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Monday, October 31, 2016

ऐसे निर्दयी रिश्तों और समाज का मूल्य क्या है?

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लेखक : सेवासुत डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
हमारे समाज में बात-बात पर रिश्तों, नैतिकता, संस्कारों और संस्कृति की दुहाई दी जाती है। जिनकी आड़ में अकसर खुनकर नजर आने वाली हकीकत और सत्य से मुख मोड़ लिया जाता है। जबकि समाजिक और खूनी रिश्तों का असली चेहरा अत्यन्त विकृत हो चुका है। आत्मीय रक्त सम्बन्धों में असंवेदनशीलता/ Insensibility/Non-Sensitivity और उथलापन/Shallowness अब बहुत आम बात हो चुकी है। यदि हम अपने आसपास सतर्क और पैनी दृष्टि से अवलोकन करें तो एक नहीं कई सौ ऐसे क्रूर उदाहरण देखने को मिल जायेंगे। जिन पर सहजता से सार्वजनिक रूप से बात तक नहीं की जा सकती। कुछ आँखों देखे हर जगह देखे जा सकने वाले उदाहरण :—
1. अपने पूर्वाग्रहों के चलते बेटे अपने ही पिता की हत्या करने को उद्यत/prepared रहते हैं। मारपीट आम बात बन चुकी है। अनेक बार पिता की हत्या तक कर दी जाती हैं।
2. पिता द्वारा अपने ही बेटों में से किसी एक कमजोर बेटे के साथ साशय/intentionally और क्रूरतापूर्ण विभेद किया जाता है। जिसकी कीमत वह जीवनभर चुकाने को विवश हो जाता है।
3. रिश्वत तथा उच्च पद की ताकत से मदमस्त कुछ भाईयों द्वारा अपने से कमजोर भाई या भाईयों के साथ सरेआम अपमान, विभेद तथा नाइंसाफी की जाती है।
उपरोक्त हालातों में आर्थिक रूप से कमजोर और उच्च-पदस्थ सक्षम भाईयों, पिता, बेटों के आतंक का दुष्परिणाम, कमजोर और उत्पीड़ितों के लिये मानसिक विषाद, तनाव और अनेक मामलों में आत्महत्या की घटनाओं तक में देखने-सुनने को मिलता है। इससे भी दुखद यह है कि ऐसी अमानवीय तथा आपराधिक घटनाओं को हम, सभ्य समाज के सभ्य लोग सिर्फ छोटी सी घटना और, या खबर मानकर अनदेखी करते रहते हैं, जबकि ऐसी घटनाएं ही समाज और समाज के ताने-बाने का ध्वस्त कर रहती हैं। ऐसी अनदेखी ही आत्मीय रिश्तों को बेमौत मार देती हैं। कितने ही पुत्र, पिता और भाई आत्मग्लानी, तनाव, रुदन और आत्मघात के शिकार हो रहे हैं। 

बावजूद इसके ऐसे मामले सूचना क्रान्ति के वर्तमान युग में भी दबे-छिपे रहते हैं, क्योंकि आत्मीय रिश्तों को किसी भी तरह से बचाने की जद्दो-जहद में इस प्रकार की अन्यायपूर्ण घटनाएं चाहकर भी व्यथित पक्ष द्वारा औपचारिक तौर पर सार्वजनिक रूप उजागर नहीं की जाती हैं। यद्यपि उत्पीड़क और उत्पीड़ित दोनों ही पक्षों के बारे में आस-पास के लोग और सभी रिश्तेदार सबकुछ जानते हुए भी मौन साधे रहते हैं। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि व्यथित और उत्पीड़ित पक्ष के लिये ऐसे निर्दयी रिश्तों और समाज का मूल्य क्या है?

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