Friday, December 21, 2012

कोऊ हो नृप हमें का हानी


लिमटी खरे
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यह भाजपा है जो अपने एक सूबाई कार्यकर्ता को अपना देश का अध्यक्ष बना देती है। एक प्रदेश के निजाम को तीसरी फतह हासिल करने पर देश का प्रधानमंत्री बनाने की बात कह देती है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस में वंशवाद और सामंतीराज का यह आलम है कि दिल्ली की निजाम श्रीमति शीला दीक्षित जो तीन बार दिल्ली पर फतह हासिल कर चुकी हैं, को प्रधानमंत्री तो दूर देश का गृह मंत्री बनाने की बात भी नहीं करती! नरेंद्र मोदी की जीत ने वाकई अनेक नेताओं को हिलाकर रख दिया है। मोदी से भयाक्रांत दिखने वाले नेताओं में कांग्रेस और अन्य दलों से ज्यादा भाजपा के नेताओं का शुमार है क्योंकि नरेंद्र मोदी की तेजी से बढती लोकप्रियता ने अनेक नेताओं को आईना दिखा दिया है। अब नरेंद्र मोदी के कद काठ का एक ही नेता है भाजपा के पास जो उन्हें टक्कर दे सकता है, सिर्फ और सिर्फ शिवराज सिंह चौहान! या तो शिवराज को भाजपा अभी ही केंद्र में ले जाएगी या फिर 2013 की पारी जीतने पर उन्हें 2014 के आम चुनावों में मोदी के समकक्ष खड़ा कर दिया जाएगा।

कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में वैचारिक ही नहीं अनेक असमानताएं विद्यमान हैं। कांग्रेस का गठन जब किया गया था तब उसका उद्देश्य पवित्र और पावन हो सकता था, किन्तु आजादी के उपरांत कांग्रेस ने देश पर आधी सदी से ज्यादा राज किया फिर भी देश के बजाए कांग्रेस के नेताओं का आत्मनिर्भर होना इस बात का घोतक है कि आजादी के उपरांत कांग्रेस के नेताओं ने देश के बजाए स्वहित को ही प्राथमिकता के लिए आधार बनाया।

कांग्रेस को छोड़कर कमोबेश हरेक राजनैतिक दल में किसी परिवार विशेष का स्वामित्व नहीं रहा है। आजादी के उपरांत कांग्रेस को नेहरू गांधी परिवार का प्राईवेट लिमिटेड अघोषित तौर पर स्वीकार कर लिया गया है। अमूमन यही माना जाता है कि कांग्रेस में कार्यकर्ता, यानी पार्टी का झंडा डंडा उठाने वाले, बोरा फट्टी बटोरने वालों का काम वही था और रहेगा। कांग्रेस में वही उच्च स्थान या दूसरी पंक्ति के उपरांत तीसरी चौथी पंक्ति (पहली यानी अग्रिम पंक्ति तो नेहरू गांधी परिवार के लिए आरक्षित है) उसी को मिलती है जिस पर राजपरिवार (नेहरू गांधी परिवार) का वरद हस्त होता है।

कांग्रेस में दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमति शीला दीक्षित का उदहारण सबसे अच्छा है कि वे तीन बार लगातार दिल्ली में अपना ताज बचाने में कामयाब रही हैं। श्रीमति शीला दीक्षित महिला हैं, कुशल प्रशासक हैं, राजनैतिक समझ बूझ अच्छी है, फिर भी कांग्रेस के अंदर केंद्रीय स्तर पर उनकी स्वीकार्यता नहीं है। हो भी कैसे सकती है? कांग्रेस में नेहरू गांधी परिवार की इतालवी बहू श्रीमति सोनिया गांधी जो सर्वोच्च पद पर आसीन हैं। अगर श्रीमति शीला दीक्षित को तवज्जो देना आरंभ कर दिया गया तो फिर लोग सोनिया से शीला की तुलना करने लगेंगे और निस्संदेह शीला दीक्षित कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी के समक्ष बीस ही साबित होंगीं।

वहीं दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी में महाराष्ट्र सूबे के अपेक्षाकृत कम चर्चित चेहरे नितिन गड़करी के हाथों भाजपा की देश की कमान सौंप दी जाती है। वहीं दूसरी ओर गुजरात में तीसरी मर्तबा परचम फहराने वाले नरेंद्र मोदी को भाजपा का अगला प्रधानमंत्री के बतौर दमकता चेहरा भी मीडिया में निरूपित करने पर किसी को आपत्ति नहीं होती है।

मीडिया की इतनी जुर्रत नहीं कि वह इस बात को रेखांकित कर दे कि नरेंद्र मोदी तो तीसरी पारी आरंभ ही कर रहे हैं उधर, श्रीमति शीला दीक्षित की तो तीसरी पारी समाप्ति की ओर है। शीला दीक्षित 1998 से लगातार मुख्यमंत्री हैं। मीडिया भी कांग्रेस के आलंबरदारों के घरों की लौंडी बन चुका है। सोनिया गांधी या राहुल गांधी की मुखालफत करने वाले अखबारों पर अनेक तरह की बंदिशें लगना स्वाभाविक ही है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधीन आने वाले डीएवीपी के द्वारा जारी होने वाले अरबों खरबों रूपए के विज्ञापनों में कटौती के डर से मीडिया भी 10, जनपथ (श्रीमति सोनिया गांधी का आवास) से पंगा लेने से घबराता ही नजर आता है।

वैसे नरेंद्र मोदी की धमाकेदार जीत के बाद उनका 7, रेसकोर्स रोड (भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री का सरकारी आवास) पर कब्जे की बातों का फिजां में तैरना भारत गणराज्य के इतिहास में अहम ही माना जाएगा। प्रधानमंत्री बनने के पहले मुख्यमंत्री रहने वाले दो उदहारण हमारे सामने हैं एक थे विश्वनाथ प्रताप सिंह और दूसरे एच.डी.देवगौड़ा, किन्तु दोनों का सीएम से पीएम तक के सफर में मुख्यमंत्री रहने का सीधा सीधा कोई ताल्लुक नहीं रहा है।

उधर, नरेंद्र मोदी ने खुद कभी यह दावा नहीं किया है कि वे प्रधानमंत्री बनना चाह रहे हैं। यह तो स्थितियां परिस्थितियां हैं जो नरेंद्र मोदी को पीएम पद के लिए उनकी दावेदारी के मार्ग प्रशस्त कर रही हैं। दरअसल, अटल बिहारी बाजपेयी के उपरांत सत्ता में आए मनमोहन सिंह से देश की जनता का भरोसा टूट गया है। मन मोहन सिंह को देश की जनता वास्तव में प्रधानमंत्री कम सोनिया गांधी का पिट्ठू ज्यादा मानती है।

मनमोहन सिंह के सामने देश को कांग्रेस और उनके सहयोगी लूट रहे हैं। सोनिया गांधी के दमाद भ्रष्टाचार के मामले में आकंठ फंसे हैं। यह सब देखकर भी नैतिकता के आधार पर ही कोई कार्यवाही करने के बजाए मनमोहन सरकार उन्हें बचाने में अपनी सारी शक्ति झोंक रही है। मीडिया भले ही कांग्रेस का गुणगान कर रहा हो पर सोशल नेटवर्किंग वेब साईट्स द्वारा सच्चाई जनता के सामने लगातार लाई जा रही है जिससे जनता को अब कांग्रेस और उसकी केंद्र सरकार की हकीकत का पता चलने लगा है।

उधर, नरेंद्र मोदी के इस तरह के अभ्युदय से भाजपा के नेताओं की नींद में खलल पड़ना आरंभ हो गया है। भाजपा के आला नेता इस बात से चिंतित हो उठे हैं कि अगर मोदी का ग्राफ इसी तरह से बढता गया तो आने वाले समय में भाजपा में भी मोदी राज कायम हो जाएगा जो कम से कम दो तीन दशक तक तो हावी रहेगा ही। इसका कारण यह है कि गुजरात में पिछले दस सालों में विकास हुआ हो या ना हुआ हो पर मोदी पर भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लग पाए हैं। छुटपुट आरोपों की तो हर जगह गुंजाईश होती है पर मोदी भ्रष्ट हैं एसा कहने वालों की तादाद उंगलियांें में ही गिनी जा सकती है।

गुजरात चुनाव के आगाज के साथ ही साथ भाजपा के अंदर ही अंदर मोदी की काट की खोज भी आरंभ हो चुकी थी। आला नेता इस बात पर शोध कर रहे थे कि अगर मोदी धमाकेदार जीत दर्ज करते हैं तो केंद्र में उन्हें भाजपा संगठन में ही अंदर से टक्कर देने वाला कौन हो सकता है। इसके जवाब में दो ही चेहरे नेताओं के सामने उभरे, पहला था मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का तो दूसरा चेहरा था छत्तीसगढ़ के निजाम रमन सिंह का।

रमन सिंह और शिवराज सिंह दोनों में अनेक समानताएं हैं। दोनों ही जमीन से जुड़े नेता होने के साथ ही साथ सहज सुलभ उपलब्ध हैं। रमन सिह और शिवराज सिंह दोनों ही लो प्रोफाईल और बहुत ज्यादा महात्वाकांक्षी नहीं हैं। दोनों ही की प्रशासनिक पकड़ का कोई सानी नहीं है। दोनों ही दो बार के मुख्यमंत्री रह चुके हैं।

रमन सिंह और शिवराज सिंह में देखा जाए तो नरेंद्र मोदी को टक्कर देने में शिवराज सिंह चौहान का चेहरा आला नेताओं को काफी हद तक मुफीद दिख रहा है। संभवतः यही कारण है कि मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री बनने का सपना देखने वाले एमपी भाजपाध्यक्ष प्रभात झा को वहां से रूखसत कर उनके स्थान पर नरेंद्र तोमर की ताजपोशी कर दी गई है।

अब भाजपा के समक्ष नरेद्र मोदी को रोकने के दो ही विकल्प दिख रहे हैं, पहला तो यह कि शिवराज सिंह चौहान या रमन सिंह को तत्काल ही केंद्रीय राजनीति में ले जाया जाए और उनकी छवि नरेंद्र मोदी की छवि से तगड़ी बना दी जाए, या फिर इंतजार किया जाए 2013 का। अगले विधानसभा चुनाव में अगर रमन सिंह और शिवराज सिंह चौहान में से किसी ने भी चमत्कार कर दिखाया तो ये दोनों भी मोदी के कद के होकर खड़े हो जाएंगे। किन्तु उस समय तक मोदी जीत का जश्न मनाते हुए इन दोनों से कोसों दूर जा सकते हैं।

इधर, जनता जनार्दन के नजरिए से अगर देखा जाए तो गुजरात में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सुशासन है या कुशासन यह तो वहां की विपक्ष में मौन बैठी कांग्रेस बताए। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में जनता सुखी है या दुखी यह तो वहां विपक्ष में मौन बैठी कांग्रेस बताए, छत्तीसगढ़ में रमन सिंह के नेतृत्व में अमन चैन कायम है या नहीं यह तो विपक्ष में बैठी कांग्रेस बताए। यही नहीं देश में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार की सरपरस्ती में प्रजातंत्र है या हिटलरशाही यह बात तो विपक्ष में मौन बैठी भारतीय जनता पार्टी बताए। जनता जनार्दन तो महज इतना ही कह रही है कि कोऊ हो नृप (राजा) हमें का हानी।

बलात्कार से निजात कैसे?



बलात्कार से निजात कैसे?
 
 एक पुलिस का जवान कानून व्यवस्था का हिस्सा बनने के लिये पुलिस में भर्ती होता है, लेकिन पुलिस अधीक्षक उसे अपने घर पर अपनी और अपने परिवार की चाकरी में तैनात कर देता है। (जो अपने आप में आपराधिक न्यासभंग  का अपराध है और इसकी सजा उम्र कैद है) जहॉं उसे केवल घरेलु कार्य करने होते हैं-ऐसा नहीं है, बल्कि उसे अफसर की बीवी-बच्चियों के गन्दे कपड़े भी साफ करने होते हैं। क्या यह उस पुलिस कॉंस्टेबल के सम्मान का बलात्कार नहीं है?


डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
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देश की राजधानी में एक युवती के साथ चलती बस में बलात्कार की घटना की चर्चा सारे देश में हो रही है। संसद में हर दल की ओर से इस पर चिन्ता व्यक्त की गयी और बलात्कार के अपराधियों को नपुंसक बना देने की सजा का कानून बनाने के सुझाव दिए जा रहे हैं और 21 वीं सदी में इन आदिम सुझावों पर लगातार चर्चा और परिचर्चा आयोजित की जा रही है। हर कोई ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा अपने रुग्ण विचारों को जहाँ-तहां उंडेल रहा है। राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष भी हमेशा की भांति अनर्गल बयान दे रही हैं! सबसे बड़ा आश्चर्य तो ये है कि जिन्हें कानून, न्याय और अपराधशास्त्र का पहला अक्षर भी नहीं आता वो भी बलात्कार के अपराध को रोकने हेतु कानून बनाने के बारे में नये-नये सुझाव दे रहे हैं।


इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की कठोर सजा दी जानी चाहिये, लेकिन सजा तो घटना के घटित होने के बाद का कानूनी उपचार है। हम ऐसी व्यवस्था पर क्यों विचार नहीं करना चाहते, जिसमें बलात्कार हो ही नहीं। हमारे देश में केवल स्त्री के साथ ही बलात्कार नहीं होता है, बल्कि हर एक निरीह और मजबूर व्यक्ति के साथ हर दिन और हर पल कहीं न कहीं लगातार बलात्कार होता ही रहता है!


एक पुलिस का जवान कानून व्यवस्था का हिस्सा बनने के लिये पुलिस में भर्ती होता है, लेकिन पुलिस अधीक्षक उसे अपने घर पर अपनी और अपने परिवार की चाकरी में तैनात कर देता है। (जो अपने आप में आपराधिक न्यासभंग  का अपराध है और इसकी सजा उम्र कैद है) जहॉं उसे केवल घरेलु कार्य करने होते हैं-ऐसा नहीं है, बल्कि उसे अफसर की बीवी-बच्चियों के गन्दे कपड़े भी साफ करने होते हैं। क्या यह उस पुलिस कॉंस्टेबल के सम्मान का बलात्कार नहीं है?


जब एक व्यक्ति न्याय के मन्दिर (अदालत) में, सब जगह से निराश होकर न्याय पाने की आस लेकर जाता है तो उसे न्याय के मन्दिर में प्रवेश करने के लिये सबसे पहले वकीलों से मिलना होता है, जिनमें से कुछेक को छोड़कर अधिकतर ऐसे व्यक्ति के साथ निर्ममता और ह्रदयहीनता से पेश आते हैं। वे अपनी मनमानी फीस के अलावा कोर्ट के कागज बनवाने, नकल लेने, मुंशी के खर्चे और अदालत के बाबू को खुश करने आदि न जाने कितने बहानों से न्यायार्थी से हर पेशी पर मनमानी वसूली करते रहते हैं। जिसकी पूर्ति के लिये ऐसे मजबूर व्यक्ति को अपनी पत्नी के जेवर तक बेचने पड़ते हैं। अपने बच्चों को बिना सब्जी रूखी रोटी खिलाने को विवश होना पड़ता है। अनेक बार अपनी अचल सम्पत्ति भी गिरवी रखनी या बेचनी पड़ती है। (जिसके चलते ऐसा व्यक्ति उस श्रेणी के लोगों में शामिल हो जाता है जिनके साथ हर पल बलात्कार होता रहता है!) क्या यह सब न्यायिक बलात्कार नहीं है? आश्‍चर्य तो यह कि हाई कोर्ट में 67 प्रतिशत जज वकीलों में से ही सीधे जज नियुक्त किये जाते हैं, जो इस सारी गंदी और मनमानी कुव्यवस्था से अच्छी तरह से वाकिफ होते हैं, लेकिन इस कुचक्र और मनमानी कुव्यवस्था से देश के लोगों को निजात दिलाने के लिये कोई भी सार्थक पहल नहीं की जाती है!


जब एक बीमार उपचार के लिये डॉक्टर के पास जाता है तो वह अस्पताल में उसकी ओर ध्यान नहीं देता है। ऐसे में उसे डॉक्टर के घर मोटी फीस अदा करके दिखाने को विवश होना पड़ता है! केवल फीस से ही डॉक्टर का पेट नहीं भरता है, बल्कि अपनी अनुबन्धित लेबोरेटरी पर मरीज के अनेक टेस्ट करवाये जाते हैं और मंहगी कीमत वाली दवाएँ लिखी जाती हैं। जिनमें से डॉक्टर को प्रतिदिन घर बैठे मोटी राशि कमीशन में मिलती है। शरीर का इलाज कराते-कराते मरीज आर्थिक रूप से बीमार हो जाता है। क्या यह मरीजों का डॉक्टरों द्वारा हर दिन किया जाने वाला बलात्कार नहीं है?


ऐसे अनेकों और भी उदाहरण हैं। शिक्षक स्कूल में नहीं पढाते। पोषाहार को बेच दिया जाता है। आँगनवाड़ी केन्द्रों पर बच्चों की देखरेख करने के बजाय उन्हें कुछ घण्टे के लिये कैद करके रखा जाता है। कारागृहों में बन्द महिला कैदी गर्भवती हो जाती हैं। अस्पतालों में अनेक महिला नर्सों को न जाने कितनी बार डॉक्टरों के साथ सोना पड़ता है। दलित और आदिवासियों की स्त्रियों के साथ हजारों वर्षों से समर्थों द्वारा अधिकारपूर्वक यौन शोषण किया जाता रहा है। आज भी गरीब, निर्धन, निरक्षर, दलित, दमित और आदिवासी परिवार की लड़कियों और विवाहिता स्त्रियों को अपने जीवन में अनेकों बार समर्थों की कामवासना का शिकार होना ही पड़ता है। दलितों को  मंदिरों में प्रवेश नहीं करने दिया जाता है!


संविधान में प्रतबंधित होने के उपरांत भी ये सब लागातार होता रहा है, हो रहा है और होता रहेगा। इसे कठोर कानून बनाने मात्र से रोका नहीं जा सकता! हत्या करने पर फांसी की सजा भी हो सकती है, ये कानून है, फिर भी हर दिन हत्याएं हो रही हैं! ऐसे में कठोर कानून अकेला कुछ नहीं कर सकता है। इस बारे में तब ही कुछ सुधार हो सकता है, जबकि हम हमारी सम्पूर्ण व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन के लिये तैयार हों और कानून बनाने, लागू करने और सजा देने तक कि प्रक्रिया पर सच्ची और समर्पित निगरानी की व्यवस्था हो और सारी की सारी पुरातनपंथी परम्पराओं और प्रथाओं से देश को क्रमश: मुक्त करने की दिशा में कार्य किया जा सके।

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