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Tuesday, August 1, 2017

नीतीश उपप्रधानमंत्री बनेंगे ??

pm

REPRESENT BY -  TOC NEWS 

एक व्यक्ति कितने चक्रव्यूह तोड़ सकता है, दूसरे शब्दों में, वो कितने मोर्चों पर लड़ सकता है? लड़ाई भी ऐसी जो खुली न होकर के छुपी लड़ाई हो और जिसमें उसके सामने हार का खतरा हर पल मंडराता हो और ताकतें भी ऐसी, जो सत्ता को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपने हाथ में रखना चाहती हों.

देश पर राज करने वाली भारतीय जनता पार्टी के लिए इस समय एकमात्र भविष्य की बड़ी चुनौती के रूप में नीतीश कुमार खड़े हुए हैं. भारतीय जनता पार्टी उन्हें किसी भी प्रकार अपने साथ लेना चाहती है और अगर वो साथ नहीं आते हैं, तो उनका राजनैतिक ध्वंस कैसे हो इसके लिए दिन रात अपना दिमाग लगा रही है. संघ और भारतीय जनता पार्टी के लिए लगातार काम करने वाले रणनीतिकारों का ये स्पष्ट मानना है कि उनके लिए चुनौती राहुल गांधी नहीं हैं, उनके लिए चुनौती सिर्फ और सिर्फ नीतीश कुमार हैं. इसलिए वो उन्हें न केवल लालू यादव से बल्कि संपूर्ण विपक्ष से अलग कराकर अपने साथ लाने के लिए जी-जान से कोशिश कर रहे हैं.
ये खबर भारतीय जनता पार्टी के लोगों के पास है कि अगर थोड़े वोट भी कम आते और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने में कोई परेशानी होती, तो बजाय लालकृष्ण आडवाणी के या किसी और भाजपा नेता के, वो नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री पद के ऊपर बैठाना ज्यादा श्रेयस्कर समझते. नीतीश कुमार का चेहरा, नीतीश कुमार की भाषा संघ और भारतीय जनता पार्टी को नरेंद्र मोदी के लिए सबसे चुनौतीपूर्ण लग रही है. जनमानस के बीच या तो नीतीश कुमार का नाम है, जो 2019 के लिए केंद्र के उम्मीदवार हो सकते हैं या फिर दूसरा नाम प्रियंका गांधी का है. इसीलिए भारतीय जनता पार्टी नीतीश कुमार की साख खत्म भी करना चाहती है, वो चाहे उन्हें अपने साथ लाकर या उन्हें अपने से दूर रखकर.
जब नीतीश कुमार और भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से बिहार में सरकार चल रही थी, तब भारतीय जनता पार्टी से बात करने का नीतीश कुमार का सबसे सशक्त माध्यम सुशील मोदी थे. सुशील मोदी का व्यक्तित्व भी सौम्य और मुलायम रहा है. उन्होंने भारतीय जनता पार्टी का प्रतिनिधि होते हुए नीतीश कुमार को सरकार चलाने में कभी कोई परेशानी होने नहीं दिया. जब भी नीतीश कुमार के कदम को लेकर भारतीय जनता पार्टी के बीच से सवाल उठे, सुशील मोदी ने उसे वहीं रोक दिया. आज सुशील मोदी पूरी ताकत से इसके लिए दिन-रात कोशिशें कर रहे हैं कि नीतीश कुमार को लालू यादव से अलग कर, अपना पुराना गठजोड़ सत्ता में कैसे आए.
लालू यादव और उनके परिवार के प्रति सुशील मोदी का महाअभियान चल रहा है, जिसमें वो किसी भी प्रकार लोगों की नजरों में लालू यादव और उनके परिवार की साख समाप्त करना चाहते हैं. उनके पास जो कागज आ रहे हैं, दस्तावेज आ रहे हैं, उन्हें लेकर राजनीतिक क्षेत्रों में वे सफलता पूर्वक अफवाह फैला रहे हैं कि इन कागजों को उनके पास नीतीश कुमार के सहयोगी ही भेज रहे हैं.
दरअसल, भारतीय जनता पार्टी इन सबको अच्छी तरह समझ चुकी है कि देश में जिस तरह की आर्थिक नीतियां हैं या जिस तरह सरकार अपने किए हुए वादों से दूर होती जा रही है, साथ ही जैसे-जैसे सोशल मीडिया पर वो सारे वीडियो सामने आते जा रहे हैं, जिनमें स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जीएसटी का, पाकिस्तान का और सीमा पर कमजोरी का हवाला देते हुए कांग्रेस के ऊपर हमला कर रहे हैं, उससे नरेंद्र मोदी के लिए 2019 की लड़ाई बहुत आसान नहीं होगी.
भारतीय जनता पार्टी ये भी अच्छी तरह समझ रही है कि नौकरियों में कमी, महंगाई में बढ़ोतरी, व्यापार में मंदी और उनके सबसे सशक्त समर्थक वर्ग, व्यापारियों में उनके प्रति गुस्सा उन्हें 2019 के लिए परेशानी में डाल सकता है. 2019 का चुनाव जीतने के लिए भारतीय जनता पार्टी के पास सबसे अच्छा और आसान रास्ता है कि किसी भी तरह नीतीश कुमार को अपने साथ लेकर आएं. उन्हें इसमें कोई मुश्किल नहीं दिखाई दे रही है, क्योंकि उन्हें मालूम है कि नीतीश कुमार को विपक्ष का एकमात्र नेता बनने में न केवल परेशानी होगी, बल्कि भीतरघात का सामना भी करना पड़ेगा. कांग्रेस पार्टी हो या सारी क्षेत्रीय पार्टियां हों, जिनमें समाजवादी पार्टी, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी या फिर नवीन पटनायक, इनमें से कोई भी नीतीश कुमार को सर्वमान्य नेता बनाने में आसानी से स्वीकृती नहीं देंगे.
कांग्रेस पार्टी नीतीश कुमार का समर्थन कभी नहीं करेगी, क्योंकि समर्थन करते ही राहुल गांधी का भविष्य शून्य हो जाएगा. राहुल गांधी की साख देश में नहीं बन पाई, उनकी पार्टी चुनाव हारती जा रही है. विपक्ष को एक करने का कोई तरीका कांग्रेस पार्टी के पास है नहीं और विपक्ष का कोई भी नेता राहुल गांधी से बात करना नहीं चाहता. वे सोनिया गांधी से बात करना चाहते हैं.
सोनिया गांधी भी इस चीज को अच्छी तरह समझ रही हैं, इसलिए राहुल गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने की जी जान से कोशिश कर रही हैं, ताकि अगर किसी को बात करनी हो, तो वे राहुल गांधी से बात करें. राहुल गांधी की परेशानी ये है कि वे विचार के नाम पर, संघर्ष के नाम पर और लोगों के प्रति अपनी संवेदना दिखाने के नाम पर बहुत सफल नहीं हो पा रहे हैं. कांग्रेस पार्टी का जिस तरह का संगठन है, उसमें सिर्फ और सिर्फ सोनिया गांधी की चलेगी और सोनिया गांधी सिर्फ और सिर्फ राहुल गांधी को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहती हैं. सोनिया गांधी को या राहुल गांधी को जिस तरह विपक्ष के नेताओं से संपर्क रखना चाहिए, वो संभावना स्वयं कांग्रेस पार्टी इसलिए मिटा रही है, क्योंकि वो अभी भी इस भ्रम से नहीं उभरी है कि वो सत्ता में नहीं है.
दूसरी तरफ, कांग्रेस पार्टी का ये मानना है कि 2019 में अगर भारतीय जनता पार्टी से लोगों का मोहभंग होता है, तो उनके सामने सिवाय कांग्रेस पार्टी को वोट देने के और कोई चारा नहीं बचेगा. कांग्रेस के अलावा बाकी जितनी भी पार्टियां हैं, वो सारी क्षेत्रीय पार्टियां हैं और उनका प्रभाव सिर्फ और सिर्फ अपने प्रदेश में है. ये दूसरी बात है कि कांग्रेस भी अब एक बड़ी क्षेत्रीय पार्टी के रूप में परिवर्तित हो चुकी है. इसलिए उसकी भाषा, उसका व्यवहार, उसके सम्पर्क करने का तरीका एक तरफ क्षेत्रीय पार्टियों जैसा हो गया है और दूसरी तरफ वो क्षेत्रीय पार्टियों के किसी भी नेता की संभावना को समाप्त करने की रणनीति पर लगातार चल रही है.
नीतीश कुमार राहुल गांधी के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने खड़े हैं. इसलिए कांग्रेस पार्टी नीतीश कुमार को विपक्ष के नेता के रूप में प्रोजेक्ट नहीं कर रही है. विडंबना है कि कांग्रेस पार्टी न खुद आगे बढ़ रही है, न समस्याओं के ऊपर जनता को संगठित कर रही है. कांग्रेस अपने कार्यकर्ताओं की उस मांग पर भी ध्यान नहीं दे रही है कि प्रियंका गांधी को कांग्रेस की कमान सौंपी जाए और न ही नीतीश कुमार के नेतृत्व में खुद को लाने की सोच को बढ़ावा दे रही है. कांग्रेस में विचार के स्तर पर और रणनीति के स्तर पर कोई ऐसा समूह नहीं है, जो सोनिया गांधी को या राहुल गांधी को राय दे सके. बस एक धारा है, जो सिकुड़ रही है, सिमट रही है, लेकिन चल रही है.
अखिलेश यादव के दिमाग में उनके साथियों ने ये बैठा दिया है कि उत्तर प्रदेश का होने के नाते वे अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जो विपक्ष के सामूहिक नेतृत्व का भार संभाल सकते हैं. बीच में अखिलेश यादव ने मायावती से मिलने के संकेत दिए, ममता बनर्जी जी से मुलाकात की, विपक्ष के कुछ नेताओं से बात भी की. लेकिन अखिलेश यादव के लिए भी नेतृत्व का पद अभी दूर है, पर ये विपक्षी नेताओं का सोचना है, स्वयं अखिलेश यादव किसी भी कीमत पर न नीतीश कुमार को नेता मानेंगे, न ममता बनर्जी को नेता मानेंगे. 2019 में वे मायावती जी के साथ इस आधार पर समझौता कर सकते हैं कि मायावती जी दिल्ली की राजनीति करें, वे उन्हें उनके ज्यादा उम्मीदवारों को लोकसभा के लिए समर्थन दें और बदले में मायावती जी विधानसभा में अखिलेश यादव का समर्थन करें. अब राजनीति का सबसे बड़ा पेच यही है कि मायावती दिल्ली जाना नहीं चाहतीं, वे चाहती हैं कि अखिलेश दिल्ली की राजनीति करें और वे स्वयं उत्तर प्रदेश की राजनीति में बनी रहें.
कुल मिलाकर नीतीश कुमार दोनों के लिए परेशानी का कारण बने हुए हैं. ये परेशानी अभी समाप्त होती नहीं दिखाई देती. भारतीय जनता पार्टी में नहीं, लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बीच दस दिन पहले एक विचार विमर्श हुआ. उस विचार विमर्श में ये प्रस्ताव सामने आया कि नीतीश कुमार को तैयार किया जाए कि वे देश की राजनीति में आएं और उपप्रधानमंत्री पद का जिम्मा संभालें. संघ का मानना है कि अगर नीतीश कुमार देश के उपप्रधानमंत्री बनते हैं, तब नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के सारे कांटे स्वयं साफ हो जाएंगे. संघ चाहता है कि नीतीश कुमार को ये आश्वासन दिया जाए कि बिहार में उनके सारे समर्थकों को लोकसभा के लिए टिकट दिए जाएंगे. नीतीश कुमार अगर अपनी पार्टी को बनाए रखने का निर्णय लेते हैं तब भी और नीतीश कुमार अगर भारतीय जनता पार्टी में जाते हैं तब भी.
अगर नीतीश कुमार चाहें, तो उत्तर भारत में जहां-जहां उनके प्रमुख समर्थक हैं, वो जगह उन्हें देने में भी संघ को कोई परेशानी नजर नहीं आती. स्वयं संघ प्रमुख मोहन भागवत के मन में नीतीश कुमार को लेकर एक सॉफ्ट कॉर्नर है. एक कोना ऐसा है, जिसमें वो नीतीश कुमार को देश के लिए अच्छा व्यक्ति मानते हैं. नीतीश कुमार की शराबबंदी की नीति का मुकाबला संघ शराबबंदी करके ही जीतना चाहता है, मुकाबला करना चाहता है. संघ ये मानता है कि प्रमुख राज्यों में 2019 के चुनाव से पहले अगर वो शराबबंदी की घोषणा करवा दे, तो नीतीश कुमार के हाथ से शराबबंदी का मुद्दा छीन सकता है, जिसका समर्थन बड़े पैमाने पर महिलाओं ने किया है. इसे देखते हुए संघ चाहता है कि देश के विकास का वास्ता देकर नीतीश कुमार को उपप्रधानमंत्री बनाया जाए.
नीतीश कुमार के रास्ते में तीसरी सबसे बड़ी बाधा देश के पूंजीपति हैं. उन्हें लगता है कि नीतीश कुमार अर्थव्यवस्था को और देश के उद्योगपतियों के रोल को उतना नहीं समझते. जिस तरह अब तक नीतीश कुमार ने देश के उद्योगपतियों को बिहार निवास में घुसने की अनुमती नहीं दी, अगर वे देश के प्रधानमंत्री बने, तो आर्थिक नीतियों में भी परिवर्तन करेंगे. देश के उद्योगपतियों का जैसा वर्चस्व भारत के सत्ता केंद्र पर बना रहता है,
शायद उसे भी वे न मानें. इसलिए भारत के बड़े उद्योगपति नीतीश कुमार को बहुत शंका की दृष्टि से देख रहे हैं. बड़े उद्योगपति, जिनमें मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी, अडानी और बिड़ला शामिल हैं, ये सब अफवाहें फैलाते हैं कि नीतीश कुमार को जब आर्थिक रूप से कोई आवश्यकता होती है, तो ये मदद देते हैं. लेकिन देश के उन लोगों को, जो इस तरह की गतिविधियों पर नजर रखते हैं, उन्हें पता है कि नीतीश कुमार के पास पूंजीपतियों का कोई पैसा नहीं जाता और न कोई पूंजीपति उनके इतने नजदीक है. नीतीश कुमार के अपने दरबार में कुछ लोग हैं, जो बहुत छोटे स्तर पर भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं से रिश्ता रखते हैं.
यद्यपि ये दूसरी बात है कि नीतीश कुमार के स्वयं के रिश्ते भारतीय जनता पार्टी के सबसे प्रमुख कुटनीतिज्ञ अरुण जेटली से हैं. दोनों हमउम्र हैं, बिहार आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभा चुके हैं और अरुण जेटली व्यक्तिगत रूप से नीतीश कुमार की बहुत इज्जत करते हैं. जब सरकार थी तब भारतीय जनता पार्टी के नेता के नाते नहीं, बल्कि नीतीश कुमार के मित्र के नाते अरुण जेटली ने उस समय के बिहार के गठबंधन को चलाने में बहुत महत्वपूर्ण रोल अदा किया था. लेकिन देश का उद्योग जगत नीतीश कुमार को देश के लिए बहुत सही व्यक्ति नहीं मानता.
विदेशी ताकतें, जो भारत की राजनीति को प्रभावित करती हैं, जिनमें अमेरिका हो या चीन हो, ये दोनों ही नीतीश कुमार को अपने हितों के अनुकूल नहीं मानते. इन दोनों महाशक्तियों के ऐसे लोग, जो भारत की राजनीति का न केवल विश्लेषण करते हैं, बल्कि इसे नियंत्रित करने में सहायक लोगों की तलाश में लगे रहते हैं, उनका मानना है कि नीतीश कुमार का अहम इन महाशक्तियों को भारत की राजनीति पर हावी होने देने में एक अवरोध का काम करेगा. नीतीश कुमार उनके लिए उस तरह का हथियार नहीं बन सकते, जिस तरह का हथियार अभी तक भारत के शीर्ष पर बैठे लोग बनते चले आए हैं.
निश्चित तौर पर नीतीश कुमार चुनौती पेश कर सकते हैं. फिर भी उनके दोस्तनुमा दुश्मन इस बात को लेकर परेशान नहीं हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि नीतीश कुमार में इतनी हिम्मत नहीं है कि वे देश में घूमकर भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के लिए चुनौती बन सकें. नीतीश कुमार के सामने देश में सभाएं करने के कई अवसर आए, कई प्रदेशों की जनता की तरफ से कई प्रस्ताव आए, लेकिन वे कहीं गए नहीं. इसलिए एक तरफ भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को और दूसरी तरफ कांग्रेस के नेताओं को ये लगता है कि नीतीश कुमार सिर्फ बिहार में रहकर सत्ता में रहना चाहते हैं. दिल्ली की गद्दी उन्हें आकर्षित नहीं करती, इसलिए वे निश्ंिचत हैं.
नीतीश कुमार की एक बड़ी कमजोरी उनकी अपनी पार्टी में ऐसे लोगों का अभाव है, जो उन्हें देश के फलक पर स्थापित कर सकें. नीतीश के पास राष्ट्रीय स्तर पर दो-तीन या चार लोगों के अलावा कोई ऐसे लोग नहीं हैं, जो उन्हें जानकारी दे सकें और संपर्क भी रख सकें. हो सकता है नीतीश कुमार इसलिए भी बिहार से बाहर न निकलना चाहते हों. लेकिन वे ऐसे लोगों की तलाश भी नहीं करना चाहते. कांग्रेस के लोग और भारतीय जनता पार्टी के लोग अभी ये नहीं समझ पा रहे हैं ये कि ये नीतीश कुमार की रणनीति है या उनकी कमजोरी है या वे राजनीतिक रूप से महत्वाकांक्षाएं खो चुके हैं.
हालांकि आज की राजनीति में नीतीश कुमार अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जिनमें संभावनाएं भी हैं, संभावनाएं पूरी करने की क्षमता भी है, लेकिन संभावनाओं की हत्या करने में भी वे उतने ही कुशल हैं. देश के हालात, कश्मीर नीति, विदेश नीति, रक्षा नीति, गृह नीति, उद्योग नीति या देश के किसानों और नौजवानों के हालात को लेकर नीतीश कुमार के बयान अब तक लोगों के सामने प्रमुखता से नहीं आए हैं. इसलिए देश के लोगों को भी एक भ्रम है कि इन सवालों पर नीतीश कुमार क्या सोचते हैं. लेकिन उनका ये सोच तो तब सामने आए, जब वे इन सवालों के ऊपर देश में घूमें और अपनी राय रखें. नीतीश कुमार ये नहीं कर रहे हैं. यही सबसे बड़ा सवाल भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पार्टी के सामने भी है कि वे ऐसा क्यों नहीं कर रहे हैं.

संतोष भारतीय

संतोष भारतीय चौथी दुनिया (हिंदी का पहला साप्ताहिक अख़बार) के प्रमुख संपादक हैं. संतोष भारतीय भारत के शीर्ष दस पत्रकारों में गिने जाते हैं. वह एक चिंतनशील संपादक हैं, जो बदलाव में यक़ीन रखते हैं. 1986 में जब उन्होंने चौथी दुनिया की शुरुआत की थी, तब उन्होंने खोजी पत्रकारिता को पूरी तरह से नए मायने दिए थे.

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