भ्रष्टाचार मिटाने और विदेशी बैंकों में जमा काले धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करवाने की जिद पर अड़े "बाबा से बम" बने रामदेव को आम आदमी के बीच देखकर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सांसे रुक गयीं। ठीक वैसे ही, जैसे किसी आदमी के पैरों के नीचे से अचानक "काला-नाग" आर-पार निकल जाये। बिना डसे हुए । हुकूमत को बाबा भी "बम" और "काले-सांप" से कम नज़र नहीं आ रहे । वो बम जो जनता के बीच फट जाये, तो भी सरकार की फजीहत । वो काला-नाग जिसे मारने में पाप लगेगा और देखकर रोंगटे खड़े हो रहे हैं। नहीं मारा तो इस बात का डर, कि न मालूम कब, कहां, किसको डस बैठे ? परेशान-हाल सरकार को एक बाबा दो रुपों में एक साथ नज़र आ रहा- बम और सांप। दोनो ही एक से बढ़कर एक खतरनाक। एक के फटने से तबाही । तो दूसरे के डसने से।
सल्तनत तो सल्तनत है। उसके कारिंदे जानते हैं, कि कैसे सल्तनत को चलाना है? अगर वे सल्तनत चलाना नहीं जानते, तो फिर कारिंदे भला किस बात के ठहरे ? "बम" बने बाबा को "फुस्स" करने के लिए सरकार ने पूरी ताकत झोंक दी। ताकि बम, बिना फटे ही, काम लायक न रहे। बम को फटने से रोकने के लिए धैर्य चाहिए था। सो सरकार इस "टेस्ट" में पास हो गयी। बाबा की हर मांग मानकर। लेकिन बम बने बाबा की गर्मी ने सल्तनत के दिमाग पर इतना बेजा असर छोड़ा, कि उसके कारिंदों की सोचने-समझने की ताकत जाती रही। एअर-कंडीश्नरों की ठंड से सूखे पड़े सरकारी कारिंदों के बदन, बम बने बाबा की गर्मी ने पसीने से तर-ब-तर कर दिये।
बम से ज्यादा खतरनाक साबित हो रहे बाबा रामदेव को नियंत्रित करना अगर किसी "रिमोट" से संभव होता, तो सरकार इसमें देर नहीं करती। यही बम (बाबा रामदेव) अगर किसी सूनसान जगह (हरिद्वार में मौजूद अपनी पतंजलि पीठ या किसी आश्रम) में होता, तो सरकार उसे इतना विस्फोटक होने ही न देती। चक्कर ये फंस गया, कि बम, भीड़ के साथ सल्तनत के सीने (दिल्ली का रामलीला मैदान) पर आ बैठा। हजारों "हथगोलों" (जनता-जनार्दन) के साथ। सरकार को शंका थी, कि "डि-फ्यूज" करते समय कहीं बम फट गया, तो उसके आस-पास मौजूद हथगोले फटकर तबाही मचा सकते हैं। इसी डर के चलते सरकार बम बने बाबा को शांत (डि-फ्यूज) करने के बजाये, इशारे से अलग हटाकर ले जाने की जुगत खोजने में जुट गयी। ताकि सांप भी मर जाये, लाठी भी न टूटे।
रणनीति के तहत पहले बाबा रामदेव की सब मांगे मान ली गयीं। लेकिन मजबूरी में। दो-तीन दिन से बाबा के चलते हो रही फजीहत के दबाब में। न कि खुशी-खुशी । या देश के हित में। मांगे तो मान लीं, कि कैसे भी बाबा मान जायें । ताकि बम बन चुके बाबा रामदेव किसी तरह से बर्फ की सिल्ली में तब्दील हो जायें। बाबा ने सल्तनत का खून चूसने में तीन दिन के भीतर कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। इसकी "टीस" भी सरकारी कारिंदों को बार-बार "धिक्कार" रही थी। धिक्कारना लाजिमी था भी। भला कहां एक ओर पूरी सरकारी मशीनरी? और कहां दूसरी ओर "आधी-धोती" में "अधनंगा" अदना सा अकेला बाबा । ये तो सीधे सल्तनत की ऐसी-तैसी करने जैसा था। लेकिन सरकार, भी आखिर सरकार है। कोई नाई की दुकान नहीं, जो चाहो उस पर बाल मुंडवाओ और चले जाओ। दिमाग रखते हैं सल्तनत के कारिंदे। राजपाट चलाती है सरकार। कोई ऐसे ही सत्ता का सुख, घर बैठे-बिठाये फोकट में थोड़े न मिल जाता है।
बाबा की मांगे मानने की घोषणा करने से पहले ही सरकार ने तय कर लिया, कि कैसे बम बने बाबा को बर्फ में लगाकर ठंडा कर देना है। इस बम को ठंडा करने के लिए जरुरी था मजबूत सरकारी रेफ्रिजरेटर। इसीलिए सरकार ने केंद्रीय मंत्री और मौजूदा केंद्र सरकार के बजरंग-बली कपिल सिब्बल (अन्ना हजारे को काबू करके फहत हासिल करने के लिए भी जंतर-मंतर पर चढ़ाई करने के लिए सल्तनत ने कपिल सिब्बल ही भेजे थे) को फिर चुना। साम-दाम-दण्ड-भेद चाहे जैसे भी सही, सल्तनत की सोच पर सिब्बल साहब फिर खरे उतरे और सल्तनत के संकटमोचक के रुप में उभरकर सामने आये। ये दूसरी बात रही कि, तमाम सरकारी "चिरौरियों" और "मिन्नतों" के बाद काबू आये बाबा रामदेव की मांगे मान लेने की घोषणा के साथ ही उन्होंने बाबा के अंगद यानि बालकृष्ण की चिट्ठी का खुलासा भी कर दिया। आज के नारद-मुनियों (मीडियाकर्मियों) के सामने। सरकारी बजरंग-बली ने ये सब क्रोध में आकर कर तो डाला। लेकिन यही कदम "रामलीला मैदान" में "लंका-दहन" की वजह बन गया।
इधर प्रेस-कांफ्रेंस में बालकृष्ण की चिट्ठी खुली, उधर रामलीला मैदान में मंच पर बम के रुप में रखे बाबा रामदेव ने इधर-उधर हिलना-डुलना या यूं कहें लुढ़कना शुरु कर दिया। कलियुग के नारद-मुनियों (मीडियाकर्मियों) ने बाबा को खबर कर दी- "बाबा तुम्हारे अंगद (बालकृष्ण) की समझौता-चिट्ठी सरकार के संकटमोचक कपिल सिब्बल ने पढ़कर दुनिया को सुना दी है। " अब बताओ कैसे बचाओगे अपनी इज्जत ? बस फिर क्या था ? बारुद (गुस्से) की गर्मी से बम फट पड़ा। मंच से ही भीष्म-प्रतिज्ञा ले ली- "मैं (रामदेव) आज के बाद कभी भी कपिल सिब्बल से न बात करूंगा और न ही मिलूंगा।"
बस बाबा की इस भीष्म-प्रतिज्ञा की घोषणा ने आग में घी का काम कर दिया। बाबा की इतनी हिम्मत कि हमें (सल्तनत) को खुली चुनौती दे। बाबा ने भीष्म-प्रतिज्ञा तो ले ली, लेकिन उसके परिणाम क्या होंगे, साथ ही साथ इसकी भी घोषणा कर दी। बाबा ने मंच से ही बता दिया कि उन्हें गिरफ्तार भी किया जा सकता है। पासा पलटता देख, बाबा ने साथ ही साथ मंच से ही सामने बैठे लोगों (अपने हथगोलों) से ये भी पूछ लिया- कि अगर उन्हें "डि-फ्यूज" (गिरफ्तार करके निष्क्रिय) किया गया, तो कितने लोग उनके साथ होंगे। सबने समर्थन में हाथ उठा दिये। करते-धरते रात करीब नौ बजे बाबा और सल्तनत की तरफ से रणभेरियां (एक दूसरे के खिलाफ वाकयुद्ध, बयानबाजी) बजनी बंद हो गयीं। सारा जहां समझा कि अब लड़ाई अगर आगे बढ़ी तो भोर होने पर ही शुरुआत होगी। लेकिन खिसियानी बिल्ली यानि सल्तनत ने "बम बने बाबा" को आधी रात में ही "नोच" कर दबोच लिया अपने पंजों में। सरकारी सल्तनत के पंजों (दिल्ली पुलिस) ने बाबा और उनके समर्थकों को बिना अवाज किये, अपने पंजों में भींचा ही नहीं, बल्कि तबियत से नोचा-खसोटा (कूटा-पीटा) भी। कल तक सरकार को "बम" बने बाबा "डि-फ्यूज" ( काबू या निष्क्रिय ) कर दिये गये। बाबा और उनके हथगोलों ने कभी-कभार फटने (विरोध में बोलने, चीखने-चिल्लाने) की कोशिश भी की। लेकिन हर कोशिश नाकाम कर दी गयी। भ्रष्टाचार और विदेश में दबे काले धन की वापसी की आवाज को "सरकारी-तंत्र" ने रात के अंधेरे में दबा दिया। "बे-गुनाहों" की चीख-पुकार को आधी रात में दिल्ली के "रामलीला मैदान" में चल रहे "लंका-काण्ड" में आंसू-गैस के गोलों के छूटने की कानफोड़ू आवाज में दबा दिया गया । सरकारी तंत्र के लिए बम बने बाबा रामदेव को अपनी पर उतरी सल्तनत और उसके सिपाहियों (दिल्ली पुलिस) ने कर दिया "डि-फ्यूज" (निष्क्रिय)। मशीनों से नहीं। लाठियों से।