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Thursday, June 16, 2016

" न्यायालय की मर्यादा भाग - 2"

चिंतन- गिरीश सक्सेना जिला आगर मालवा
9407428628, 7047008515

" न्यायालय की मर्यादा भाग - 2"

 कल जब मैंने न्यायलय की मर्यादा बनाए रखने के बारे में लिखा तब कई लोगो के मेरे पास विचार आए जिसमे से कई ऐसे थे जिनका कहना था की न्याय व्यवस्था में हमारे लोगो का प्रतिनिधित्व नहीं हे इसलिए हमारे साथ नाइंसाफी ही होती हे ।
     मेरा उनसे कहना हे की कम से कम न्याय व्यवस्था को जात पात की संकीर्ण सोच से दूर रख सिर्फ योग्यता के आधार पर ही खड़ा रहने दीजिए क्योकि यदि इस जात पात की फिलासफी पर चला गया तो फिर एक जात का व्यक्ति कभी नहीं चाहेगा की उसका प्रकरण दूसरी जात के न्यायाधीश के यहाँ चले और फिर संकीर्णता बढेगी तब हर परिवार को अपने अपने निजी न्यायालयों की आवश्यकता होगी । अब आप अपने दिल पर हाथ रख कर सोचिए कि क्या आप हमेशा ही अपने माता पिता के न्याय से संतुष्ट थे नहीं ना तो फिर ये संकीर्णता छोड़ना ही उचित होगा क्योकि इसकी कोई सीमा नहीं होती ।
एक बात और जब न्याय के पद पर बैठने वाले की नियुक्ति सिर्फ उसकी योग्यता के बल पर नहीं बलक़ी इस आधार पर भी होगी की वह अमुक जाती और वर्ग का हे तो स्वभाविक रूप से उसका झुकाव न्याय से अधिक उस वर्ग की तरफ होगा जिससे वह आया हे क्योकि आज वह उस वर्ग का होने के कारण ही इस कुर्सी पर बैठा हे और परिणाम स्वरूप वह न्याय करने से अधिक अपनी जाती और वर्ग का हित साधने का प्रयास करेगा ।
तात्पर्य यह हे की न्याय की कुर्सी पर बैठने वाले की नियुक्ति सिर्फ और सिर्फ योग्यता के आधार पर ही होना चाहिए फिर वह चाहे जिस धर्म वर्ग या जाती से आए ।
ऐसा नहीं होने पर हर न्यायिक निर्णय को शंका की निगाह से देखा जाएगा और उसमे हर वह व्यक्ति जिसके खिलाफ निर्णय आता हे उसे न्याय की दृस्टि से नहीं जात, पात की दृस्टि से देखेगा और ऐसे में भी न्यायालय की मर्यादा को बनाए रखना लगभग असंभव ही होगा ।
और यदि किसी वर्ग को लगता हे की न्याय व्यवस्था में उनकी जाती के लोगो का प्रतिनिधित्व नहीं हे तो मुझे लगता हे उस जाती के लोगो को वह समस्त प्रयास करना चाहिए जिससे उनकी जाती या वर्ग के लोग अपने प्रतिद्वंदियों को पछाड़ते हुए उस मुकाम पर पहूँचे और आत्मविश्वास से लबरेज हो के कह सके हम अपनी योग्यता के दम पर यहाँ आए हे किसी के भरोसे नहीं इसलिए हम यहाँ किसी का अहसान नहीं चुकाएंगे सिर्फ और सिर्फ न्याय करेंगे ।
रही बात कोलेजियम सिस्टम की तो एक शंकालु व्यक्ति हर समय शंका कर सकता हे क्योकि वो सिस्टम में तो होता नहीं हे सिर्फ अपने वर्ग का ही प्रतिनिधित्व चाहता हे तो वह जो सोच रहा हे वह भी सही हो सकता हे और जो सोचना नहीं चाहता वह भी सही हो सकता हे ।
में स्पस्ट कर दू की यहाँ में किसी का पक्ष नहीं ले रहा सिर्फ समानता और योग्यता की बात कर रहा हूँ और मेरे ये विचार सिर्फ न्यायालय के संदर्भ में ही हे और में मानता हूँ की स्वस्थ जड़ से उगा हुआ पौधा ही सभी को स्वस्थ रख सकता हे ।
क्या आप सहमत हे ?
प्रणाम 🙏

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