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भोपाल // डॉ. शशि तिवारी
शरीर स्थूल होता है अत: इसमें होने वाली हर हल-चल, गतिविधि को आसानी से पकड़ा जा सकता है। शरीर प्राय: माता या पिता की ही झलक देता है, फिर वह चाहे हिन्दू हो या मुसलमान लेकिन मन थोड़ा बारीक, तरल, अस्थाई एवं चंचल होता है, जो पल-पल बदलता ही रहता है। मन को आसानी से पकड़ा नहीं जा सकता, मन को बदला भी जा सकता है। मसलन हिन्दू का बच्चा मुसलमान के घर में पले-बढ़े या मुसलमान का बच्चा हिन्दू परिवार में रख दिया जाए तो वह वैसा ही आचरण एवं व्यवहार करने लगेगा। उस छोटे से बच्चे को यह याद भी न रहेगा कि वो कौन था। कहने का आशय मन को बदला जा सकता है, मन में कट्टरता भी पैदा की जा सकती है। कहने को तो बात मनोविज्ञान की है और इसी मनोविज्ञान के आधार पर किसी को भी अतिवादिता के द्वारा न केवल कट्टरपंथी बनाया जा सकता है बल्कि इंसानियत का सबसे कुरूप चेहरा बनाया जा सकता है। आतंकी विचार से आतंकवाद की विचारधारा का भी उदय होता है। यही नहीं बल्कि किसी भी विचारधारा को पनपने या फलने-फूलने में एक लम्बा समय भी लगता है तब कहीं जाकर वह विचारधारा स्थापित हो पाती है। आतंकवाद का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म या समुदाय से नहीं होता। इसकी किसी जाति, धर्म, समुदाय में अधिकता या कमी का होना उस विचारधारा को मानने वालों की संख्या पर निर्भर करता है और इस तरह एक नया वाद ‘‘आतंकवाद’’ का जन्म होता है। आज आतंक का नाम सुनते ही पूरे बदन में डर की सिरहन दौड़ जाती है, दिमाग में बिजलियां कौंधने लगती है, मानव न केवल भयाक्रांत हो जाता है बल्कि अपने को सिकोड़ भी लेता है, सहम भी जाता है, कई बार तो इसकी अधिकता में मनोरोगी भी बन जाता है। आतंक और आतंकवाद को ठीक-ठीक परिभाषित करना बड़ा ही दुष्कर कार्य है। देश, काल, परिस्थितियों से आतंकवाद शुरू होता है, मेरी नजर में आतंक या दहशतगर्दी का मानव के द्वारा किसी बड़े या छोटे समुदाय के विरूद्ध लम्बे समय तक चलाना या चलना ही आतंकवाद हैं। आतंक और आतंकवाद के मूल में इसके संचालन के लिये मजहब, जाति, प्रोफेशनल, उद्देश्य आधारित, राजनीतिक इनमें से कोई एक या सम्मिलित कारण भी हो सकता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आतंकवाद सीमा पर समुदाय विशेष के संदर्भ में ही देखा जा रहा है जो भारत में एक बहस का मुद्दा हो सकता है? लेकिन जो आतंकवाद देश के भीतर ही कुछ विशेष संगठनों या समुदायों के द्वारा संचालित हो रहा है उसका क्या? देश को सबसे ज्यादा खतरा या डर है तो केवल बाहरी देशों के घुसपैठियों से फिर चाहे वो पाकिस्तानी हो या बंग्लादेशी, रहा सवाल देश के भीतर पनप रहे आतंकवादियों की तो वो केवल सरकार का नाकारापन, इच्छा शक्ति की कमी है और वह अपनी जवाबदेही से किसी भी कीमत पर और बहानेबाजी से बच नहीं सकती। कहते भी है ‘‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’’ फिर भी कुछ लोग मजहब को ही लगातार बदनाम करने से बाज नहीं आ रहे हैं। इसमें देश के बाहर और देश के अंदर की परिस्थिति, राजनीति, व्यक्तिगत् महत्वकांक्षा, वर्चस्व की लड़ाई प्रमुख है। आतंकवाद बढ़ाने या फैलाने में सामाजिक जीवन की सबसे कमजोर कड़ी धर्म, परिस्थिति और राजनीति ही होती है। मानव के धर्म भीरू होने, परिस्थितियों या मजबूरियों के चलते या राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उससे कुछ भी करवाया जा सकता है और आज घटित भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। वस्तुत: हकीकत तो यह है कि भारत, आतंकवाद को ले कभी गंभीर रहा ही नहीं, केवल बयानों में ही चिंता, संवेदना, तंत्र, मजबूती की बात करता रहा है। नि:संदेह अमेरिका आतंकवाद को ले न केवल गंभीर रहा है बल्कि उसके गंभीर प्रयासों को भी पूरा विश्व देख रहा है। मसलन अमेरिका में 9/11 के बाद कोई आतंकी घटना सामने नहीं आई। यह अमेरिका की दबंगाई ही है कि उसके मोस्ट वान्टेड ओसामा बिन लादेन को ढूंढने में दूसरे देश (प्रिय मित्र पाकिस्तान) में घुस मार गिराया। अमेरिका से यह राष्ट्र प्रेम, देश भक्ति, जनता के प्रति जवाबदेही सीखने योग्य है। आतंकवाद पर राजनीति और उसमें मजहबी आधार पर वोटनीति जैसा निर्लज्ज, घिनोना कार्य राजनेता अब बन्द करें। उनका यह अपराध देशद्रोह से किसी भी सूरत में कमतर नहीं हैं? अपनी नाकामी, नाकारापन को छिपाने के लिए दूसरों पर दोषारोपण की प्रवृत्ति को भी तथाकथित नेता छोड़े? स्वयं की जवाबदेही समझ निरीह जनता से न केवल माफी मांगे बल्कि नाकाम रहने के कारण दूसरे योग्य सक्षम लोगों को मौका दें? मुम्बई, हैदराबाद, बनारस, दिल्ली शहर आतंकियों के निशाने पर शुरू से ही रहे है। मुम्बई में ही विगत् 18 वर्षों में 16 हमले हो चुके है। केन्द्र में भी इन वर्षों में सभी बड़ी राजनीतिक पार्टियां भी शासन कर चुकी है और सभी का असली चेहरा जनता ने भी देखा है, प्राय: सभी तुष्टीकरण के ही इर्द-गिर्द रहे है। समझ में नहीं आता साहसी आतंकवादी है या सरकार? डरपोक, कायर आतंकवादी है या सरकार? इसे आतंकवादियों का चैलेंज ही कहेंगे कि धर्मनगरी वाराणसी, हाईटेक शहर हैदराबाद, माया और व्यापारिक नगरी मुंबई और भारत का दिमाग दिल्ली को विगत् 20 वर्षों में इन चार शहरों को ही आतंकवाद से मुक्त नहीं कर पाए? अब सूझ नहीं पड़ता कि एवार्ड किसे दिया जाए? किसे सजा दी जाए? हिम्मत धीरे-धीरे ही बढ़ती है अचानक नहीं भारत का दिमाग अर्थात् संसद और न्यायपालिका दोनों के मगज पर हमला कर आतंकवादियों ने अभी तक अपनी चतुराई का ही परिचय दिया है? और शासन ने नपुंसक होने का? इस विषम परिस्थिति में भारत की जनता के सामने यक्ष प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि अपनी सुरक्षा के लिये वह क्या अमेरिका से मदद मांगें? क्या उन्हें भारत पर शासन करने के लिये बुलाये? चूंकि हमारे देश के नियंता सभी मोर्चों पर असफल रहे हैं फिर चाहे वो आतंकवाद हो महंगाई हो भुखमरी हो। भारत की जनता अपने खून पसीने की कमाई टैक्स में अपने अमन-चैन व शांति के लिये, सुरक्षा के लिये, विकास के लिये देती है न कि अशांति, असुरक्षा, असमय काल के गाल में समाने लिये वक्त नाजुक है, बल्कि चिंतन और शिद्दत से काम करने का है नाटक, नौटंकी का नहीं।