Monday, July 4, 2011

कायर बनकर रहने की जरूरत नहीं

-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा
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कुछ समय पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने आत्मरक्षा के अधिकार से जुडे मामले में अपने निर्णय में कहा था कि कानून का पालन करने वाले लोगों को कायर बनकर रहने की जरूरत नहीं है, खासकर तब, जबकि आपके ऊपर गैरकानूनी तरीके से हमला किया जाए। प्रिण्ट मीडिया ने इसे कोर्ट का अति-न्यायिक सक्रियता दर्शाने वाला निर्णय भी करार दिया था। कमोबेस यह निर्णय देश के सभी समाचार-पत्रों में प्रकाशित और सभी चैनलों पर प्रसारित हो चुका है और इस निर्णय पर अनेक लेखकों ने अपने-अपने तरीके से अपने-अपने विचार भी व्यक्त किये हैं। लेकिन सभी ने सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को सीधे तौर पर जानलेवा हमला होने की स्थिति में आत्मरक्षा के अधिकार के रूप में ही उपयोगी माना, मैंने जितना पढा है, इससे अधिक किसी ने कुछ नहीं लिखा। जबकि मेरा मानना है कि जब देश की सबसे बडी अदालत यह मानती है कि कानून का पालन करने वाले लोगों को कानून का पालन करते समय कायर बने रहने की जरूरत नहीं है, तो इसके मायने सीमित नहीं होने चाहिये, क्योंकि कहीं न कहीं सुप्रीम कोर्ट इस मामले में प्रत्येक उस देशभक्त व्यक्ति का मार्गदर्शन करती प्रतीत हो रही है, जो कानून का पालन करते हुए, जुर्म करने वालों का विरोध करने का साहस जुटा पा रहा है, क्योंकि केवल उसी समय व्यक्ति को साहसी बनने की या कायर नहीं बने रहने की जरूरत नहीं होती, जबकि उस पर जान लेवा हमला होता है, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को उस समय भी कायर नहीं बने रहना चाहिये,

जबकि वह कानून का पालन करते हुए अपने कानूनी हकों को प्राप्त करना चाहता है और भ्रष्ट लोक सेवक (जो स्वयं को अधिकारी या कर्मचारी कहकर अपने आपको जनता के मालिक समझते हैं।) कानून का पालन करने वालों को दुत्कारते हैं, उत्पीडित करते हैं, अपमानित करते हैं और रिश्वत तक मांगते हैं।

सवाल यह उठाया जा सकता है कि ऐसे गैर-कानूनी कृत्य करने वाले लोगों द्वारा सीधे तौर पर तो जान लेवा हमला नहीं किया जाता है, लेकिन परोक्ष रूप से गहराई में जाकर देखें तो हम पायेंगे कि ऐसे अपराधियों के इस प्रकार के गैर-कानूनी कृत्यों से एक नहीं अनेक व्यक्ति और परिवार के परिवार प्रतिपल मरने को विवश हो जाते हैं। ऐसे में इन भ्रष्ट एवं क्रूर आतताईयों का विरोध नहीं करना भी तो सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार कायरता ही है।

जब सुप्रीम कोर्ट देश के कानून की व्याख्या करते हुए साफ-साफ कह चुका है कि कानून का पालन करने वालों को कायर बने रहने की जरूरत नहीं है और आत्मरक्षा में आक्रमण करने वाले को जान से मारने तक का कानून अधिकार देता है। यहाँ सवाल यह है कि गरीबों के राशन की कालाबाजारी करके राशन से वंचित करने का कुकृत्य क्या उस जरूरतमन्द व्यक्ति की हत्या करने के सदृश्य ही नहीं है, जिसे सरकार अन्न तक नहीं खरीद सकने योग्य घोषित करके सस्ती, बल्कि नाम-मात्र की 2 या 4 रुपये प्रतिकिलो की दर पर गैंहूँ उपलब्ध करवा रही है, ताकि एक परिवार जिन्दा रह सके।

जबकि राशन विके्रता ऐसे लोगों के राशन को भी कालाबाजारी करने से नहीं चूकता! जिसका साफ और सीधा-सीधा अर्थ है कि राशन बिक्रेता एक व्यक्ति को ही नहीं, एक परिवार को ही नहीं, बल्कि अनेकों परिवारों को भूखों मरने को विवश करके शनै-शनै उन सबकी हत्या कर देना चाहता है। अब सवाल यह उठता है कि राशन की कालाबाजारी करने वाले ऐसे व्यक्ति के इस कुकृत्य का, वे व्यक्ति जिनके पास अपना पेट भरने तक को अन्न नहीं है, किस प्रकार से मुकाबला करें? मैं नहीं समझता कि वे अपने बचाव में राशन विक्रेता की हत्या करना चाहेंगे, लेकिन मारपीट एवं हिंसा तो कर सकते हैं। मनोज कुमार की रोटी-कपडा और मकान हिन्दी फिल्म को देखकर इस स्थिति को इस सन्दर्भ में आसानी से समझा जा सकता है।

इस प्रकार की स्थिति केवल राशन की कालाबाजारी करने वालों के विरुद्ध ही लागू नहीं होती हैं। बल्कि नकली दवाई बनाने एवं बेचने वालों, जहरीली शराब बनाने एवं बेचने वालों, मसालों और अन्य खा पदर्थों में मिलावट करने एवं बेचने वालों के मामलो में भी यही स्थिति लागू होती है, क्योंकि ये सब अनेकों निर्दोष लोगों की इरादतन सामूहिक हत्या करना चाहते हैं! भ्रष्टाचारी भी कहीं न कहीं ऐसा ही कृत्य करता है, जबकि वह लोगों के उन कानूनी एवं संवैधानिक हकों को छीनता है, जिनका उपयोग करना जीवन जीने के लिये या जिन्दा रहने के लिये जरूरी होता है। इस बात को सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 की व्याख्या करते समय अनेक बार दौहराया है कि शिक्षा, भोजन, पानी, बिजली, फोन, सडक आदि अनेक साधन जो व्यक्ति के जीवन के लिये अपरिहार्य हैं यदि इन अधिकारों का हनन करना या इनको छीनना एक प्रकार से जीवन के अधिकार को ही छीनना है। इसलिये उपरोक्त वर्णित अपराध करने वालों का कृत्य भी परोक्ष रूप से इरादतन हत्या करने के सदृश्य जानलेवा हमला ही माना जाना चाहिये।

सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति द्वय दलवीर भंडारी और ए.के. गांगुली की बेंच ने आत्मरक्षा के अधिकार की व्याख्या करते हुए कहा है कि आत्मरक्षा के अधिकार को इस तरह बनाया गया है कि वह सामाजिक मकसद की पूर्ति करे। उपरोक्त निर्णय के सन्दर्भ में मेरा कहना है कि भूख से मरने वाले व्यक्ति द्वारा स्वयं को और अपने परिवार को भूख से बचाने के लिये राशन की कालाबाजारी करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध किसी प्रकार का बल प्रयोग सामाजिक मकसद की पूर्ति के लिये किया गया इस्तेमाल क्यों नहीं माना जा सकता? जहरीली शराब बेचने वालों के विरुद्ध इस अधिकार का उपयोग क्या सामाजिक मकसद की पूर्ति के लिये किया गया इस्तेमाल नहीं है? नकली दवाई बेचकर लोगों को बेमौत मारने वालों के विरुद्ध किया गया उपयोग क्या सामाजिक मकसद की पूर्ति के लिये किया गया इस्तेमाल नहीं है? निश्चय ही ऐसा होना चाहिये, लेकिन इस प्रकार के मामलों में अभी सीधे-सीधे न्यायिक निर्णय की मोहर लगना बाकी है। यपि मैं यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना जरूरी समझता हूं कि मेरा मकसद यह कतई भी नहीं है कि इस आलेख से प्रेरित होकर राशन से वंचित लोग, राशन की कालाबाजारी करने वालों पर, हमला करें या बल प्रयोग करें, बल्कि मैं तो यह कहना चाहता हूं कि उपरोक्त हालातों में भी आत्मरक्षा के अधिकार का इस्तेमाल करने की कानूनी इजाजत होनी चाहिये।

जिससे कि कोई कालाबाजारी करने की हिम्मत जुटाने से पूर्व यह समझ सके कि उसके आपराधिक कृत्य के बचाव में भूख से मरते लोग या भूखों मरने वाले परिवारों के सदस्य उसके विरुद्ध आत्मरक्षा के अधिकार का प्रयोग कर सकते हैं! दुःख की बात है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा आत्मरक्षा के अधिकार का उपयोग करने की लिये जो दस सूत्रीय गाइड लाईंस तय की गयी हैं, उन दसों सूत्रों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की गयी है जिससे कि परिवार के परिवारों को इरादतन भूख से मार कर हत्या करने वालों के विरुद्ध आत्मरक्षा के अधिकार का इस्तेमाल किया जा सके?


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