोचिए कि एक ओर तो कल तक साईकल में पंक्चर लगाने वाला कोई व्यक्ति देश का प्रतिष्ठित धर्मगुरु बनकर पंद्रह $फुट ऊंचे आसन पर बैठकर 'कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना' की कहावत को चरितार्थ करता हुआ अपने ढोंगपूर्ण प्रवचन देने के साथ-साथ कहीं प्रवचन के बदले में मोटी रक़म ऐंठने व अपना उत्पाद बेचने पर नज़र रखे हो तथा साथ-साथ अपने ही भक्तजनों की बेटियों पर बुरी नज़र डाल रहा हो और उन्हें आशीर्वाद देने के बहाने बच्चियों के निजी शारीरिक अंगों को छूने व सहलाने का आदी हो चुका हो तो दूसरी ओर उसी कथित संत्संग में बैठकर देश का संभ्रांत वर्ग यहां तक कि प्रथम श्रेणी के अधिकारी व उद्योगपति आदि उसी दुष्कर्मी प्रवचनकर्ता के ढोंगपूर्ण प्रवचन को सुनकर झूम रहे हों व उसकी ढोंगपूर्ण व हास्यास्पद बातों पर तालियां बजा रहे हों इससे बड़ा दुर्भाग्य हमारे देश के अध्यात्म जगत के लिए आखिर और क्या हो सकता है? क्या हमारा स्वाभिमान, हमारा ज़मीर या हमारी नैतिकता हमें इस बात के लिए नहीं झकझोरती कि हम ऐसे पाखंडियों का पर्दाफाश करें जो धर्म व अध्यात्म के नाम पर हमारे देश व खासतौर पर धर्म व अध्यात्म जगत को कलंकित कर रहे हैं? हम यह क्यों नहीं समझते कि आज जो कथित धर्मगुरु अपने किसी शिष्य की पुत्री अथवा किसी शिष्या पर बुरी निगाह डाल रहा है तथा उसे अपनी वासना का शिकार बना रहा है कल वह अपनी राक्षसी प्रवृति के अनुसार किसी और के साथ भी ऐसा ही करेगा। हम यह सोचने की कोशिश क्यों नहीं करते कि धोती जैसे साधारण वस्त्रों में रहने वाले तथा बाल व दाढ़ी बढ़ाकर स्वयं को साधू रूप में प्रदर्शित करने वाले इन पाखंडी धर्माधिकारियों ने अपने अनुयाईयों के बल पर कितनी अकूत संपत्ति जमा कर रखी है।

ऐसा नहीं है कि हमारे देश में सभी धर्मों के सभी धर्मोपदेशक अथवा धर्मगुरु पापी,पाखंडी अथवा दुष्कर्मी हों। निश्चित रूप से आज भी नि:स्वार्थ रूप से अध्यात्मवाद का ज्ञान देने वाले संत व महापुरुष हमारे समाज में मौजूद हैं। परंतु यह कहने में कोई संकोच नहीं कि कलयुग के दुष्प्रभाव के परिणामस्वरूप अथवा सांसारिकता की भागदौड़ या धर्मापदेशकों की परस्पर प्रतिस्पर्धा के चलते इनमें अधिकांशतया धनलोभी,स्वार्थी तथा अनैतिक कार्यों में संलिप्ल लोग पाए जा रहे हैं। यह भी देखा जा रहा है कि कल तक साईकल में पंक्चर लगाने से लेकर जूते-चप्पल साईकल पर बेचने वाले जैसे लोग अध्यात्म जगत में प्रवेश कर दुनिया को अध्यात्म का पाठ पढ़ाने का बीड़ा उठा चुके हैं। और शिक्षित तथा बुद्धिजीवी वर्ग है कि इनके जाल में फंसकर इनके अनैतिक कार्यों की हौसला अफज़ाई में लगा हुआ है। लिहाज़ा ज़रूरत इस बात की है कि किसी भी व्यक्ति को गुरु को दर्जा दिए जाने से पहले तथा उसके सत्संग में शामिल होकर उसकी तथाकथित अध्यात्मवाद संबंधी बातें सुनने से पूर्व उसके विषय में पूरी जानकारी अवश्य ली जाए। उसके उद्देश्यों को समझा व परखा जाए। उसकी पृष्ठभूमि को देखा जाए तथा यह समझने की भी कोशिश की जाए कि वह धर्मगुरु आपके पारंपरिक धर्म व विरासत में मिली आस्था व विश्वास से अलग हटकर कहीं अध्यात्म के नाम पर अपना निजी साम्राज्य स्थापित करने, धर्मोद्योग चलाने, उत्पाद बेचने तथा ज़मीन-जायदाद संबंधी व्यापार करने की कोशिश तो नहीं कर रहा है। और यदि ऐसा है तो निश्चित रूप से ऐसे कलयुगी धर्माधिकारियों का महिमामंडन बिल्कुल अनुचित है।

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