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Wednesday, July 6, 2016

मंत्री पद नहीं मिला तो घोर निराशा कैसे और किनमें

Represent by - toc news
(महावीर प्रकाश अग्रवाल)
मंदसौर। मप्र में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया तो दो उम्र दराज मंत्रियों को हटाया भी। इस विस्तार में खासकर मंदसौर-नीमच जिले के भाजपा विधायकों को जो उम्मीद व आस लगाए बैठे होगे उन्हें स्थान नहीं मिलने पर घोर निराशा और उपेक्षा किसकी हुई और विकास कैसे रूकता है या रूका यह समझ से परे है। हां सुर्खियों में स्थान पाने के लिये यह कहा जा सकता है कि मंत्री पद नहीं मिलने से विकास अवरूद्ध होगा, क्षेत्र के लोगों में घोर निराशा ओर यहां तक की उपेक्षा से नाराजी लेकिन यह है कहा और किसमें ढूंढना पड़ेगी। जब दो मुख्यमंत्री अविभाजित जिले से रहे है। तीन मंत्री रहे है तो क्या विकास की गंगा अभी तक अविरल होगी और समर्थक अभी तक ओतप्रोत हो घोर निराशा और मायूसी से बाहर होगे।
अविभाजित मंदसौर जिले की राजनीति के कोई चार दशक से भी अधिक समय पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि कभी इस जिले की सभी सातों सीटों पर कांग्रेस का कब्जा रहा तो कभी भाजपा(जपा) का। उस दौरान राजनीति में दोनों दलों में गुटबाजी ओर वह भी दमदारी भी वजूद की रही। कांग्रेस में शुक्ल सेठी गुट था और दोनों ही गुट अपनी अपनी जगह राजनीति में वजूद रखने वाले मजबूत गुट हुआ करते थे। बाद में अर्जुनसिंह मुख्यमंत्री बने तो उनके गुट ने प्रदेश में मजबूती से कमान संभाल ली। इसी गुट की दिग्विजयसिंह मुख्यमंत्री बनने पर बागडोर संभाल ली। गुटबाजी भी इतनी मजबूत की कोई कितना भी छटपटाए पर वह आलाकमान तक पहुंच कर भी सेंध बाजी में शामिल नहीं हो सकता था। मैं यहां शुक्ल सेठी व अर्जुनसिंह व दिग्विजयसिंह गुट में कांग्रेस के कौन-कौन नेता थे और कौन गुटों का बादशाह यह मैं जिक्र नहीं कर रहा हूं क्यों कि समय- समय पर सब परिचित थे।
अब बात करे जनसंघ भाजपा की तो गुटबाजी से यह भी अछूती नहीं रही इनमें पटवा सकलेचा गुट का ही बोल बाला था। सांसद के रूप में डॉ. पाण्डेय का भी गुट रहा लेकिनवह बहुत सीमित था और उसमें भी अधिकांश कार्यकर्ता तो वे ही थे जो सकलेचा गुट में थे। हालांकि कुभाभाऊ ठाकरे का भी मंदसौर के पुराने कार्यकर्ताओं से काफी घनिष्ठ सम्पर्क था लेकिन गुटबाजी को प्रश्रय देने का उनका कोई रोल सुनने में नहीं आया परंतु हां सुंदरलाल पटवा की नजदीकी कुशाभाऊ ठाकरे व श्रीमती राजमाता सिंधिया से काफी अधिक थी। पटवा की पकड़ जिले में बहुत मजबूत थी। स्व. ओमप्रकाश पुरोहित, केलाश चावला जैसे नेता उनके काफी नजदीक थे किंतु गुटबाजी की बिसात के खेल कोई ४ दशक के बाद ऐसा लगा मानो बनते बिगड़ते रहते है। अभी १३ वर्ष से मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान है लेकिन वैसी गुटबाजी का खेल तो सामने नहीं है। परंतु राजनैतिक गलियारों में चर्चा के अनुसार अभी भी सुंदरलाल पटवा की पकड़ भाजपा की राजनीति में कमजोर नहीं मानी जा सकती।
अविभाजित मंदसौर जिले की कांग्रेस -भाजपा की गुटबाजी की राजनीति के और भी रोचक किस्से उदाहरण हो सकते है। डॉ. पाण्डेय अविवादित जरूर रहे है लेकिन उनके निकट उनके समर्थक से अधिक राजनीति की गुटबाजी की चर्चा में नहीं रहा। वर्तमान में सांसद सुधीर गुप्ता अपनी  राजनीति की पहली पारी का संसद का पहला चुनाव लड़ा और नरेन्द्र मोदी के पक्ष की हवा में वे बाजी मार गए। श्री गुप्ता पहली बार तो भाजपा के मंदसौर जिले के अध्यक्ष बने थे और पूरे संसदीय क्षेत्र में तो ठीक मंदसौर जिले में उन्हें अपनी पहचान बनाने का मौका मिला था कि उन्हें संसद का चुनाव लड़ने का मौका भी ऐसे वक्त मिला जब मतदाताओं का रूझान नरेन्द्र मोदी की तरफ था। ऐसा ही मंदसौर के भाजपा के दूसरी बार विधायक यशपालसिंह सिसोदिया का रहा। पहली बार भी भाजपा की राजनीति के ही नहीं बल्कि मंदसौर-नीमच जिले की भाजपा की राजनीति में अपना महत्वपूर्ण प्रभुत्व व चमक धमक रखने वाले स्व. ओमप्रकाश पुरोहित जो कि मंदसौर के विधायक थे उनका टिकिट काटकर भाजपा ने यशपालसिंह सिसोदिया को उम्मीदवार बनाया और वे जीते। दूसरे बार के चुनाव में विरोध के स्वर कार्यकर्ताओं और भाजपा नेताओं में भी मुखर थे लेकिन वे टिकिट लाने में सफल रहे और इधर फिर लोगों का रूझान नरेन्द्र मोदी व शिवरासिंह चौहान के लिए होने पर वे फिर चुनाव जीते। ये दो चुनाव और गुटबाजी की चर्चा तो लंबी फेहरिस्त हो सकती है लेकिन सांसद और विधायक की जोड़ी की चर्चा लोगों की जबान से नीचे नहीं है और ऐसी ही चर्चा प्रशासन में इन दोनों के साथ तालमेल की तो फिर बताओ गुटबाजी में शह और मात का खेल कहां और कौन इतना अधिक वजनदार हो सकता है।
हां पर इस जिले में भाजपा भी गुटबाजी की चर्चा राजनीति के गलियारे में चटखारे लेकर सुनी जा सकती है लेकिन यह किसी के मंत्री पद की कुर्सी को खिसका दे यह संभव नहीं माना जा सकता। मंत्री पद की कुर्सी की चार दशक की चर्चा करे तो जिले से दो मुख्यमंत्री, तीन तीन मंत्री तक रहे और इसके पूर्व उमा भारती से लेकर शिवराजसिंह चौहान के मंत्रीमंडल में भी मंत्री रहे लेकिन कौन सी विकास की गंगा बहने लगी और कितने क्षेत्र उपेक्षा से बाहर हो गए। कितने कार्यकर्ता उपेक्षा से बाहर हो गए यह सब बाते सुर्खियों में स्थान प्राप्त कर सकती है लेकिन अब यह बात तो सब जानते है कि मंत्री बनने से लाभ किस क्षेत्र का है या कौन से समर्थको का। राजनीति के गलियारों में यह सब चर्चा में लोग दांतों तले उंगली दबा लेते है मुख्यमंत्री व मंत्री पद से विकास की गगा बहती तो फिर आज विकास का चारों और बोल बाला हो जाता। सड़कों का जाल बिछ जाता। ओर ऐसी ही अन्य योजनाओं का विकास हो जाता। लोगों की मांग ही अब कुछ ओर हो जाती लेकिन मंत्री पर तो इस जिले को खूब मिल लेकिन विकास किसका हुआ यह तो लोगों की चर्चाओं में हो सकता है लेकिन मुझे तो ढूंढना पड़ेगा। फिर अभी लंबे समय से कोई इस जिले से मंत्री नहीं है तो क्या विकास अवरूद्ध है और है तो कौन कौन से काम। यदि है तो क्या ये नेता केवल मंत्री पद से ही वे विकास के काम ला सकते है वर्ना नही। अब यह बात तो साफ है मंत्री पद से ईर्द गिर्द या समर्थक विकास की बात व निराशा की बात कहते है तो जानते सब है। मंत्रिमंडल के गठन के बाद मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने सभी मंत्रियों से पहली बार कहा कि पीएम मोदी की भावना के अनुरूप करना होगा काम। न खाऊंगा और न खाने दूंगा के फार्मूले पर करना होगा काम लेकिन मुख्यमंत्रीजी आज तक किसी भी मंत्री या विधायक ने तो यह कहा नहीं और शायद कहे भी क्यों कि विपक्ष ने तो कभी ऐसी मांग की ही नहीं।
हां राजनीति गुटबाजी में शह और मात का खेल तो चलता रहा है लेकिन मंत्री नहीं बनने पर घोर उपेक्षा निराशा जैसी कोई बात होती तो फिर मंदसौर को तो मंत्री नहीं मुख्यमंत्री पद मिलना था क्यों कि पहले भी इस जिले से नेता रहे है।

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