डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
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प्रारम्भ में जब सूचना अधिकार कानून की लड़ाई लड़ी जा रही थी तो आम लोगों
को इस कानून से भारी उम्मीद थी| लेकिन जैसे ही इस कानून से सच्चाई बाहर आत
दिखी तो अफसरशाही ने इस कानून की धार को कुन्द करने के लिये नये-नये रास्ते
खोजना शुरू कर दिये| जिसे परोक्ष और अनेक बार प्रत्यक्ष रूप से
न्यायपालिका ने भी संरक्षण प्रदान किया है| अन्यथा अकेला सूचना का अधिकार
कानून ही बहुत बड़ा बदलाव ला सकता था| एक समय वाहवाही लूटने वाले सत्ताधारी
भी इस कानून को लागू करने के निर्णय को लेकर पछताने लगे हैं| जिसके चलते
इस कानून को भोथरा करने के लिये कई बार इसमें संशोधन करने का दुस्साहस करने
का असफल प्रयास किया गया| जिसे इस देश के लोगों की लोकतान्त्रिक शक्ति ने
डराकर रोक रखा है|
इसके बावजूद भी सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 को सही तरह से लागू करने और
सच्चे अर्थों में क्रियान्वित करने के मार्ग में अनेक प्रकार से व्यवधान
पैदा किये जा रहे हैं| अधिकतर कार्यालयों में जन सूचना अधिकारियों द्वारा
मूल कानून में निर्धारित 30 दिन में सूचना देने की समय अवधि में जानबूझकर
और दुराशयपूर्वक आवेदकों को उपलब्ध होने पर भी सूचना उपलब्ध नहीं करवाई
जाती है या गुमराह करने वाली या गलत या अस्पष्ट सूचना उपलब्ध करवाई जाती
है|
जन सूचना अधिकारियों द्वारा निर्धारित 30 दिन की समयावधि में सही/पूर्ण
सूचना उपलब्ध नहीं करवाये जाने के मनमाने, गलत और गैर-कानूनी निर्णय का
अधिकतर मामले में प्रथम अपील अधिकारी भी आंख बन्द करके समर्थन करते हैं|
ऐसे अधिकतर मामलों में केन्द्रीय/राज्य सूचना आयोगों द्वारा लम्बी सुनवाई
के बाद आवेदकों को चाही गयी सूचना प्रदान करने के आदेश तो दिये जाते हैं,
लेकिन जानबूझकर निर्धारित 30 दिन की समयावधि में सूचना उपलब्ध नहीं करवाने
के दोषी जन सूचना अधिकारियों तथा उनका समर्थन करने वाले प्रथम अपील
अधिकारियों के विरुद्ध कठोर रुख अपनाकर दण्डित करने के बजाय नरम रुख अपनाया
जाता है|
जिसके चलते सूचना आयोगों में द्वितीय अपीलों की संख्या में लगातार बढोतरी
हो रही है| सूचना का अधिकार कानून में निर्धारित आर्थिक दण्ड अधिरोपित करने
के मामले में सूचना आयोग को अपने विवेक का उपयोग करके कम या अधिक दण्ड
देने की कोई व्यवस्था नहीं होने के उपरान्त भी केन्द्रीय और राज्य सूचना
आयोगों द्वारा अपनी पदस्थिति का दुरुपयोग करते हुए अधिकतर मामलों में
निर्धारित दण्ड नहीं दिया जा रहा है| अधिक दण्ड देने का तो सवाल ही नहीं
उठता| यहॉं तक कि यह बात साफ तौर पर प्रमाणित हो जाने के बाद भी कि
प्रारम्भ में सूचना जानभूझकर नहीं दी गयी है| जन सूचना अधिकारियों के
विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही की अनुशंसा नहीं की जा रही हैं| यही नहीं ऐसे
मामलों में भी प्रथम अपील अधिकारी अपनी जिम्मेदारी से पूरी तरह से बचे हुए
हैं| उन्हें दण्डित किये बिना, उनसे उनके दायित्वों का निर्वाह करवाना लगभग
असम्भव है| इस वजह से भी केन्द्रीय व राज्यों के सूचना आयोगों में अपीलों
का लगातार अम्बार लग रहा है|
इन हालातों में यह बात साफ तौर पर कही जा सकती है कि सूचना का अधिकार कानून
के तहत आवेदकों को सही समय पर सूचना नहीं मिले, इस बात को परोक्ष रूप से
सूचना आयोग ही प्रोत्साहित कर रहे हैं| मूल अधिनियम में सूचना आयोगों के
लिये द्वितीय अपील का निर्णय करने की समय सीमा का निर्धारण नहीं किया जाना
भी इसकी बड़ी वजह है|
यदि जन सूचना अधिकारी एवं उनके गलत निर्णय का समर्थन करने के दोषी पाये
जाने वाले सभी प्रथम अपील अधिकारियों को भी अधिकतम आर्थिक दण्ड 25000 रुपये
से दण्डित किये जाने के साथ-साथ निर्धारित अवधि में अनुशासनिक कार्यवाही
किये जाने की अधिनियम में ही स्पष्ट व्यवस्था हो और सूचना आयोगों द्वारा
इसका काड़ाई से पालन किया जावे तो 90 प्रतिशत से अधिक आवेदकों को प्रथम चरण
में ही अधिकतर और सही सूचनाएँ मिलने लगेंगी| इससे सूचना आयोगों के पास
अपीलों में आने वाले प्रकरणों की संख्या में अत्यधिक कमी हो जायेगी| जिसका
उदाहरण मणीपुर राज्य सूचना आयोग है, जहॉं पर सूचना उपलब्ध नहीं करवाने के
दोषी जन सूचना अधिकारियों पर दण्ड अधिरोपित करने में किसी प्रकार का भेदभाव
नहीं किया जाता है, जिसके चलते मणीपुर राज्य सूचना आयोग में अपीलों की
संख्या चार अंकों में नहीं है| अधिकतर मामलों में जन सूचना अधिकारी ही
सूचना उपलब्ध करवा देते हैं|
दूसरा यह देखने में आया है कि लम्बी जद्दोजहद के बाद यदि केन्द्रीय/राज्य
सूचना आयोगों द्वारा आवेदक को सूचना प्रदान करने का निर्देश जारी कर भी
दिया जाता है तो ब्यूरोक्रट्स हाई कोर्ट/सुप्रीम कोर्ट की शरण में चले जाते
हैं| जहॉं पर मामले में सूचना नहीं देने के लिये स्थगन आदेश मिल जाता है
और अन्य मामलों की भांति ऐसे मामले भी तारीख दर तारीख लम्बे खिंचते रहते
हैं, जिससे सूचना अधिकार कानून का मकसद ही समाप्त हो रहा है| इस प्रक्रिया
की आड़ में भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट्स अपने काले कारनामों को लम्बे समय तक
छिपाने और दबाने में कामयाब हो रहे हैं|
अत: बहुत जरूरी है कि सूचना अधिकार से सम्बन्धित जो भी मामले हाई
कोर्ट/सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पेश हों उनमें सुनवाई और निर्णय करने की
समयावधि निर्धारित हो| इस व्यवस्था से कोर्ट की आड़ लेकर सूचना को लम्बे
समय तक रोकने की घिनौनी तथा गैर-कानूनी साजिश रचने वाले भ्रष्ट
ब्यूरोक्रेट्स की चालों से सूचना अधिकार कानून को बचाया जा सकेगा|
इस प्रकार सूचना का अधिकार कानून को अधिक पुख्ता बनाने के लिये सूचना का
अधिकार आन्दोलन से जुड़े लोगों को इस बात के लिये केन्द्रीय सरकार पर दबाव
डालना चाहिये कि संसद के मार्फत इस कानून में निम्न तीन संशोधन किये जावें
:-
1. जन सूचना अधिकारी और प्रथम अपील अधिकारी के दोषी पाये जाने पर जो आर्थिक
दण्ड दिया जायेगा, उसमें केन्द्रीय/राज्य सूचना आयोगों या न्यायालयों को
विवेक के उपयोग करने का कोई अधिकार नहीं होगा| सूचना देने में जितने दिन का
विलम्ब किया गया, उतने दिन का आर्थिक जुर्माना जन सूचना अधिकारियों और
प्रथम अपील अधिकारियों को पृथक-पृथक समान रूप से अदा करना ही होगा| साथ ही
दोषी पाये जाने वाले सभी जन सूचना अधिकारियों और सभी प्रथम अपील अधिकारियों
के विरुद्ध भी अनिवार्य रूप से अनुशासनिक कार्यवाही की अनुशंसा भी की
जाये| अनुशासनिक कार्यवाही की अनुशंसा करने का प्रावधान सूचना आयोगों के
विवेक पर नहीं छोड़ा जाना चाहिये, क्योंकि जब सूचना नहीं दी गयी है तो इसे
सिद्ध करने की कहॉं जरूरत है कि सूचना नहीं देने वाला जन सूचना अधिकारी
अनुशासनहीन है| जिसने अपने कर्त्तव्यों का कानून के अनुसार सही सही पालन
नहीं किया है, उस लोक सेवक का ऐसा कृत्य स्वयं में अनुशासनहीनता है, जिसके
लिये उसे दण्डित किया ही जाना चाहिये| केवल इतना ही नहीं, अनुशासनहीनता के
मामलों में सम्बन्धित विभाग द्वारा दोषी लोक सेवक के विरुद्ध अधिकतम एक माह
के अन्दर निर्णय करके की गयी अनुशासनिक कार्यवाही के बारे में
केन्द्रीय/राज्य सूचना आयोग को भी अवगत करवाये जाने की बाध्यकारी व्यवस्था
होनी चाहिये| साथ ही ये व्यवस्था भी हो कि यदि सम्बन्धित विभाग द्वारा एक
माह में अनुशासनिक कार्यवाही नहीं की जावे तो एक माह बाद सम्बन्धित सूचना
आयोग को बिना इन्तजार किये सीधे अनुशासनिक कार्यवाही करने का अधिकार दिया
जावे| जिस पर सूचना आयोग को अगले एक माह में निर्णय लेना बाध्यकारी हो|
इसके अलावा विभाग द्वारा की गयी अनुशासनिक कार्यवाही के निर्णय का सूचना
आयोग को पुनरीक्षण करने का भी कानूनी हक हो|
2. कलकत्ता हाई कोर्ट के एक निर्ण में की गयी व्यवस्था के अनुसार सूचना
अधिकार कानून में द्वितीय अपील के निर्णय की समय सीमा अधिकतम 45 दिन
निर्धारित किये जाने की तत्काल सख्त जरूरत है|
3. सूचना अधिकार कानून में ही इस प्रकार की साफ व्यवस्था की जावे कि इस
कानून से सम्बन्धित जो भी मामले हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के समक्ष
प्रस्तुत हों, उनकी प्रतिदिन सुनवाई हो और अधिकतम 60 दिन के अन्दर-अन्दर
उनका अन्तिम निर्णय हो| यदि साठ दिन में न्यायिक निर्णय नहीं हो तो पिछला
निर्णय स्वत: ही क्रियान्वित हो| कोर्ट के निर्णय के बाद दोषी पाये जाने
अधिकारियों के विरुद्ध जुर्माने के साथ-साथ कम से कम ९ फीसदी ब्याज सहित
जुर्माना वसूलने की व्यवस्था भी हो|
यदि सूचना अधिकार आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ता इन विषयों पर जनचर्चा करें
और जगह-जगह इन बातों को प्रचारित करें तो कोई आश्चर्य नहीं कि ये संशोधन
जल्दी ही संसद में विचारार्थ प्रस्तुत कर दिये जावें| लेकिन बिना बोले और
बिना संघर्ष के कोई किसी की नहीं सुनता है| अत: बहुत जरूरी है कि इस बारे
में लगातार संघर्ष किया जावे और हर हाल में इस प्रकार से संशोधन किये जाने
तक संघर्ष जारी रखा जावे|