Pages

click new

Saturday, December 2, 2017

बंजर होती भूमि और घटती पैदावार के लिए संजीवनी है कास्मिक एग्रीकल्चर सिस्टम

Ravindra Arjariya के लिए इमेज परिणाम

साप्ताहिक कालम रविवार को

सहज संवाद / डा. रवीन्द्र अरजरिया
Present By TOC NEWS
कृषि की बंजर होती भूमिघटती पैदावार और विषाक्त खाद्यान्न से समूचा विश्व परेशान है। जीवन को रासायनिक खादों और कीटनाशकों की भरमार ने बीमारियों की सौगात देना शुरू कर दिया है।
नित नये रोगों का प्रहार हो रहा है। चिकित्सा जगत से जुडे वैज्ञानिकों के सामने स्वस्थ संसार देने की चुनौती खडी हो गई है। अनजाने रोगों की आमद दर्ज होने से पीडा का बाजार गर्म होता जा रहा है। दुःखों से कराहते लोगों की भीड चिकित्सालयों में जुटने लगी है। कराहती सांसों के पीडादायक क्रन्दन से वातावरण आहत होने लगा है। ऐसे में स्वस्थ जीवन के लिए पौष्टिक आहारविशुद्ध जल और प्रदूषणरहित वातावरण की नितांत आवश्यकता है  परन्तु समाधान की दस्तक आम आवाम के दरवाजे के अभी दूर ही है। इस तरह की चिन्तायें अक्सर विचारों में जाग्रत होकर कुछ खोजने की ओर प्रेरित करतीं।
कार्यालयीन कार्य से लखनऊ जाना हुई। वहां हमारी मुलाकात अपने पुराने सहपाठी श्रवण कुमार जी से हुई। वे लखनऊ विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर अध्ययन के दौरान हमारे सहपाठी थे, सो पुरानी यादें ताजा होने लगीं। उच्चशिक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले को कर्मभूमि और पैत्रिक खेती को ही अपनाया ताकि धरती से जुडी संस्कृति और संस्कारों की सुखद अनुभूति होती रहे। परम्परागत पद्धतियों से साथ-साथ आधुनिक तकनीक का प्रयोग करके उसे लाभ का व्यवसाय बना लिया। विगत 2 वर्षों से कास्मिक एग्रीकल्चर सिस्टम से फार्मिंग के प्रयोग कर रहे हैं।
आश्चर्यजनक परिणामों को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि इस सनातन पद्धति में रसायनिक खादें और कीटनाशकों का बिलकुल भी प्रयोग नहीं होता है और न ही किसी प्रकार का अतिरिक्त खर्च वहन करना पडता है। बीजों के उपचार से लेकर फसली बीमारियों तक से बचाव हेतु केवल कास्मिक हीलिंग का सहारा लिया जाता है। सामान्य ढंग से खेत तैयार करके उसमें उपचारित बीज डालते हैं तथा निरंतर सुबह-शाम खेत को बृह्माण्डीय ऊर्जा की शक्ति देने का क्रम बनाना पडता है। यह शक्ति देने का काम दूर रह कर भी किया जा सकता है परन्तु निरंतरता की महती आवश्यकता होती है।
इस पद्धति से खेती करने पर तीन से पांच गुना तक ज्यादा फसल पैदा हुई जिसमें पोषकतत्वों की भारी मात्रा मौजूद थी। मण्डी में पहुंचते ही हमारी फसल खरीदने की होड सी लग गई। ज्यादा फसल और मंहगे दाम का दोहरा फायदा हुआ। हमने कास्मिक एग्रीकल्चर सिस्टम के बारे में विस्तार से जानने की जिग्यासा व्यक्त की, तो उन्होंने कहा कि यह सनातन पद्धति है जिसका प्रयोग युगों से होता रहा है परन्तु वाह्य आक्रान्ताओं ने हमारी सांस्कृतिक विरासत समाप्त करने के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान के सूत्रों को भी नष्ट कर दिया। कालान्तर में भौगोलिक दास्ता के शिकंजे में जकडे क्षेत्रवासियों पर मालिकाना संस्कृति और संस्कार थोप दिये गये।
स्वाधीनता के बाद भी कथित आधुनिकता के नाम पर दूरगामी परिणामों की विवेचना किये बिना ही अंधा अनुशरण करने वाली मानसिकता जीवित रही। इसी संदर्भ में जहरीली रासायनिक खादों, हानिकारक कीटनाशकों, खोखले बीजों, वर्णशंकरी पशुओं और अकर्मण्य बनाने वाले उपकरणों के प्रयोग से न केवल हमारी धरती बंजर होने लगी है बल्कि खाद्य पदार्थों में पौष्टिकता के स्थान पर घातक कीटाणुओं का बाहुल्य होता जा रहा है।
हमारे आदिकालीन ऋषि, मुनि और सिद्धों ने अपने तप के दौरान बृह्माण्डीय ऊर्जा के संदोहन से इच्छित परिणामों की प्राप्ति की विधियां खोजीं। उन्हीं विधियों में एक का प्रयोग खेती के लिये किया जाता है। इसमें किसी प्रेरक ऊर्जा स्रोत के माध्यम से स्वयं को जागृत किया जाता है, जिसे शक्तिपात कहते हैं। यह प्रेरक अपनी तपीय ऊर्जा के कुछ अंश दान कर ग्राहता को दिये गये अंश के विकास और उसके सद्उपयोग का अधिकार भी हस्तांतरित करता है। जिसके निरंतर अभ्यास से ऊर्जा संचय और फिर ऊर्जा के माध्यम से ही हीलिंग करके बीजों, खेतों और फसलों को पोषण देना होता है।
यह व्यवहारात्मक विधि है जिसे स्थलीय प्रयोग द्वारा ही विस्तार से समझा जा सकता है परन्तु हम यह दावे के साथ कह सकते हैं कि आने वाले समय में कास्मिक एग्रीकल्चर सिस्टम विश्व के लिए एक वरदान बनकर पुनर्स्थापित हो रहा है। हमने इस पद्धति के अन्यत्र प्रयोग के उदाहरण देने के लिए दवाव बनाया तो उन्होंने कहा कि इस पद्धित से देश के विभिन्न प्रान्तों के हजारों किसानों ने खेती करना शुरू कर दी है। आस्ट्रिया में तो फूलों की खेती में इसी पद्धति का उपयोग कर मुनाफा कमाया जा रहा है। सनातन संस्कृति में रचे-बसे इंडोनेशिया के बाली में रहने वाले किसानों ने भारत की इस पुरातन विधि से खेती पद्धति को अपने लिए मिले परमात्मा के अनुदान का अंश तक मान लिया है।
मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर में शिवयोग कृषक शिविर का आयोजन विगत 16 सितम्बर 2014 को किया गया जिसमें डा. अवधूत शिवानन्द जी ने इस पद्धति से न केवल अवगत कराया बल्कि शक्तिपात कर हमें इसके विधिवत प्रयोग के लिए अधिकृत भी किया। पहले वर्ष हमने खेती की आधी जमीन में कास्मिक एग्रीकल्चर सिस्टम से और शेष में रासायनिक खादों और कीटनाशकों की प्रचलित पद्धति से फसलें उगाई और अन्तर स्पष्ट तौर पर पूरे क्षेत्र ने देखा। पैदावार तीन गुनी ज्यादा, दाना बडी और चमकीला था। तब से हम निरंतर पूरी खेती ही इसी पद्धति से कर रहे हैं।
तभी हमारे मोबाइल की घंटी बज उठी। व्यवधान उत्पन्न हुआ। बातचीत का सिलसिला थम गया। कार्यालयीन कार्यों से सम्बंधित फोन था। सहयोगी कुछ दिशा-निर्देश चाहते थे सो ग्रुप कान्फ्रेंसिंग करना थी। सो श्रवण कुमार जी के साथ स्वल्पाहार ग्रहण करने के बाद हमने भविष्य में इस विषय पर विस्त्रित बातचीत के आश्वासन साथ विदा ली। इस बार बस इतनी। अगले सप्ताह एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी। खुदाहाफिज।
 Ravindra Arjariya
Accredited Journalist
for cont. -
ravindra.arjariya@gmail.com
ravindra.arjariya@yahoo.com
+91 9425146253

No comments:

Post a Comment