भोपाल // आलोक सिंघई (पीआईसी)
रतलाम के बेड़दा गांव में सोते हुए रंगे हाथों पकड़ाए सीएम सुुरक्षा के पुलिस वालों ने दो पत्रकारों को पीट डाला. इसके बाद उन पत्रकारों पर मुकदमे भी ठोक दिए गए. इस घटना ने जेड प्लस सुरक्षा की खामियों की पोल खोलकर रख दी है. उजजैैन रेंज के आईजी पवन जैन कथित तौर पर फरमा रहे हैं कि सीएम की सुरक्षा करने वालों को गोली मारने का अधिकार है यह तो गनीमत है कि उन्होंने गोली नहीं चलाई. इस घटना पर पत्रकारों में तीखी नाराजगी है. कांग्रेस ने भी इस घटना पर अपनी रोटियां सेंकना शुरु कर दिया है.उसका कहना है कि वह सीएम सुरक्षा में चूक की निंदा करती है.कांग्रेस की बात पर गौर करने की जरूरत नहीं है. क्योंकि सरकार में रहते हुए मध्यप्रदेश की कांग्रेसी सरकारों ने भी वही किया है जो मौजूदा सरकार कर रही है. कांग्रेस इस थोथी बयानबाजी से मामले पर पर्दा डालना चाहती है. ताकि सीएम सुरक्षा की व्यवस्था पर कोई चर्चा ही न हो. जबकि उजजैन रेंज के आईजी पवन जैन अपनी अफसरी की धौंस में पत्रकारों पर अहसान थोपते नजर आ रहे हैं.उनका अहसास उस आम पुलिस वाले से ज्यादा कुछ नहीं है जो वर्दी पहिनकर खुद को खुदा समझने लगता है.पवन जैन आईजी हैं और उन्हें मालूम होना चाहिए कि सीएम की सुरक्षा कोई स्वर्ग से अवतारित व्यवस्था नहीं है. सीएम के इस अमले को कोई अधिकार हैं हीं नहीं. यह पूरा अमला जिला पुलिस के अधिकारों पर ही टिका होता है. पूरे देश में जेड प्लस सुरक्षा का मतलब सुरक्षा के विभिन्न दायरों से लगाया जाता है. जिस भी जिले में जेड प्लस सुरक्षाधारी व्यक्तित्व का आगमन होता है वहां जिला पुलिस को उसकी सुरक्षा की व्यवस्था करनी होती है. इसमें उसके ही दो घेरे होते हैं जो जिला पुलिस बल के जवानों से बने होते हैं. इसके भीतरी हिस्से में सीएम की सुरक्षा वाले जवान होते हैं. इस दस्ते को जेड प्लस सुरक्षा धारी व्यक्ति की रक्षा करना होती है. साथ में उस विशेष दर्जा प्राप्त व्यक्ति से मिलने वालों पर भी निगाह रखनी होती है. इस दस्ते को हमले करने का नहीं बल्कि बचाव करने का प्रशिक्षण दिया जाता है. सीएम सुरक्षा के लिए तैनात दस्ते के जवान और अफसर प्रदेश के पुलिस बल से ही प्रतिनियुक्ति पर आते हैं. लेकिन सीएम सुरक्षा में वे हमले के अधिकार से विहीन होते हैं. यदि बहुत कठिन स्थितियां आ जाएं कि उन्हें गोली भी चलानी पड़े तो यह कार्रवाई जिला पुलिस के अधिकारों के तले ही की जाती है.सुरक्षा के इस बारीक से फर्क की समझ ज्यादातर पुलिस वालों में नहीं है. कई प्रकार के दबावों और सिफारिशों से इस सुरक्षा में पहुंचने वाले पुलिस वाले सीएम या विशेष व्यक्ति के आभामंडल से प्रभावित होकर खुद को सर्वाधिकार संपन्न समझने लगते हैं. पवन जैन भी इस पुलिस सिंड्रोम से प्रभावित हो गए हैं और अनुशासित पुलिस बल की भावना से दूर हटकर गुंडागर्दी की भाषा बोल रहे हैं जो निंदनीय है.श्री जैन को अपनी भाषा पर इसलिए भी ज्यादा नियंत्रण रखना चाहिए क्योंकि वे एक कवि भी हैं. किसी भी पुलिस को यह अधिकार नहीं है कि वह आम नागरिकों को बंदूक और गोली का डर दिखाए. बंदूक और गोली तो अपराधियों को डराने के खिलौने हैं. यदि पत्रकारों ने सोते पुलिस वालों को अपने कैमरे में कैद कर भी लिया था तो उन्होंने अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का ही तो काम किया था इसमें पुलिस वालों को उत्तेजित होने की क्या जरूरत थी. फिर पुलिस की व्यवस्था को करीब से जानने वाले पुलिस के आला अफसर तो मामले की गंभीरता आसानी से समझते ही हैं. उन्हें मालूम है कि सीएम की सुरक्षा करने वाले जिला पुलिस के जवानों की जवाबदारी होती है कि वे किसी अवांछित व्यक्ति को सीएम के करीब नहीं पहुंचने देते. दोनों पत्रकारों को स्थानीय पुलिस वाले पहचानते थे इसलिए वे आसानी से सुरक्षा का बाहिरी घेरा लांघ सके. जिन पुलिस वालों की तस्वीरें उन्होंने अपने कैमरे में रिकार्ड कीं उनकी नींद भी कोई आश्चर्य वाली बात नहीं है. लगातार कई घंटों तक सुरक्षा की जवाबदारी संभालने के बाद उन्हें नींद आना स्वाभाविक है. वह भी तब जबकि उन्हें मालूम है कि जिला पुलिस बल अपना बाहिरी घेरा संभाले हुए है.इसी जिला पुलिस के पास सीएम सुरक्षा के लिए आवश्यक कार्रवाई करने का अधिकार भी होता है.आंतरिक सुरक्षा की निगाहें तो जेड प्लस सुरक्षा पाए व्यक्ति की हलचलों पर टिकी रहती हैं. जब कथित जेड प्लस सुरक्षा पाने वाले सीएम अपने कमरे में सो रहे हैं तब जाहिर है कि ये जवान भी एक सरसरी नींद ले सकते हैं.यह सीएम की सुरक्षा की जवाबदारी संभालने वालों का काम है कि वे किस तरह अपने टारगेट की सुरक्षा करते हैं. बेड़दा गांव में वे नौकरी पर थे और अपनी जवाबदारी जानते थे लेकिन पत्रकारों को यह थोड़ी मालूम था कि वे अपनी चैनल को जागरूक दिखाने के लिए बिलावजह मेहनत कर रहे हैं. यदि उनसे मारपीट की कोई घटना नहीं होती तो उनके फुटेज चैनल के इनपुट इंचार्ज के पास जाकर रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिए जाते. क्योंकि वहां बैठे जवाबदार पत्रकार को मालूम होता है कि यह एक सामान्य घटना है कोई भारी चूक नहीं है. जब पुलिस वालों के वीडियो चित्र पत्रकारों के पास पहुंच गए थे तो सीएम सुरक्षा दस्ते के प्रभारियों को यह बात अपने आला अफसरों को बतानी चाहिए थी.वे सीएम सुरक्षा के बारे में विस्तृत जानकारी पत्रकारों को देते और पुलिस पीआरओ के माध्यम से चैनल प्रभारी को या भोपाल में बैठे ब्यूरो चीफ को बता दिया जाता कि यह घटना कोई जनहित का समाचार नहीं है. लेकिन पुलिस विभाग में जनता या प्रेस से संवाद की कोई स्वस्थ परंपरा नहीं है. आला अफसर तो जानते हैं कि उन्हें जनता या पत्रकारों से क्या सुलूक करना चाहिए.लेकिन इस संवाद का कोई प्रभावशाली तरीका मध्यप्रदेश की पुलिस अब तक विकसित नहीं कर पाई है. उसकी ढर्रे पर चलने वाली जनसंपर्क शाखा कभी जनता में पुलिस के खिलाफ उपजने वाले आक्रोश को दिशा देने का काम नहीं कर सकी है. यह काम भी पुलिस के आला अफसर ही करते हैं.पुलिस रिपोर्टिंग को अपराध रिपोर्टिंग समझने वाली पत्रकारों की सोच भी इसके लिए जिम्मेदार है. पुलिस क्या करती है यह देखना पुलिस वालों की जवाबदारी है. सरकार को सुरक्षा चाहिए तो वह पुलिस में बेहतर अफसरों की भर्ती करेगी और अच्छे अफसरों से काम भी लेगी. पुलिस की चौकीदारी करना पत्रकारों का काम नहीं उनका तो काम अपराध की रिपोर्टिंग करना है .यदि उन्हें लगता है कि सीएम सुरक्षा में लगे जवानों की नींद कोई सामाजिक अपराध है तो उन्हें उनका काम करने दिया जाना चाहिए. उन पर आपराधिक मुकदमे दर्ज करने से तो पुलिस के प्रति आक्रोश ही भड़केगा.इससे जनता और पुलिस के बीच दूरियां बढ़ती चली जाएंगी.यह घटना प्रचार के भूखे राजनेताओं और पुलिस वालों के लिए भी नसीहत बनकर सामने आई है कि वे अपराध रिपोर्टिंग के बजाए जब जब खुद के प्रचार को बढ़ावा देते रहेंगे तब तब इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी.उन्हें अपने बजाए जनता की खोजखबर लेने वाले पत्रकारों और टीवी चैनलों को बढ़ावा देना चाहिए. जनसंपर्क महकमे को भी यह समझना होगा कि गलत प्रचार नीतियां किस तरह सरकार के गले का जंजाल बन जाती हैं. सरकार को भी यह समझना होगा कि उसने पत्रकारों के खुले संवाद के मार्ग में कुछ अपराधियों को पत्रकार बनाकर जो रोड़े खड़े किए हैं वे अंतत: सरकार के गले में बंधा पत्थर ही साबित होंगे जो उसके यश को अंधेरे जल समुंदर की अतल गहराईयों में डुबा देंगे.
रतलाम के बेड़दा गांव में सोते हुए रंगे हाथों पकड़ाए सीएम सुुरक्षा के पुलिस वालों ने दो पत्रकारों को पीट डाला. इसके बाद उन पत्रकारों पर मुकदमे भी ठोक दिए गए. इस घटना ने जेड प्लस सुरक्षा की खामियों की पोल खोलकर रख दी है. उजजैैन रेंज के आईजी पवन जैन कथित तौर पर फरमा रहे हैं कि सीएम की सुरक्षा करने वालों को गोली मारने का अधिकार है यह तो गनीमत है कि उन्होंने गोली नहीं चलाई. इस घटना पर पत्रकारों में तीखी नाराजगी है. कांग्रेस ने भी इस घटना पर अपनी रोटियां सेंकना शुरु कर दिया है.उसका कहना है कि वह सीएम सुरक्षा में चूक की निंदा करती है.कांग्रेस की बात पर गौर करने की जरूरत नहीं है. क्योंकि सरकार में रहते हुए मध्यप्रदेश की कांग्रेसी सरकारों ने भी वही किया है जो मौजूदा सरकार कर रही है. कांग्रेस इस थोथी बयानबाजी से मामले पर पर्दा डालना चाहती है. ताकि सीएम सुरक्षा की व्यवस्था पर कोई चर्चा ही न हो. जबकि उजजैन रेंज के आईजी पवन जैन अपनी अफसरी की धौंस में पत्रकारों पर अहसान थोपते नजर आ रहे हैं.उनका अहसास उस आम पुलिस वाले से ज्यादा कुछ नहीं है जो वर्दी पहिनकर खुद को खुदा समझने लगता है.पवन जैन आईजी हैं और उन्हें मालूम होना चाहिए कि सीएम की सुरक्षा कोई स्वर्ग से अवतारित व्यवस्था नहीं है. सीएम के इस अमले को कोई अधिकार हैं हीं नहीं. यह पूरा अमला जिला पुलिस के अधिकारों पर ही टिका होता है. पूरे देश में जेड प्लस सुरक्षा का मतलब सुरक्षा के विभिन्न दायरों से लगाया जाता है. जिस भी जिले में जेड प्लस सुरक्षाधारी व्यक्तित्व का आगमन होता है वहां जिला पुलिस को उसकी सुरक्षा की व्यवस्था करनी होती है. इसमें उसके ही दो घेरे होते हैं जो जिला पुलिस बल के जवानों से बने होते हैं. इसके भीतरी हिस्से में सीएम की सुरक्षा वाले जवान होते हैं. इस दस्ते को जेड प्लस सुरक्षा धारी व्यक्ति की रक्षा करना होती है. साथ में उस विशेष दर्जा प्राप्त व्यक्ति से मिलने वालों पर भी निगाह रखनी होती है. इस दस्ते को हमले करने का नहीं बल्कि बचाव करने का प्रशिक्षण दिया जाता है. सीएम सुरक्षा के लिए तैनात दस्ते के जवान और अफसर प्रदेश के पुलिस बल से ही प्रतिनियुक्ति पर आते हैं. लेकिन सीएम सुरक्षा में वे हमले के अधिकार से विहीन होते हैं. यदि बहुत कठिन स्थितियां आ जाएं कि उन्हें गोली भी चलानी पड़े तो यह कार्रवाई जिला पुलिस के अधिकारों के तले ही की जाती है.सुरक्षा के इस बारीक से फर्क की समझ ज्यादातर पुलिस वालों में नहीं है. कई प्रकार के दबावों और सिफारिशों से इस सुरक्षा में पहुंचने वाले पुलिस वाले सीएम या विशेष व्यक्ति के आभामंडल से प्रभावित होकर खुद को सर्वाधिकार संपन्न समझने लगते हैं. पवन जैन भी इस पुलिस सिंड्रोम से प्रभावित हो गए हैं और अनुशासित पुलिस बल की भावना से दूर हटकर गुंडागर्दी की भाषा बोल रहे हैं जो निंदनीय है.श्री जैन को अपनी भाषा पर इसलिए भी ज्यादा नियंत्रण रखना चाहिए क्योंकि वे एक कवि भी हैं. किसी भी पुलिस को यह अधिकार नहीं है कि वह आम नागरिकों को बंदूक और गोली का डर दिखाए. बंदूक और गोली तो अपराधियों को डराने के खिलौने हैं. यदि पत्रकारों ने सोते पुलिस वालों को अपने कैमरे में कैद कर भी लिया था तो उन्होंने अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का ही तो काम किया था इसमें पुलिस वालों को उत्तेजित होने की क्या जरूरत थी. फिर पुलिस की व्यवस्था को करीब से जानने वाले पुलिस के आला अफसर तो मामले की गंभीरता आसानी से समझते ही हैं. उन्हें मालूम है कि सीएम की सुरक्षा करने वाले जिला पुलिस के जवानों की जवाबदारी होती है कि वे किसी अवांछित व्यक्ति को सीएम के करीब नहीं पहुंचने देते. दोनों पत्रकारों को स्थानीय पुलिस वाले पहचानते थे इसलिए वे आसानी से सुरक्षा का बाहिरी घेरा लांघ सके. जिन पुलिस वालों की तस्वीरें उन्होंने अपने कैमरे में रिकार्ड कीं उनकी नींद भी कोई आश्चर्य वाली बात नहीं है. लगातार कई घंटों तक सुरक्षा की जवाबदारी संभालने के बाद उन्हें नींद आना स्वाभाविक है. वह भी तब जबकि उन्हें मालूम है कि जिला पुलिस बल अपना बाहिरी घेरा संभाले हुए है.इसी जिला पुलिस के पास सीएम सुरक्षा के लिए आवश्यक कार्रवाई करने का अधिकार भी होता है.आंतरिक सुरक्षा की निगाहें तो जेड प्लस सुरक्षा पाए व्यक्ति की हलचलों पर टिकी रहती हैं. जब कथित जेड प्लस सुरक्षा पाने वाले सीएम अपने कमरे में सो रहे हैं तब जाहिर है कि ये जवान भी एक सरसरी नींद ले सकते हैं.यह सीएम की सुरक्षा की जवाबदारी संभालने वालों का काम है कि वे किस तरह अपने टारगेट की सुरक्षा करते हैं. बेड़दा गांव में वे नौकरी पर थे और अपनी जवाबदारी जानते थे लेकिन पत्रकारों को यह थोड़ी मालूम था कि वे अपनी चैनल को जागरूक दिखाने के लिए बिलावजह मेहनत कर रहे हैं. यदि उनसे मारपीट की कोई घटना नहीं होती तो उनके फुटेज चैनल के इनपुट इंचार्ज के पास जाकर रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिए जाते. क्योंकि वहां बैठे जवाबदार पत्रकार को मालूम होता है कि यह एक सामान्य घटना है कोई भारी चूक नहीं है. जब पुलिस वालों के वीडियो चित्र पत्रकारों के पास पहुंच गए थे तो सीएम सुरक्षा दस्ते के प्रभारियों को यह बात अपने आला अफसरों को बतानी चाहिए थी.वे सीएम सुरक्षा के बारे में विस्तृत जानकारी पत्रकारों को देते और पुलिस पीआरओ के माध्यम से चैनल प्रभारी को या भोपाल में बैठे ब्यूरो चीफ को बता दिया जाता कि यह घटना कोई जनहित का समाचार नहीं है. लेकिन पुलिस विभाग में जनता या प्रेस से संवाद की कोई स्वस्थ परंपरा नहीं है. आला अफसर तो जानते हैं कि उन्हें जनता या पत्रकारों से क्या सुलूक करना चाहिए.लेकिन इस संवाद का कोई प्रभावशाली तरीका मध्यप्रदेश की पुलिस अब तक विकसित नहीं कर पाई है. उसकी ढर्रे पर चलने वाली जनसंपर्क शाखा कभी जनता में पुलिस के खिलाफ उपजने वाले आक्रोश को दिशा देने का काम नहीं कर सकी है. यह काम भी पुलिस के आला अफसर ही करते हैं.पुलिस रिपोर्टिंग को अपराध रिपोर्टिंग समझने वाली पत्रकारों की सोच भी इसके लिए जिम्मेदार है. पुलिस क्या करती है यह देखना पुलिस वालों की जवाबदारी है. सरकार को सुरक्षा चाहिए तो वह पुलिस में बेहतर अफसरों की भर्ती करेगी और अच्छे अफसरों से काम भी लेगी. पुलिस की चौकीदारी करना पत्रकारों का काम नहीं उनका तो काम अपराध की रिपोर्टिंग करना है .यदि उन्हें लगता है कि सीएम सुरक्षा में लगे जवानों की नींद कोई सामाजिक अपराध है तो उन्हें उनका काम करने दिया जाना चाहिए. उन पर आपराधिक मुकदमे दर्ज करने से तो पुलिस के प्रति आक्रोश ही भड़केगा.इससे जनता और पुलिस के बीच दूरियां बढ़ती चली जाएंगी.यह घटना प्रचार के भूखे राजनेताओं और पुलिस वालों के लिए भी नसीहत बनकर सामने आई है कि वे अपराध रिपोर्टिंग के बजाए जब जब खुद के प्रचार को बढ़ावा देते रहेंगे तब तब इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी.उन्हें अपने बजाए जनता की खोजखबर लेने वाले पत्रकारों और टीवी चैनलों को बढ़ावा देना चाहिए. जनसंपर्क महकमे को भी यह समझना होगा कि गलत प्रचार नीतियां किस तरह सरकार के गले का जंजाल बन जाती हैं. सरकार को भी यह समझना होगा कि उसने पत्रकारों के खुले संवाद के मार्ग में कुछ अपराधियों को पत्रकार बनाकर जो रोड़े खड़े किए हैं वे अंतत: सरकार के गले में बंधा पत्थर ही साबित होंगे जो उसके यश को अंधेरे जल समुंदर की अतल गहराईयों में डुबा देंगे.