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Monday, November 28, 2016

आदिवासियों की शान ताड़ी, नारी और गाड़ी

आदिवासियों के लिए चित्र परिणाम

अवधेश पुरोहित @ TOC NEWS

भोपाल । यूँ तो अक्सर लोग सड़कों के किनारे और आधुकिनता की ओर बढ़ रहे शहरों के नये भवनों में अक्सर आदिवासियों को परिवार सहित मेहनत मशक्कत करते हुए हर कोई की निगाह उन पर पड़ जाती है तो वहीं उनकी मेहनत मशक्कत के मामले में उनकी एक अलग पहचान है। 
लेकिन दरअसल आदिवासियों की जिस बात से पहचान है उसमें ताड़ी, नारी और गाड़ी के इस अनोखे अंदाज से वह परेशान हैं, जहाँ तक बात ताड़ी की करें तो वह सुबह से आदिवासी क्षेत्रों में ताड़ी का सेवन करते नजर आएंगे लेकिन आज इस आधुनिक युग में उनको भी अपनी परंपरागत देशी भट्टियों से बनाई गई दारू तो पसंद है ही, तो वहीं आधुनिक युग में प्रचलित अंग्रेजी शराब और बीयर का शौक भी वह बड़ी शान से करते हैं और जब उनके यहाँ शादी या कोई उत्सव होता है तो अंग्रेजी शराब की दुकानों से आदिवासियों को बोरी में दर्जनों बोतलें ले जाते हुए भी देखा जा सकता है, शायद यही वजह है कि झाबुआ जैसे ठेठ आदिवासी जिले के गुजरात बार्डर से सटे पिटोल में होने वाली बीयर की बिक्री ने इंदौर को पछाड़ रखा है। 
वैसे भी झाबुआ और अलीराजपुर में अंग्रेजी शराब की दुकानों की बोली प्रदेश के कई जिलों की तुलना में कई गुना अधिक है, इसके पीछे क्या कारण है यह शासन-प्रशासन में बैठे अधिकारी बड़ी अच्छी तरह से जानते हैं यही नहीं गुजरात सीमा पर अलीराजपुर के भाजपा विधायक का जो बीयर बार गुजरात की सीमा से सटा हुआ है उसकी भी बिक्री महानगरों के बीयर बारों से अधिक है, खैर यह बात तो रही ताड़ी की अब बात करें, नारी की तो जब भी आदिवासियों में वैवाहिक परम्परा का आयोजन होता है 
तो उसे इतनी जोर शोर से मनाये जाने की परम्परा है कि इस कार्यक्रम में शराब और कवाब का दौर तो चलता ही है तो वहीं दर्जनभर बकरे कटना आम बात है और उनके इस साधारण से झोंपड़ीनुमा घासफूंस की बनी और उससे लगी उनकी खेतीबाड़ी किसी आधुनिक फार्म हाउस से कम नहीं दिखाई देती जहाँ उनकी परम्परागत साग-सब्जियों का उत्पादन भी इन दिनों जमकर हो रहा है और इन खेतों में पैदा होने वाली हरी सब्जियां जिनमें टमाटर, धनिया, शिमला मिर्च, ककड़ी सहित अन्य सब्जियां प्रतिदिन ट्रकों में भरकर गुजरात, बाम्बे तो छोडि़ए झाबुआ के टमाटर तो पाकिस्तान तक में प्रसिद्ध हैं। 
अब बात गाड़ी की करें तो गाड़ी फिर चाहे वह साइकिल हो उसे सजाधजाकर रखना उनकी एक अलग पहचान नजर आती है, अपनी पुरानी परम्परा के अनुसार इन जिलों में साइकिलों की तो भरमार है लेकिन इस आधुनिक युग के वाहन जिनमें ट्रैक्टर, चार पहिया वाहनों की भरमार इन जिलों में दिखाई देगी जो इन जिलों की लचर यातायात व्यवस्था की दास्तांन सुनाती सड़कों पर फर्राटे लेती नजर आते हैं, तभी तो इन वाहनों में जहाँ की छत पर पहले और नीचे की सीट पर बाद में बैठने की यहाँ परम्परा है, यही नहीं इन जिलों की ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर गुजरने वाले वाहनों में जहाँ पुरुष तो पायदानों पर खड़े नजर आएंगे लेकिन ऐसा नहीं है कि इन पायदानों पर महिलाएं और बच्चियाँ खड़े होकर यात्रा न करती हों। 
ऐसे भी कई समय आए जब जिला प्रशासन ने और एक समय झाबुआ के तत्कालीन कलेक्टर ने इस तरह के वाहनों में भेड़ बकरियों की तरह भरे इन आदिवासियों को लेकर सड़कों पर फर्राटे लेने पर लगाम न लगाई हो लेकिन जब कलेक्टर ने अपने बंगले के ठीक सामने यह नजारा प्रतिदिन देखने को मिला हो कि लोग छत पर पहले बैठते हैं और बाद में सीटों पर और जब छत ओर सीटें भेड़-बकरियों की तरह लबालब हो जाती हैं तो वहाँ के पुरुष और महिलाएं पायदान पर सफर करने में भी हिचकती नहीं हैं, 
ताड़ी और नारी की तरह ही इन आदिवासियों में गाड़ी रखने की परम्परा है और शायद यही वजह है कि इस ठेठ आदिवासी झाबुआ जिले के समिति सेवकों के पास जिले के कलेक्टर से कहीं आधुनिक गाड़ी पजेरो भी देखने को मिल जाएगी। यह अति आधुनिक वाहन पजेरो इन समिति सेवकों ने कहाँ और किस माध्यम से खरीदी यह सत्ता और संगठन में बैठे लोगों के लिए शोध का विषय है कि आखिरकार यह वाहन उन्होंने किस जुगाड़ और जुगत से खरीदे, लेकिन आदिवासी जिलों में इस तरह की परम्पराओं को लेकर चर्चाएं तो आम हैं।    

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