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Thursday, March 27, 2014

मनुवादियों ने संविधान को मजाक बनाया!

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मुझे अन्तत: इस मनमानी मनुवादी व्यवस्था ने शासक और शासितों के मनोमस्तिष्क और सुसुप्त अवचेतन मन पर अत्यन्त गहरा स्थान बना लिया। जिसे दूर करने के कारगर मनोवैज्ञानिक प्रयास किये बिना हमने भारत के वर्तमान संविधान को स्वीकार तो कर लिया, लेकिन संविधान की रक्षा, समीक्षा और व्याख्या करने वालों के अवचेतन सुसुप्त मस्तिष्कों पर मनुस्मृति की रुग्णता का शासन बदस्तूर कायम रहा। जिसके दुष्परिणामस्वरूप आजाद भारत में भी कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के साथ-साथ न्यायपालिका भी मनुवादी रुग्ण मानसिकता से लगातार कुप्रभावित और संचालित होती रही है। जिसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं- 

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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’  

आजादी से पूर्व तक भारत में आधिकारिक रूप से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राजाओं, बादशाहों व अंग्रेजी राज में भी मनुस्मृति के अनुसार शासन व्यवस्था संचालित होती रही थी, क्योंकि मनुस्मृति को वर्तमान संविधान से भी उच्च धार्मिक दर्जा प्राप्त था। संविधान तो मानवनिर्मित है, जबकि मनृस्मुति को तो ईश्‍वरीय आज्ञा से बनाये गये बाध्यकारी धर्मिक प्रावधानों के रूप में भारत पर सदियों से थोपा जाता रहा है। तथाकथित मनु महाराज जिसे मनु भगवान भी कहा जाता है, ने मानवता को मानवता नहीं रहने दिया, बल्कि मनु ने पूर्व से प्रचलित चारों वर्णों को धर्म के शिकंजे में इस प्रकार से जकड़ दिया कि हजारों सालों बाद भी आज तक इससे मानवता मुक्त नहीं हो पा रही है।  

मनु ने मनुस्मृति में घोषणा की है कि-  
‘‘लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरुपादत:। ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत्॥ 

(1/33) अर्थात्-सृष्टि के रचियता ब्रह्मा ने संसार में वृद्धि करने के लिये मुख से ब्राह्मण, बाहुओं से क्षत्रिय, उरुओं (जंघाओं) से वैश्य और पैरों से शूद्र पैदा किये।  

केवल इतना लिखनेभर से मनु को सुख नहीं मिला, बल्कि उन्होंने शूद्रों को तीनों उच्च वर्गों की सेवा करते रहने का स्पष्ट आदेश देने के लिये ब्रह्मा के मुख से आदेश दिलाया कि-  ‘‘एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत्। एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया’’ (1/93) अर्थात्-ब्रह्मा जी ने शूद्र वर्ण के लिये एक ही कर्त्तव्य बताया है कि शूद्र ईर्ष्या तथा द्वेष से परे रहते हुए तीनों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य) की सेवा करना।  ऐसे ही अनेकानेक अन्य प्रावधान मनुस्मृति में किये गये हैं, जो आधिकारिक रूप से सभी वर्गों को आपस में एक दूसरे से उच्चतर और हीनतर घोषित करते हैं। 

जिसके चलते लगातार शताब्दियों तक ये मनमानी कुव्यवस्था राजाओं और बादशाहों के संरक्षण से ब्रह्म-वाणी के रूप में संचालित होती रही। मानवता को लगातार रौंदा और कुचला जाता रहा। शूद्रों ने भी इसे अपनी नियति के रूप में स्वीकार लिया।  अन्तत: इस मनमानी मनुवादी व्यवस्था ने शासक और शासितों के मनोमस्तिष्क और सुसुप्त अवचेतन मन पर अत्यन्त गहरा स्थान बना लिया। जिसे दूर करने के कारगर मनोवैज्ञानिक प्रयास किये बिना हमने भारत के वर्तमान संविधान को स्वीकार तो कर लिया, लेकिन संविधान की रक्षा, समीक्षा और व्याख्या करने वालों के अवचेतन सुसुप्त मस्तिष्कों पर मनुस्मृति की रुग्णता का शासन बदस्तूर कायम रहा। जिसके दुष्परिणामस्वरूप आजाद भारत में भी कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के साथ-साथ न्यायपालिका भी मनुवादी रुग्ण मानसिकता से लगातार कुप्रभावित और संचालित होती रही है। 

जिसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-  

1. राजस्थान में चर्चित भंवरी बाई बलात्कार प्रकरण में सवर्ण जज ने फैसला सुनाता है कि यह सम्भव ही नहीं कि नीच व अछूत (शूद्र) जाति की भंवरी बाई के साथ उच्च जाति के भद्र पुरुषों द्वारा (आरोपितों द्वारा) बलात्कार किया गया हो। उच्च जाति के भद्र पुरुषों द्वारा ऐसा किया गया हो यह सम्भव ही नहीं है।  

2. ओबीसी के आरक्षण के बहाने सुप्रीम कोर्ट ने इन्द्रा साहनी बनाम भारत संघ मामले में कहा कि अनुच्छेद 16 (4) के तहत अजा एवं अजजा को प्रदत्त संवैधानिक आरक्षण केवल प्रारम्भिक नियुक्तियों के लिये है, पदोन्नतियों के लिये नहीं। जबकि इसी अनुच्छेद में संविधान निर्माण के दिन से ही आरक्षण प्रदान करने के लिये दो शब्दों का उपयोग किया गया है। पहला-‘नियुक्तियों’ और दूसरा-‘पदों’ पर आरक्षण लागू होगा। 

3. इसके उपरान्त भी सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की व्याख्या करने के अपने अधिकार का सदियों पुरानी मनुवादी मानसिकता के अनुसार उपयोग करते हुए आदेश जारी कर दिया कि अजा एवं अजजातियों को पदोन्नतियों में आरक्षण असंंवैधानिक है। जिसे बाद में संसद द्वारा अनुच्छेद 16 (4-ए) जोड़कर निरस्त कर दिया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के अजा एवं अजजा अर्थात् शूद्र विरोधी निर्णय लगातार आते रहे हैं। जिसके चलते संविधान में अनेक संशोधन किये जा चुके हैं और आगे भी किये जायेंगे।

4. राजस्थान हाई कोर्ट द्वारा अजा एवं अजजा वर्ग में क्रीमी लेयर के बारे में सुनाया गया निर्णय भी इसी कोटि का है। 

5. सुप्रीम कोर्ट द्वारा कर्मचारियों व अधिकारियों की किसी भी प्रकार की हड़ताल को संविधान के विरुद्ध घोषित किये जाने के बाद उच्च स्वास्थ्य संस्थानों में ओबीसी को आरक्षण प्रदान किये जाने के सरकारी निर्णय का विरोध करने वाले रेजीडेंट डॉक्टरों की हड़ताल को सुप्रीम कोर्ट द्वारा न मात्र जायज और उचित ठहराया, बल्कि उनको हड़ताल अवधि का वेतन प्रदान करने के लिये सरकार को आदेश भी दिये गये। 

6. अजा एवं अजजा वर्गों के विरुद्ध लगायी जाने वाली रिट अर्थात् याचिकाओं पर कुछ सुनवाईयों के बाद ही अकसर अजा एवं अजजा वर्ग के विरुद्ध निर्णय प्राप्त कर लिये जाते हैं। जबकि इसके ठीक विपरीत अजा एवं अजजा वर्गों की ओर से दायर की गयी याचिकाओं पर तुलनात्मक रूप से कई गुना लम्बी सुनवाई होती हैं और अकसर अजा एवं अजजा वर्गों के हितों के विरुद्ध ही निर्णय प्राप्त होते हैं। यहॉं यह उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट में वकीलों को फीस प्रति सुनवाई के हिसाब से भुगतान करनी होती है। जो अजा एवं अजजा वर्गों के लिये बहुत मुश्किल और असहनीय होती हैं। 

7. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा साफ शब्दों में ये कहे जाने के उपरान्त भी कि नरेन्द्र मोदी ने राजधर्म का पालन नहीं किया है, गुजरात एसआईटी में गुजरात के ही अधिकारी जॉंच कार्यवाही करते रहे, जबकि सुप्रीम कोर्ट अन्य अनेक मामलों को सीबीआई को सौंपता रहा है। मोदी के मामले में एसआईटी की रिपोर्ट पर सुप्रीम कोर्ट का रुख कुछ-कुछ प्रश्‍नास्पद और सन्देहास्पद रहा रहा है। 8. यही वजह है कि जिन मामलों में धर्मनिरपेक्ष अर्थात् मनुस्मृति के बजाय संविधान में आस्था रखने वाले पक्षकारों को न्याय की अपेक्षा होती है, उन मामलों में अकसर अस्पष्ट या नकारात्मक निर्णय प्राप्त होते हैं, जबकि मनुस्मृति में आस्थावान विचारधारा के पोषक लोगों के समर्थन में या उनके संरक्षण में निर्णय आते हैं। इसी बात को केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद और कपिल सिब्बल ने अपने-अपने तरीके से कहा है। 

इस प्रकार न मात्र कार्यपालिका और व्यवस्थापिका पर मनु की भेदभावमूलक छाप कायम है, बल्कि न्यायपालिका पर भी मनुवाद का प्रभाव साफ तौर पर देखा जा सकता है। इसी के चलते सारी शासन व्यवस्था में मनुवादियों का प्रभाव है। जिसे समय रहते समझने और समाप्त करने में देश की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक ताकतें पूरी तरह से असफल रही हैं। इसी का दुष्परिणाम है कि आज केन्द्र सरकार के अधीन काम करने वाले निकायों में कार्यरत रहे प्रशासनिक अधिकारी मनुवादी विचारधारा, साम्प्रदायिकता और देश में अल्पसंख्यकों का कत्लेआम करवाने के आरोपी नेताओं के नेतृत्व वाले राजनैतिक दलों में शोभा बढा रहे हैं। ऐसे अफसर लोक सेवक के रूप में कितने निष्पक्ष रहे होंगे, इसकी सहजता से कल्पना की जा सकती है? 

इसे भारतीय लोकतन्त्र की त्रासदी कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी और इसके लिये सर्वाधिक समय तक सत्ता में रहने वाली कॉंग्रेस को तथा अन्य उन सभी धर्म-निरपेक्ष दलों को पूरी तरह से जिम्मेदार माना जाना चाहिये जो संविधान की दुहाई देते हैं। इन सबके कारण व्यवस्था को धता बतलाते हुए सामाजिक न्याय की स्थापना और धर्म-निरपेक्षता की रक्षा करने को प्रतिबद्ध भारतीय संविधान का मनुवादियों ने मजाक बना रक्खा है!  

अब जबकि लोकसभा के चुनावों में देश के लोगों को अपना मत और समर्थन प्रकट करना है, मतदाता को चाहिये कि देश पर काबिज दो फीसदी लोगों द्वारा संचालित भेदभावमूलक कुव्यवस्था को समाप्त करने को प्रतिबद्ध दिखने वाले दलों और प्रतिनिधियों को ही चुनकर लोकसभा में भेजें। अन्यथा चुनाव आयोग द्वारा मतदाता को अपनी अपनी अप्रसन्नता और नाराजगी प्रकट करने की व्यवस्था मतपेटी में नोटा (नन ऑफ द अबोव) बटन के रूप में की गयी है!-

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