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Saturday, May 16, 2015

पहले साल में फिर सबसे अहम सवाल बचकाने करार दिये गये

Present by TOC News

26 मई 2014 को राष्ट्रपति भवन के खुले परिसर में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में 45 सांसदों ने मंत्री पर की शपथ ली लेकिन देश-दुनिया की नजरें सिर्फ मोदी पर ही टिकीं।  और साल भर बाद भी देश-दुनिया की नजरें सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी ही टिकी हैं। साल भर पहले शपथग्रहण समारोह में सुषमा, राजनाथ जीत कर भी हारे हुये लग रहे थे और अरुण जेटली व स्मृति ईरानी लोकसभा चुनाव हार कर भी जीते थे। पहले बरस ने देश को यह पाठ भी पढ़ाया कि चुनाव जीतने के लिये अगर पूरा सरकारी तंत्र ही लग जाये तो भी सही है। और सरकार चलाने के लिये जनता के दबाव से मुक्त होकर चुनाव हारने या ना लड़ने वालों की फौज को ही बना लिया जाये।

इसलिये देश के वित्त मंत्री, रक्षा मंत्री, मानव संसाधन मंत्री,सूचना प्रसारण मंत्री, वाणिज्य मंत्री, उर्जा मंत्री, पेट्रोलियम मंत्री, रेल मंत्री, संचार मंत्री, अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री समेत दर्जन भर मंत्री राज्य सभा के रास्ते संसद पहुंच कर देश को चलाने लगे। या फिर मंत्री बनाकर राज्यसभा के रास्ते सरकार में शामिल कर लिया गया।

क्योंकि सरकार चलाते वक्त जनता के बोझ की जिम्मेदारी तले कोई मंत्री पीएमओ की लालदीवारो के भीतर सरकार के विजन पर कोई सवाल खड़ा ना कर दें। तो पहले बरस इसके कई असर निकले। मसलन मोदी जीते तो बीजेपी की सामूहिकता हारी। मोदी जीते तो संघ का स्वदेशीपन हारा।

मोदी जीते तो राममंदिर की हार हुई विकास की जीत हुई। मोदी जीते तो हाशिये पर पड़े तबके की बात हुई लेकिन दुनिया की चकाचौंध जीती। मोदी पीएम बने तो विकास और हिन्दुत्व टकराया। मोदी पीएम बने तो विदेशी पूंजी के लिये हिन्दुस्तान को बाजार में बदलने का नजरिया सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को भी भारी पड़ता नजर आया। यानी पहले बरस का सवाल यह नहीं है कि बहुसंख्यक तबके की जिन्दगी विकास के नाम पर चंद हथेलियों पर टिकाने की कवायद शुरु हुई और बेदाग सरकार का तमगा बरकरार रहा। पहले बरस का सवाल यह भी नहीं है कि महंगाई उसी राज्य-केन्द्र के बीच की घिंगामस्ती में फंसी नजर आयी जो मनमोहन के दौर में फंसी थी।

पहले बरस का सवाल यह भी नहीं है कि कालाधन किसी बिगडे घोड़े की तरह नजर आने लगा जिसे सिर्फ चाबुक दिखानी है। और सच सियासी शिगूफे में बदल देना है। पहले बरस का सवाल रोजगार के लिये कोई रोड मैप ना होने का भी नहीं है और शिक्षा-स्वास्थ्य को खुले बाजार में ढकेल कर धंधे में बदलने की कवायद का भी नहीं है।

पहले बरस का सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि जिस राजनीति और उससे निकले नायको को खलनायक मान कर देश की जनता ने बदलाव के लिये गुजरात के सीएम को पीएम बनाकर देश को बदलने के सपने संजोये उसी
जनता के सपनों की उम्र 2019 और 2022 तक बढायी गई। बैंक खातों से लेकर पेंशन योजना और विदेशी जमीन पर भारत की जयजयकार से लेकर देश को स्वच्छ रखने तले हर भावना को नये सीरे से ढालने की कोशिश हुई। और राजनीति को उसी मुहाने पर ला खडा किया गया जिसके प्रति गुस्सा था। क्योंकि जाति की राजनीति। भ्रष्ट होती राजनीति ।

सत्ता के लिये किसी से भी गठबंधन कर मलाई खाने की राजनीति। लाल बत्ती के आसरे देश को लूटने की राजनीति से ही तो आम आदमी परेशान था। गुस्से में था । उसे लग चुका था कि राजनीतिक सत्ता तो देश के 543 सांसदों की लूट या दर्जन भर राजनीतिक दलों की सांठगांठ । या देश के दस कारपोरेट या फिर ताकतवर नौकरशाही के इशारों पर चल रहा है । उनके विशेषाधिकार को ही देश का संविधान मान लिया गया है।

इसलिये संविधान में मिले हक के लिये भी आम जनता को राजनेताओं के दरवाजे पर दस्तक देनी पड़ती। सत्ता के दायरे में खडे हर शख्स के लिये कानून-नियम बेमानी है और जनता के लिय सारे नियम कानून सत्ताधारियो के कोठे तक जाते हैं। यानी वहां से एक इशारा पुलिस थाने में एफआईआर करा सकता है। स्कूल में एडमिशन करा सकता है। अदालत जल्द फैसला दे सकती है। और अपराधी ना होने के बावजूद अपराधी भी करार दिये जा सकते है। लेकिन 26 मई 2014 के बाद हुआ क्या।

पहले बरस ही कश्मीर में जिन्हे आतंकवादियों के करीब बताया उसके साथ मिलकर सत्ता बनाने में कोई हिचक नहीं हुई। महाराष्ट्र में जिसे फिरौती वसूलने वाली पार्टी करार दिया उसके साथ ही मिलकर सरकार बना ली। जिस चाचा भतीजे के भ्रष्टाचार पर बारामती जाकर कसीदे पढ़े उसी के एकतरफा समर्थन को नकारने की हिम्मत तो हुई नहीं उल्टे महाराष्ट्र की सियासत में शरद पवार
का कद भी बढ गया। जिस झारखंड में आदिवासियों के तरन्नुम गाये वहां का सीएम ही एक गैर आदिवासी को बना दिया गया।

पहले बरस का संकट तो हर उस सच को ही आईना दिखाने वाला साबित होने लगा जिसकी पीठ पर सवाल होकर जनादेश मिला। क्योंकि बरस भर पहले कहां क्या क्या गया। किसान खत्म हो रहा है। शिक्षा सस्थान शिक्षा से दूर जा रहे हैं। हास्पिटल मुनाफा बनाने के उद्योग में तब्दील हो गये हैं। रियल इस्टेट कालेधन को छुपाने की अड्डा बन चुके हैं।खनिज संपदा की विदेश लूट को ही नीतियों में तब्दील किया जा रहा है।  सुरक्षा के नाम पर हथियारो को मंगाने में रुचि कमीशन देखकर हो रही है। सेना का मनोबल अंतर्राष्ट्रिय कूटनीति तले तोड़ा जा रहा है।

युवाओं के सामने जिन्दगी जीने का कोई ब्लू प्रिट नहीं है। हर रास्ता पैसे वालो के लिये बन रहा है। तमाम सस्थानो की गरिमा खत्म हो चुकी है । याद किजिये तो बरस भर पहले लगा तो यही कि सभी ना सिर्फ जीवित होंगे बल्कि पहली बार 1991 में अपनायी गई बाजार अर्थव्यवस्था को भी ठेंगा दिखाया जायेगा। वैकल्पिक सोच हो या ना हो लेकिन बदलाव की दिशा में कदम तो ऐसे जरुर उठेगे जो देश की गर्द तले खत्म होते सपनों को फिर से देश को बनाने के लिये खड़े होंगे। लेकिन रास्ता बना किस तरफ। विदेशी पूंजी पर विकास टिक गया।

विकास दर को आंकडो में बदलने की मनमोहनी सोच पैदा हो गई। रसोइयों से चावल दाल खत्म कर प्रेशर कूकर की इंडस्ट्री लगाने के सपने पाले जाने लगे। देशी व्यापारी, देशी उगोगपतियो से लेकर देसी कामगार और देसी नागरिक आर्थिक नीतियों की व्यापकता में सिवाय टुकटुकी लगाये विदेशी पैसा और विदेशी कंपनियो के आने के बाद ठेके पर काम करने से लेकर ठेके पर जिन्दगी जीने के हालात में बीते एक बरस से इंतजार में मुंह बाये खड़ा है।

 फिर जो कहा गया वह हवा में काफूर हो गया। 26 मई 2014 को सत्ता संभालने के महीने भर में ही यानी जून 2014 में तो दागी सांसदों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई को साल भर के भीतर अंजाम तक पहुंचाने का खुला वादा किया गया । लेकिन साल बीता है तो भी संसद के भीतर 185 दागी मजबूती के साथ दिखायी देते रहे। बीजेपी के ही 281 में से 97 सांसद दागी हैं। एडीआऱ की रिपोर्ट बताती है कि प्रधानमंत्री मोदी के मंत्रिमंडल में ही 64 में से 20 दागदार हैं।

जबकि अगस्त 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने ही कहा कि कम से कम पीएम और तमाम राज्यो के सीएम तो किसी दागी को अपने मंत्रिमंडल में ना रखें। असल में पहला बरस तो भरोसा जगाने और उम्मीद के उडान देने का वक्त होता है । लेकिन देश में भरोसा जगाने के लिये विदेशी जमीन का बाखूबी इस्तेमाल उसी तरह किया गया जैसे बीजेपी से खुद को बडा करने के लिये पार्टी के बाहर का समर्थन प्रधानमंत्री मोदी को इंदिरा गांधी के तर्ज पर नायाब विस्तार देने लगा ।

देसी कारपोरेट को खलनायक करार देकर खुद को जनकल्याण से जोडने की कवायद का ही असर हुआ कि एक तरफ विदेशी कंपनियों से वायदे किये गये कि भारत में आर्थिक सुधाऱ के लिये जमीन बन जायेगी। तो दूसरी तरफ खेती की जमीन पर सवालिया निशान लगाने से लेकर मजदूरो की नियमावली भी सुधार से जोड़कर जनकल्याण पर्व मनाने के एलान किया गया ।

जनता तो समझी नहीं संघ भी समझ नहीं पाया कि मजदूर विरोधी कानून के खिलाफ खड़ा हो या जनकल्याण पर्व में खुद को झोंक दें। उम्मीद उस बाजार को देने की कोशिश की गई जो सिर्फ उपभोक्ताओ की जेब पर टिकी है। जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपने प्रचारकों पर गर्व रहता है कि उनके सामाजिक सरोकार किसी भी राजनीतिक दल के कार्यकर्ता पर भारी पड़ते है, वह संघ परिवार पहली बार बदलते दिखा।

प्रचारक से पीएम बने नरेन्द्र मोदी ने उस ग्रामीण व्यवस्था को ही खारिज कर दिया जिसे सहेजे हुये संघ ने 90 बरस गुजार दिये । स्मार्ट सिटी की सोच और बुलेट ट्रेन दौडाने के ख्वाब से लेकर गांव गांव शौचालय बनाने और किसान मजदूर को बैक के रास्ते जिन्दगी जीने का ककहरा पढ़ाने का बराबर का ख्वाब सरकारी नीतियों के तहत पाला गया। यानी जिस रास्ते को 26 मई 2014 को शपथ लेने से पहले देश की जनता के बीच घूम घूमकर खारिज किया गया जब उसी रास्ते को बरस भर में ठसक के साथ मोदी सरकार ने अपना लिये।

चूंकि 2014 का जनादेश कुछ नये संकेत लेकर उभरा । और उसकी वजह राजनीतिक सत्ता से लोगों का उठता भरोसा भी था। तो झटके में जनादेश के नायक बने प्रधानमंत्री मोदी बीतते वक्त के साथ देश के नायक से ब्रांड एंबेसडर में बदलते भी बने। और ब्रांड एंबेसडर की नजर से विकास का समूचा नजरिया उसी उपभोक्ता समाज की जरुरतो के मुताबिक देखा समझा गया जिसे देखकर दुनिया भारत को बाजार माने। तो पहले बरस का आखिरी सवाल यही उभरा कि बीते दस बरस के उस सच को मोदी सरकार आत्मसात करेगी या बदलेगी जहा देश के चालिस फिसदी संसाधन सिर्फ 62 हजार लोगों में सिमट चुके हैं।

आर्थिक असमानता में तीस फिसदी के अंतर और बढ़ चुका है। जिसके दायरे में शहरी गरीब 700 रुपये महीने पर जिन्दा हैं तो शहरी उपभोक्ता 18690 रुपये महीने पर रह रहा है। यानी जिन नीतियों पर पहले बरस की सोच गुजर गई उस मुताबिक देश के पच्चीस करोड़ के बाजार के लिये सरकार को जीना है और वही से मुनाफा बना कर बाकी सौ करोड़ लोगों के लिये जीने का इंतजाम करना है।

पुण्य प्रसून बाजपेयी✏

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