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Monday, August 15, 2011

महात्मा को लाठी देने वाले बीड़ी बनाकर जीवन यापन कर रहा

साबरमती के संत कहे जाने वाले महात्मा गांधी की बहुत पुरानी तस्वीरों में से एक।

महात्मा गांधी ने जिस लाठी को आजीवन अपने पास रखा, और वह उनकी पहचान बनी, उस लाठी को कोई और नहीं, बल्कि बिहार के एक स्वतंत्रता सेनानी ने दिया था। लेकिन अफसोस कि आज देश के उस सपूत की दशा दयनीय है।


स्वतंत्रता सेनानियों के कल्याण के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकार ने समय-समय पर कई घोषणाएं कीं, लेकिन बिहार में कथित सुशासन के दौर में भी यह स्वतंत्रता सेनानी बीड़ी बनाकर अपना जीवन यापन कर रहा है। स्वतंत्रता सेनानियों को मिलने वाली कोई भी सुविधा आजतक उन्हें उपलब्ध नहीं हो पाई है।

मुंगेर जिले के बहियारपुर थाना क्षेत्र में गंगा नदी के किनारे बसे गोरघट गांव निवासी गणेश पासवान की दशा दयनीय है। वह 90 साल की उम्र में आज भी जीवन यापन के लिए बीड़ी बनाते हैं।

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की यादें अभी भी उनकी जेहन में ताजा हैं। उन्होंने बताया कि देश को आजाद कराने के लिए उस समय युवाओं में जूनून था। वह भी बड़ी शान से लड़ाई में कूदे थे। वह उस दौरान मुंगेर जेल में भी कैद रहे थे।

पासवान के अनुसार, 1944 में जब महात्मा गांधी मुंगेर पहुंचे थे, तो उन्होंने गोरघट की प्रसिद्घ लाठी उन्हें भेंट की थी। पासवान ने बताया कि महात्मा गांधी ने उस लाठी को ताउम्र अपने साथ रखी। गौरतलब है कि गोरघट की लाठी आज भी प्रसिद्घ है।

गणेश पासवान के पास स्वतंत्रता सेनानी के सभी प्रमाण पत्र हैं, परंतु अभी तक उन्हें इसका कोई लाभ नहीं मिला। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि वह अभी भी स्वतंत्रता सेनानियों को मिलने वाली पेंशन की बाट जोह रहे हैं। वह बताते हैं कि जीवन यापन के लिए बीड़ी बनाते हैं। प्रतिदिन 500-600 बीड़ी बनाते हैं, जिसके बदले उन्हें 20 से 30 रुपये बीड़ी ठेकेदार द्वारा मिल जाते हैं।

पासवान ने बताया कि वह अपनी पेंशन के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिले थे, उन्होंने एक पत्र लिखकर भी दिया था। कहा था कि गृह विभाग से सम्पर्क कीजिए पेंशन शुरू हो जाएगी। परंतु अभी तक पासवान को पेंशन की एक भी किश्त नहीं मिली।

पासवान बताते हैं कि आज भी देश को सही मायने में आजादी नहीं मिल पाई है। पहले अंग्रेज शासन करते थे और अब पूंजीपति शासन करते हैं। देश में शासन को लेकर कोई खास बदलाव नहीं हुआ है।

पासवान के दो बेटे हैं, परंतु उनके पास भी कोई रोजगार नहीं है। वे भी मजदूरी कर अपना तथा अपने परिवार का जीवन यापन कर रहे हैं।

गोरघाट के ग्रामीण बताते हैं कि पासवान को गांव स्तर पर मदद देने की कई बार कोशिशें की गईं, परंतु उन्होंने उसे लेने से इंकार कर दिया। स्वाभिमानी पासवान को अपने जीवन के अंतिम समय में जीने की चाह नहीं बची रह गई है।

एक कोठरी में एकांत में बैठे जीवन की अंतिम घडि़यां गिन रहे पासवान भावुक अंजाज में कहते हैं कि अब ईश्वर ले जाए तो अच्छा है।

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