पत्नी को पति की तनख्वाह जानने का हक नहीं !
यूपी के सूचना आयुक्त ने रचा जानकारी न देने का इतिहास
बिजली विभाग के कर्मचारी के बारे में ब्योरा देने से इनकार
पति छिपा रहे हैं अपनी आमदनी का ब्योरा: वादी महिला
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उत्तर प्रदेश में सूचना का अधिकार कानून की क्या स्थिति है और नियमों को ताक पर रख कर किस तरह से फैसले लिए जाते हैं इसकी एक बानगी मै आप लोगो के समक्ष रख रही हूँ. यह पूरा मामला अपने आप में कई सवालों को समेटे हुए है. इस उदहारण को देखकर आप ही निर्णय करे कि क्या यह आदेश सही है? मामला कुछ इस प्रकार है- यू.पी पावर कारपोरेशन में कार्यरत अमित श्रीवास्तव नाम के एक कर्मचारी की पत्नी भावना श्रीवास्तव ने अपने पति के वेतन और भत्तो से सम्बंधित सूचना मांगी थी. साथ ही उसने सरकारी अभिलेखों में पति द्वारा अपने परिवार के सम्बन्ध में दी गई जानकारी की भी सूचना मांगी थी.
जन सूचना अधिकारी और प्रथम अपीलीय अधिकारी के स्तर से सूचना न मिलने पर मामला सूचना आयुक्त के पास गया. कई तारीखों पर अनुपस्थित रहने के बाद आखिरकार जब जनसूचना अधिकारी सूचना आयुक्त के समक्ष उपस्थित हुए तो सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 8(1)(जे) का सहारा लेते हुए सूचना देने से इनकार कर दिया. इस धारा में यह प्रावधान है कि ऐसी सूचना जो व्यक्तिगत सूचना से सम्बंधित है, जिसका प्रकटन किसी लोक क्रिया-कलाप या हित से सम्बन्ध नहीं रखता है या जिससे व्यक्ति की एकान्तता पर अनावश्यक अतिक्रमण होता हो, जब तक कि यह समाधान नहीं हो जाता है कि ऐसी सूचना का प्रकटन विस्तृत लोक हित में न्यायोचित है. नहीं दी जा सकती है. जबकि पत्नी का तर्क था कि पति-पत्नी के बीच विवाद चल रहा है और यह पूरा मामला पारिवारिक न्यायालय में विचाराधीन है. न्यायालय में पति अपने वेतन-भत्तो तथा परिवार से सम्बंधित तथ्यों को छुपा रहा है इसलिए उसे यह सूचना उपलब्ध करा दी जाए. दोनों पक्षों की बात सुनने के बाद सूचना आयुक्त ने यह निर्णय दिया कि पति के वेतन-भत्तो और सेवा अभिलेखो मे दिए गये पारिवारिक ब्योरे को सूचना का अधिकार के तहत पत्नी को नहीं दिया जा सकता है क्योकि यह गोपनीय और व्यक्तिगत सूचना है.
जबकि इसी अधिनियम की धारा 4 (1)(ख)(10) में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि प्रत्येक लोक अधिकारी इस अधिनियम के अधिनियमन से एक सौ बीस दिन के भीतर अपने प्रत्येक अधिकारी ओर कर्मचारी द्वारा प्राप्त मासिक पारिश्रमिक जिसके अंतर्गत प्रतिकर की प्रणाली भी है प्रकाशित करेगा ओर तत्पश्चात इन प्रकाशनों को प्रति वर्ष अद्यतन भी करेगा. आब यह बात तो समझ से परे लगती है कि सूचना आयुक्त को इसकी जानकारी न हो. कहाँ तो इस बात के लिए जनसूचना अधिकारी से स्पस्टीकरण लिया जाना चाहिए था कि एक्ट में स्पष्ट प्रावधान होने के बाद भी इन सूचनाओं का प्रकाशन इस एक्ट के अस्तित्व में आने के लगभग साढ़े पांच वर्षों के बाद भी क्यों नहीं किया गया है. लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत ही. पूरा मामला अपने आप में तब और भी विचारणीय हो जाता है जब यह सूचना किसी अन्य ने नहीं उसी कर्मचारी की पत्नी ने मांगी हो. पति को कितना वेतन मिलता है यह जानने का हक तो सूचना का अधिकार कानून के अस्तित्व में आने के पहले भी था. और फिर पत्नी ही क्यों इसे जानने का हक तो आम जनता जो भी है क्योकि आखिरकार परोक्ष रूप से इन कर्मचारियों को वेतन जनता के पैसो से ही मिलता है फिर उसे यह जानने का हक क्यों न हो कि किसी कर्मचारी को कितना वेतन-भत्ता मिलता है. वैसे भी सूचना का अधिकार कानून को अस्तित्व में लाने का उद्देश्य ही यह था कि आम जनता को भी सरकारी काम-काज पर नियंत्रण और निगरानी रखने का अधिकार प्राप्त हो सके.
इस प्रकार से जहां यह प्रत्येक लोकाधिकारी का दायित्व है कि वह अपने यहाँ कार्यरत सभी कर्मचारियों को मिलने वाले वेतन-भत्तो की जानकारी सार्वजनिक करे वही जनसूचना अधिकारी से लेकर सूचना आयुक्त द्वारा ऐसी सूचना को व्यक्तिगत सूचना बताना न सिर्फ हास्यास्पद है बल्कि उत्तर प्रदेश में सूचना का अधिकार कानून की क्या स्थिति है और सूचना आयुक्तों द्वारा इस एक्ट में दिए गये प्रावधानों की किस प्रकार से मनमानी व्याख्या की जाती है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण यह मामला है.
इससे भी गंभीर मामला परिवार के सदस्यों से सम्बंधित है. पत्नी को शक है कि पति ने सेवा अभिलेखों में उसकी जगह किसी और का नाम लिख रखा है. वह विभाग से यह सूचना मांगती है और न सिर्फ विभाग ही सूचना आयुक्त भी यही कहते हैं कि सूचना व्यैक्तिक है. यानि पत्नी का यह पूछना कि उसके पति की बीवी की जगह किसका नाम है, किस तरह से व्यक्तिगत सूचना हुई? जबकि इस बात से स्पष्ट रूप से उस व्यक्ति की पत्नी और उसका परिवार प्रभावित हो रहा है और क्या यह अन्य लोगों के हितों से भी नहीं जुडा हुआ है ? बीवी यह जानना चाह रही है कि पति ने सरकारी दस्तावेजों में उसी का नाम रखा है या किसी और का, जबकि आयुक्त महोदय कह रहे है कि यह व्यक्तिगत सूचना है. वह भी तब जब किसी भी सरकारी कर्मचारी के लिए दो पत्नियां रखना सीधे तौर पर प्रतिबंधित है. वाह, भाई वाह ! सचमुच बहुत दंयनीय स्थिति है उत्तर प्रदेश सूचना आयोग की और इसके आयुक्तों की.
डॉ नूतन ठाकुर
कन्वेनर
नॅशनल आरटीआई फोरम
लखनऊ