भाजपा की फायर ब्रांड नेत्री उमा भारती के छह साल के वनवास को समाप्त करने की घोषणा के साथ ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उन्हें एक ऐसे चक्रव्यूह में डाल दिया है जिसे तोड़ पाना उमा भारती के लिए टेढ़ी खीर साबित होगा। उत्तर प्रदेश के चुनावी महाभारत में बसपा, सपा और कांग्रेस के चक्रव्यूह को तोडऩे के लिए भाजपा को उमा भारती के रूप में अभिमन्यू तो मिल गया है लेकिन सवाल यह खड़ा हो रहा है कि क्या उमा को उत्तर प्रदेश भाजपा के पांडव राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र, लालजी टंडन, मुरली मनोहर जोशी और विनय कटियार का साथ मिल पाएगा या फिर वह भी महाभारत के अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में फंस जाएंगी?
उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में राजनाथ सिंह,कलराज मिश्र, लालजी टंडन, मुरली मनोहर जोशी और विनय कटियार भाजपा के पांडव माने जाते है, लेकिन ये बिखरे पड़े हैं। राजनाथ सिंह राष्ट्रीय राजनीति में जम चुके हैं। मुरली मनोहर जोशी,कलराज और लालजी टंडन भी खुद को राष्ट्रीय नेता ही मानते हैं। विनय कटियार अकेले ऐसे नेता हैं जो प्रदेश में सक्रिय है। ऐसे में उमा का साथ कौन देगा, कौन उनकी बात मानेगा, यह विचारणीय है। इसमें कोई शक नहीं कि उमा अपनी भूमिका अच्छी तरह से निभाएंगी, लेकिन युद्ध जीतने के लिए योद्धा भी ज़रूरी हैं, जो फिलहाल उत्तर प्रदेश में पार्टी के पास दिखाई नहीं देते। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा के पास अब कोई ऐसा चेहरा नहीं है, जो उसे सत्ता में वापस ला सके। वैसे उत्तर प्रदेश में भाजपा के पास बड़े नामों एवं चेहरों की कमी नहीं है। मुख्तार अब्बास नकवी, मेनका गांधी एवं वरुण गांधी भी उत्तर प्रदेश से ही हैं, लेकिन इनमें वरुण को छोड़कर कोई आक्रामक नहीं दिखता।
उधर खबर यह भी सामने आ रही है कि उमा भारती की वाया उत्तर प्रदेश भाजपा में वापसी को क्षेत्रीय क्षत्रप पचा नहीं पा रहे हैं। उमा को उत्तर प्रदेश का प्रभार सौंपा गया है। यहां तक किसी को दिक्कत नहीं है, लेकिन उमा के उत्तर प्रदेश से ही चुनाव लडऩे की दशा में यहां के नेताओं को अपना वजूद खतरे में पड़ता दिखाई दे रहा है। यही वजह है कि वे उमा के भाजपा में आने पर खुलकर खुशी का इज़हार नहीं कर रहे हैं और न ही ग़म जता पा रहे हैं। उमा भारती के आने से ग़ैर भाजपाई दलों में खलबली ज़रूर है। विरोधी अभी से आरोप लगाने लगे हैं कि उत्तर प्रदेश में भाजपा का मिशन 2012 सांप्रदायिकता को उभारने वाला होगा।
भाजपा कार्यकर्ताओं के सामने एक सवाल यह भी है कि क्या उमा भारती अपने बड़े भाई कल्याण सिंह के खिलाफ़ मुखर हो सकेंगी? उमा वाकई ऐसा कर पाएंगी, यह कह पाना बहुत मुश्किल है। वजह पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव हैं, जब कल्याण भाजपा में नहीं थे और उमा भाजपा की स्टार प्रचारक हुआ करती थीं। उस दौरान भी उमा ने कल्याण के खिलाफ़ बोलने से परहेज किया। अब कल्याण मुलायम सिंह यादव का साथ छोड़ चुके हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनका अपना असर है, जहां भाजपा को अपनी पैठ बनानी है। ऐसे में उमा को कल्याण सिंह के खिलाफ़ आक्रामक होना पड़ेगा, यह वक्त की मजबूरी भी होगी।
भाजपा में उमा की वापसी के साथ ही यह भी कयास लगने लगे हैं कि उत्तर प्रदेश में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में हिंदू-मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण कराने के हर हथकंडे का इस्तेमाल होगा। उमा भारती जिस राम मंदिर आंदोलन की देन हैं, वह हाईकोर्ट के ताजा निर्णय के बाद एक बार फिर से चर्चा में है। विवादित ढांचा ढहाए जाने के मामले में उमा भारती भी आरोपी हैं। इसका राजनीतिक लाभ उठाने से भाजपा तनिक भी परहेज नहीं करेगी। दिलचस्प बात यह है कि भड़काऊ भाषण देने की आदत के चलते ही उमा भारती राजनीति के शीर्ष पर पहुंचीं तो इसी वजह से उन्हें राजनीति में बुरे दिन भी देखने पड़ रहे हैं। मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए उन्हें वर्ष 2004 में इस्तीफा देना पड़ा था। वजह कर्नाटक के हुबली शहर में कऱीब 15 साल पहले सांप्रदायिक तनाव फैलाने के आरोप में उमा के खिलाफ म़ुकदमा कायम किया गया था। इस मामले में उन्हें अदालत के सामने पेश होना था। वे उस समय मुख्यमंत्री थीं, और वारंट के कारण उन्हें मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा था। पार्टी ने वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर को कमान सौंप दी थी। इसके बाद पार्टी और उमा के बीच मतभेद बढ़ते गए और अंतत: पार्टी ने उमा को बाहर का रास्ता दिखा दिया। उसके बाद उमा भारती ने भारतीय जनशक्ति पार्टी बनाई लेकिन उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिली। अब वे फिर पार्टी में वापस आ गई हैं।
उधर उमा भारती की वाया उत्तर प्रदेश भाजपा में वापसी से मध्य प्रदेश के नेताओं के माथे पर भी बल पड़ गए हैं। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा कहते हैं कि उमा का पार्टी में स्वागत है लेकिन उनका पार्टी में रहने या न रहने का कोई भी असर प्रदेश में नहीं पड़ेगा।
यहां यह बात याद दिलाना जरूरी है कि उमा मध्य प्रदेश में ही पार्टी के लिए काम करना चाह रहीं थी लेकिन उनकी मध्य प्रदेश में वापसी में उन्हीं के शिष्य रहे नेता ही रोड़े अटका रहे थे। इसकी प्रमुख वजह उमा भारती का अक्खड़पन, उनकी तानाशाही है। भाजपा में रहते हुए उन्होंने जिस तरह से लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ़ तीखे शब्दों का इस्तेमाल किया, वह किसी से छिपा नहीं है। मध्य प्रदेश के नेताओं की उमा के सामने मुंह खोलने की हिम्मत नहीं होती थी। जिन बाबूलाल गौर ने उमा की चरण पादुका लेकर मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की थी, वह भी आज अपनी इस नेता को नकारने लगे हैं। शिवराज सिंह चौहान को भी वह फूटी आंख नहीं सुहाती हैं। मध्य प्रदेश भाजपा के नेता डरते थे कि अगर उमा भारती भाजपा में आएंगी तो वह फिर से पुराना रवैया अख्तियार करेंगी। उमा की इस ख्याति से उत्तर प्रदेश भाजपा के नेता अपरिचित नहीं हैं। मध्य प्रदेश भाजपा में अगर कई गुट हैं तो उत्तर प्रदेश इस मामले में उसका बड़ा भाई है। गुटबाज़ी ने ही उत्तर प्रदेश में भाजपा को कहीं का नहीं छोड़ा है। ऐसे में उत्तर प्रदेश के नेता और कार्यकर्ता उमा भारती का नेतृत्व कहां तक स्वीकार करेंगे, यह सोचने वाली बात है। इन सबके बीच एक सवाल अहम है कि क्या उत्तर प्रदेश में भाजपा के नेताओं का संगठन नाकारा हो चुका है,जो उमा भारती मध्य प्रदेश में अपना राजनीतिक अस्तित्व नहीं बचा सकीं, उनसे भाजपा उत्तर प्रदेश में किसी करिश्मे की उम्मीद कैसे कर रही है। बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को भी बैठे-बैठाए भाजपा ने एक मुद्दा थमा दिया है। देखना है कि चुनावी महाभारत में विरोधी दलों के चक्रव्यूह को उमा भारती कैसे तोड़गी।