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Sunday, November 11, 2018

के. रामाराव, जो मानते थे कि पत्रकारों को हमेशा सरकार के विरोध में रहना चाहिए

के. रामाराव,

TOC NEWS @ www.tocnews.org
BY ♦ कृष्ण प्रताप सिंह
1896 को आंध्र प्रदेश के चीराला में जन्मे और 09 मार्च, 1961 को बिहार की राजधानी पटना में अंतिम सांस लेने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के उस ‘जुझारू संपादक’ की अब किसी को भी याद नहीं आती, उसकी जयंतियों और पुण्यतिथियों पर भी नहीं!
इस तथ्य के बावजूद कि उसने दो दर्जन से ज़्यादा लब्धप्रतिष्ठ दैनिकों और साढ़े चार दशक में फैले अपने लंबे पत्रकारीय जीवन में जैसे उच्च नैतिक मानदंडों की स्थापना की, उनकी स्मृतियां साख़ के गंभीर संकट के सामने खड़ी भारतीय पत्रकारिता को नई दिशा दे सकती हैं.
जी हां, पत्रकारीय आग्रहों, सिद्धांतों व नैतिकताओं को बचाए रखने के लिए इस्तीफा जेब में लिए घूमने वाले इस मनीषी संपादक का नाम था- के. रामाराव.
उन्होंने 1919 में मद्रास विश्वविद्यालय की लेक्चरर की नौकरी छोड़कर पत्रकारिता का वरण किया और कराची के दैनिक ‘सिंध आॅब्ज़र्वर’ में सह-संपादक बनते ही उसकी कीमत चुकानी शुरू कर दी.
इस दैनिक के अंग्रेज़ों के हिमायती व्यवस्थापकों के साथ वैचारिक संघर्ष में मोटी तनख़्वाह का लालच भी रामाराव को झुका नहीं पाया. सो भी जब उनके बड़े भाई के. पुन्नैया उसके संपादक थे.
मालिकों ने शिकायत की कि प्रिंस आॅफ वेल्स के भारत दौरे का जो वृत्तांत रामाराव ने लिखा है, वह बेहद शुष्क है तो रामाराव का उत्तर था- ‘हां, है… क्योंकि शाही रक्त देखकर मैं प्रफुल्लित होकर काव्य रचना नहीं कर सकता!’ इस उत्तर के बाद तो उन्हें नौकरी से जाना ही था.
प्रख्यात संपादक सीवाई चिंतामणि के निमंत्रण पर रामाराव इलाहाबाद के दैनिक ‘लीडर’ में आए तो भी चिंतामणि का ‘बौद्धिक-आधिपत्य’ स्वीकार नहीं कर सके. तब ‘पायोनियर’ में यूरोपीय संपादक एफडब्ल्यू विल्सन से ही कैसे निभा पाते? मुंबई के ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ में गए तो उसकी रीति-नीति से भी तालमेल नहीं बैठा पाए.
अंग्रेज़ संपादक को इस्तीफ़ा देते समय उसने कारण पूछा तो उत्तर प्रश्न में दिया, ‘क्या कोई भारतीय कभी टाइम्स आॅफ इंडिया का संपादक हो सकता है?’
फिर तो बारी-बारी से ‘एडवोकेट आॅफ इंडिया’, ‘बाॅम्बे क्रॉनिकल’ और ‘इंडियन डेली मेल’ दैनिकों में काम करने और कहीं भी टिक न पाने के बाद वे मुंबई में ही ‘फ्री प्रेस जर्नल’ के संपादक नियुक्त हुए. आगे चलकर उन्होंने कुछ दिनों तक कलकत्ता से निकलने वाले दैनिक ‘फ्री इंडिया’ का संपादन किया.
वहीं के ‘ईस्टर्न एक्सप्रेस’ में कुछ और दिन गुज़ारने के बाद वे दिल्ली लौट आए और 1937 में ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में समाचार संपादक बने.
मद्रास, कराची, बंबई और दिल्ली की इस भागमभाग में बंबई के ‘डाॅन’ और मद्रास के ‘स्वराज्य’ से भी उनका जुड़ाव हुआ. लेकिन उनके संपादकीय जीवन में सबसे बड़ा मोड़ 1938 में आया, जब वे पंडित जवाहरलाल नेहरू के कहने पर उत्तर प्रदेश आए और लखनऊ से प्रकाशित राष्ट्रवादियों के प्रमुख पत्र ‘नेशनल हेराल्ड’ के संस्थापक-संपादक का पदभार संभाला.
यही वह पत्र था, जिसमें वे सबसे लंबी अवधि तक, कुल मिलाकर आठ वर्ष रहे. इस दौरान उन्होंने ‘नेशनल हेराल्ड’ को न सिर्फ अंग्रेज़ गवर्नर सर मॉरिस हैलेट बल्कि समूची ब्रिटिश सत्ता का सिरदर्द बनाए रखा.
लखनऊ में बंद व्यक्तिगत सत्याग्रहियों पर अत्याचारों के विरुद्ध ऐतिहासिक संपादकीय ‘जेल या जंगल’ लिखा तो अंग्रेज़ जेलर सीएम लेडली की कथित मानहानि करने के आरोप में अगस्त, 1942 में उन्हें छह महीने की सज़ा हुई.
15 अगस्त, 1942 को ‘वंदे मातरम्’ शीर्षक से उन्होंने हेराल्ड का अपना आख़िरी संपादकीय लिखा तो अग्रेज़ों को वह भी सहन नहीं हुआ. गवर्नर हैलेट ने हेराल्ड पर छह हज़ार रुपयों का जुर्माना ठोककर रामाराव को जेल में डाल दिया.
महात्मा गांधी ने इस कार्रवाई को ‘ट्रैजेडी फॉर नेशनल मूवमेंट’ कहा और के. रामाराव को ‘जुझारू संपादक’. उत्तर प्रदेश की जनता अपने इस प्यारे संपादक के समर्थन में उमड़ पड़ी. वह उसको जेल जाने से तो नहीं रोक पाई, लेकिन हेराल्ड के लिए इतना धन इकट्ठा कर दिया कि उसके जुर्माने को आठ बार चुकाया जा सके.
हेराल्ड बंद होने के बाद ‘पायोनियर’ के अंग्रेज़ संपादक ने उनसे पूछा कि अब उनकी पत्नी और आठ बच्चों का गुज़र-बसर कैसे होगा? ख़ासकर इसलिए कि उनके पास न कोई बड़ी जायदाद है, न बैंक बैलेंस?
अंदाज सहानुभूति जताने से ज़्यादा खिल्ली उड़ाने वाला था.
रामाराव ने उत्तर दिया, ‘मैं सैनिक हूं और संघर्ष करना जानता हूं. आपको मेरी चिंता में दुबले होने की ज़रूरत नहीं है.’
जेल से छूटकर रामाराव गांधी जी के पास चले गए और सेवाग्राम में रहकर कुछ दैनिकों के लिए स्पेशल रिपोर्टिंग करते रहे. 1945 में हेराल्ड फिर शुरू हुआ तो उसके पहले पृष्ठ पर बॉक्स था, ‘गुड मार्निंग सर मॉरिस हैलेट’ इसका अर्थ था- हम फिर आपको चुनौती देने आ पहुंचे हैं, गवर्नर साहब!
लेकिन बाद में एक ऐसी चुनौती आ खड़ी हुई, जिसने रामाराव को खिन्न करके रख दिया.
सर स्ट्रेफोर्ड क्रिप्स के भारत आने और ‘बातें बनाने’ के मुद्दे पर एक आक्रामक संपादकीय को लेकर हेराल्ड प्रकाशन समूह के अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरू से उनके मतभेद इतने गहरे हो गए कि उन्होंने अपने शिष्य एम. चेलपतिराव को पदभार सौंपकर त्यागपत्र दे दिया!
दरअसल, पंडित नेहरू क्रिप्स मिशन के प्रति नरम रुख़ के पक्षधर थे और चाहते थे कि रामाराव भी उनका अनुकरण करें लेकिन रामाराव के लिए ऐसा करना संभव नहीं था.
आज़ादी के बाद भी उनका स्पष्ट मत था कि पत्रकारों को हमेशा सरकारों के विरोध में रहना चाहिए. हां, सरकार विदेशी है तो विरोध शत्रुवत और स्वदेशी है तो मित्रवत होना चाहिए.
मद्रास का ‘इंडियन रिपब्लिक’ हो या पटना का ‘सर्चलाइट’, उनकी संपादकीय नीति इसी सिद्धांत की अनुगामिनी रही.
नेपाल के 1949 के जनवादी आंदोलन के समर्थन के सवाल पर ‘सर्चलाइट’ के राणाओं के समर्थक मालिकों से भी उनका टकराव हुआ. लेकिन दुनिया में कहीं भी लोकतंत्र और स्वतंत्रता के लिए लड़ रहीं ताकतों के समर्थन की अपनी प्रतिबद्धता से उन्होंने यहां भी समझौता नहीं किया.
रामनाथ गोयनका, विश्वबंधु गुप्त और आचार्य जेबी कृपलानी के आमंत्रण पर वे दिल्ली जाकर ‘इंडियन न्यूज़ क्रॉनिकल’ के संपादक बने, पर राजनीतिक मतभेदों ने उनको वहां भी टिकने नहीं दिया.
श्रमजीवी पत्रकारों के हितों की सुरक्षा के लिए उन्होंने इंडियन फेडरेशन आॅफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तो 1954 के विश्व पत्रकार सम्मेलन में भाग लेने ब्राजील गए.
1952 में वे मद्रास से राज्यसभा के सदस्य चुने गये तो कांग्रेस के होने के बावजूद सरकार की पूंजीवादी नीतियों की आलोचना का कोई मौका छोड़ते नहीं थे.
एक बार इससे नाराज़ होकर एक मंत्री ने तंज़ किया कि आप जाकर विपक्ष के साथ क्यों नहीं बैठते? रामाराव का उत्तर था, ‘मैं यहां इसलिए हूं कि आप जैसे लोग कांग्रेस जैसी पुनीत संस्था को बदनाम कर पूंजीवादियों के हाथ की कठपुतली न बना दें!’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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