रिजवान चंचल, लखनऊ
उत्तर प्रदेश शासन द्वारा घोषित अतिसंवेदनशील चौधरी चरण सिंह मंडलीय कारागार, मेरठ के डिप्टी जेलर नरेंद्र द्विवेदी की बदमाशों द्वारा गोली मारकर की गई हत्या को अभी लोग भूल भी नही पाये थे कि मेरठ जेल में तैनात डाक्टर की गोली मारकर हत्या कर दी गयी. इस घटना ने एक बार फिर जेलों में फैले जंगलराज का व शासन की अनदेखी से हो रही जेल अफसरों पर लगातार होती वारदात का खुला सबूत पेश कर दिया है।
जेल अपराधियों के लिये सुरक्षित आरामगाहें बन चुकी है. समय-समय पर ऐसी खबरें भी मीडिया देता रहता हैं, जेलों की दशा ठीक नहीं है इस पर पहले भी लिखा जा चुका है। भ्रष्टाचार के चलते जेलों में शासन-प्रशासन के अलाधिकारी जेलों का निरीक्षण भी करते रहे और ढेरों अनियमिततायें भी उजागर हुईं। परंतु सुधार के नाम पर कुछ नहीं हुआ। जेलों के ही उन गिने-चुने भ्रष्ट अधिकारी और कर्मचारियों की वजह से जो पैसे की अपनी भूख मिटाने के लिए अपना दीन-ईमान सब बेच देते है तथा रक्षक से भक्षक बनने में भी जिन्हे जरा सी शर्म नहीं आती ऐसे ही हैवानों की वजह से जेल के डाक्टर हरपाल सिंह एवं जेलर भारत भूषण जैसों न जाने कितनों की जान पर बन आती है। जेल डाक्टर हरपाल के साथ वारदात एडीजी एनसीआर के आवास से चंद कदमों की दूरी पर हुई श्री सिंह का आवास जेल कैंपस में ही है। रात साढ़े नौ बजे वे खाना खाने के बाद जेल के बाहर जब वे सड़क पर टहल रहे थे उसी दौरान बदमाशों ने उन पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसा कर ढेर कर दिया उन्हे मेडिकल ले जाया गया, जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया। पुलिस को मौके से 32 बोर के तीन खोखे और एक बुलेट भी मिला घटना की जानकारी मिलते ही एडीजी गुरुवचन लाल, आईजी रजनीकांत मिश्रा, डीआईजी जेएन सिंह मौके पर डीएम सुभाष चंद शर्मा भी पहुंचे. सवाल यह उठता है कि इस तरह की घटनाओं को बदमाश अंजाम देने में सफल क्यों हो जाते है बार-बार।
बताते चलें कि अकेले उत्तर प्रदेष में ही बीते दषक में दर्जनों अधिकारी मारे जा चुके हैं । 08-02-2001 को विष्णु सिंह, बंदीरक्षक, जिला कारागार ललितपुर , 04-08-2003 को दीप सागर, जेलर, जिला कारागार आजमगढ़, 09-05-2003 को रामनारायण राम, बंदीरक्षक, जिला कारागार आजमगढ़, 01-10-2006 को रामेश्वर दयाल, बंदीरक्षक, जिला कारागार गाजियाबाद,25-06-2007 को चन्द्रभान सिंह, बंदीरक्षक, जिला कारागार सुलतानपुर, 25-06-2007 कोबृजमणि दुबे, बंदीरक्षक, जिला कारागार सुलतानपुर,07-08-2007 को नरेंद्र द्विवेदी, डिप्टी जेलर, जिला कारागार मेरठ, 08-02-2011 को हरनाम सिंह, जेल चिकित्सक जिला जेल मेरठ हत्या के शिकार , राजस्थान की जेलों का तो और भी बुरा हाल है याद होगा बीते सालों अजमेर सेट्रल जेल में बंद खतरनाक टाडा बंदियों सहित अन्य कैदियों के पास से 26 मोबाइल फोन, 14 सिम कार्ड 7 चार्जर तक बरामद हुए थे। चरस, गांजा तो पुरानी बातें हो गई हैं, अब तो कमोबेश हर जेल में कैदी को अपनी मनपसंद की चीजें मिलने लगी हैं। खाना, कपडा, सिगरेट, सुरा-सुन्दरी, मोबाइल और फिल्में तक। वे वहीं बैठे-बैठे साजिश रचते हैं। कई तो जेल से ही बडे-बडे अपराधों को भी अंजाम देते हैं। जयपुर सेंट्रल जेल के जेलर चन्द्रप्रकाश गोठवाल पर ऐसी ही साजिश में सडक चलते हमला हुआ था उस समय तो वह बच गए थे लेकिन बाद में उसी सदमे ने उनकी जान ले ली। लोगों की धारणा अभी भी यह है कि जेलें अपराधियों की आराम गाहें बन चुकी हैं बताया तो यहां तक जाता है कि बड़े अपराधियों को जब भी आराम फरमाना होता है, वो जेल चले जाते हैं। जेल विभाग, शासन-प्रशासन के उच्चाधिकारियों के आकस्मिक निरीक्षण परीक्षण से यदि जेलों की दशा सुधर सकती तो यह बहुत पहले हो चुका होता। आज शायद हमारे शासन-प्रशासन के आलाधिकारियों को इसका ज्ञान नहीं है, या फिर यूं कहें कि वे जानबूझ कर भी अनजान है तात्पर्य यह कि जेलों की दशा तभी सुधर सकती है, जब जेलों में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोका जा सके। जेलों में व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते ही जेलों में अपराधियों की पौ-बारह है। भ्रष्टाचार का आलम तो यह है कि जेल में अपराधियों को फाईवस्टार होटल जैसी सारी सुबिधायें भी उपलब्द्द हो जाती हैं। बड़े अपराधी बाकायदे अपने गिरोहों का संचालन भी जेल के अन्दर से ही करते रहते हैं और जेल प्रशासन भ्रष्टाचार के चलते मौनव्रत धारण कर मस्त रहता है।
जेलों की इस हालत के लिए सरकारी अव्यवस्थाओं के साथ-साथ खुद जेलों के अघिकारी -कर्मचारी भी कम दोषी नहीं हैं। क्या जेल में बंद कैदी के पास सिगरेट, शराब, मोबाइल और हथियार आसमान से टपकते हैं! यदि नहीं तो फिर इन्हें उन तक कौन और कैसे पहुंचाता है! जाहिर है यह सब जेलों के ही उन गिने-चुने भ्रष्ट अघिकारी और कर्मचारियों की वजह से होता है जो पैसे की अपनी भूख मिटाने के लिए अपना दीन-ईमान सब बेच देते हैं। उन्हें रक्षक से भक्षक बनने में जरा भी शर्म नहीं आती। ऐसे ही हैवानों की वजह से डा0 हरिपाल जैसों की जान पर बन आती है।
कुछ साल पहले ही मेरठ जेल में एक लंबी सुरंग खोदे जाने की चर्चा जोरों पर थी। शासन-प्रशासन के आलाधिकारी सिर खपाते रहे कि यह कैसे संभव हुआ। मामले और भी हैं जिनसे जेलों की दशा का एहसास हो जाता है। सन् 1990 में लखनऊ जेल में मटरू नामक बन्दी की हत्या हुई। वाराणसी जेल में तो कई हत्यायें हो चुकी हैं। सन् 2003 में सपा के सभासद वंशी यादव की हत्या और 2005 में अन्नू और मंगल प्रजापति की हत्यायें हुईं। मेरठ जेल में भी दो बन्दियों की हत्यायें हो चुकी हैं लखनऊ जेल अस्पताल बैरक में बन्दी ओम प्रकाश की हत्या हुई। यही नही राजधानी लखनऊ कृष्णानगर थाने की हवालात में ही विमलेश नामक मानसिक विक्षिप्त व्यक्ति ने राहुल नामक एक युवक को पीट-पीट कर मार डाला था जब कि उसे ही एक अन्य की फावड़ा मारकर हत्या करने के जुर्म में हवालात में रखा गया था। यहां भी पुलिस की लापरवाही ही उजागर हुई थीं। कमोबेस यही लापरवाही और अव्यवस्था के आलम के चलते ही जेल में ओमप्रकाश नामक युवक की भी हत्या हुई थी। उपरोक्त तमाम घटनायें जेल प्रशासन की घोर लापरवाही को क्या उजागर नही करतीं ? ऐसा भी नहीं कि लखनऊ जिला जेल में ही ऐसी अव्यवस्था है कई राज्यों खासकर बिहार, उ0प्र0, राजस्थान जैसे राज्यों की लगभग सभी जेलों में यही आलम है जिसके चलते समय-समय पर अनहोनियां होती रहती हैं। जेल प्रशासन कुछ समय सतर्कर्ता बरतने का ढिढोरा पीटता है और कुछ दिन बीतते ही फिर सब वैसा ही चलने लगता है जैसे कुछ हुआ ही न हो। कुल मिलाकर तमाम धटनाओं के बावजूद जेल प्रशासन गंभीर नहीं है और निकट भविष्य में फिर यदि कोई ऐसी घटना हो जाये तो इसमें आश्चर्य क्या?
तस्वीर का एक रुख इससे इतर भी है। बावजूद इसके कि जेल प्रशासन अपने दायित्वों का निर्वाह पूर्ण निष्ठा से नहीं कर रहा है, परंतु सीमित संसाधनों में एक से एक खतरनाक विचाराधीन बन्दियों को जैसे-तैसे नियंत्रित तो कर ही रहा है। बढ़ते अपराधों के कारण आरोपितों की जेल में लगातार बढ़ती संख्या भी कुछ न कुछ तो समस्या पैदा करती ही है। अब किसी भी घटना का सारा का सारा ठींकरा जेल प्रशासन के सिर फोड़ देना भी न्यायोचित नहीं है। जेलकर्मियों की भी अपनी कुछ सीमाएं होती हैं। इन सीमाओं के चलते ही पूर्वांचल के एक विधायक माफिया को कुछ जेलों ने अपने यहां रखने तक से असमर्थता जता दी थी। जेल परिसरों में समस्यायें कम नहीं हैं। जघन्य अपराधियों, बड़े माफियाओं और आतंकियों तक से सामना करना पड़ता है। जेलों के ऐसे हालात पर राज्यों के जेल राज्य मंत्रियों को भी शर्म आनी चाहिए। जनता ने उन्हें यह कुर्सी मात्र सुख भोगने के लिए नहीं, जेलों की दशा सुधारने के लिए दी है। सबसे पहले उन्हें राज्य की जेलों और उनके अघिकारी-कर्मचारियों को साधन, सुविधा, सुरक्षा और हथियार देने चाहिए जिनकी उनसे दरकार है। पचासों साल पुराना जेल मैन्युअल भी बदला जाना चाहिए। आज जब जेलों में हाईटेक अपराधी पहुंच रहे हैं, अत्याधुनिक हथियार पहुच रहे हैं तब उनके बीच खाली हाथ जाने की पाबंदी की प्रासंगिकता क्या है? यदि जेलों के हालात सुधारने हैं और उन्हें अपराघियों की ऐशगाह बनने से रोकना है तो अभी भी समय है। सरकार को बिना समय गंवाएं इन राज्यों की तमाम जेलों पर एक साथ छापे मारने चाहिए। छापे भी जेल कर्मचारियों से नहीं सीबीआइ या एसओजी की टीम से डलवाने चाहिए।
बिल्कुल आयकर छापों की तरह छिटपुट अथवा कभी यहां कभी वहां नहीं। सब जगह एक साथ और एकाएक। फिर जिस जेल में गड़बड़ मिले उसके अघिकारी-कर्मचारियों को सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए। सजा भी ऐसी मिलनी चाहिए जो औरों के लिए नजीर बने। समाज को भी ऐसे भ्रष्ट लोगों को सार्वजनिक रूप से बेइज्जत और बहिसकृत करना चाहिए। क्योंकि सुधार करना अकेले सरकार का जिम्मा नहीं है, समाज को भी उससे जुड़ना चाहिए। जेल, जेल हैं आरामगाह नहीं। मानवाघिकारों के नाम पर अपराघियों को वहां बैठकर आम जनता का सुख-चौन छीनने की छूट तो कतई नहीं दी जानी चाहिए।
Monday, March 21, 2011
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