By आर.एल.फ्रांसिस
भारतीय ईसाइयों के बारे में वेटिकन की सोच
तथ्यों पर अधारित नही है. इसी का नतीजा है कि पोप की ‘बहुधर्म संवाद परिषद’
(पोंटीफिसिकल काउंसिल फॉर इंटरिलीजयस डायलाग) ने भारतीय हिंदुओं के नाम
दीपावली के अवसर पर जारी अपील में ईसाई धर्म विरोधी कुप्रचार के खिलाफ लड़ने
का आहृान किया है। वेटिकन द्वारा जारी अपील में कहा गया है कि "दीपावली
असत्य पर सत्य की, अंधकार पर प्रकाश और बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व है।
हिंदू एवं ईसाई घृणित और कुप्रचार के खिलाफ मिलकर लड़े और आपसी विश्वास के
साथ धार्मिक स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करें।" पोप का यह संदेश छद्म है
और कुटिलताओं से भरा है। इस संदेश की आड़ में वे देश में जारी धर्मांतरण को
जायज ठहराने की कोशिश कर रहे हैं।
क्या वेटिकन और उसके पदाधिकारियों को इस बात की जानकारी नही है
कि भारत में कैथोलिक चर्च और ईसाइयों को उतनी ही धार्मिक स्वतंत्रता
प्राप्त है जितनी यहां के बहूसंख्यक हिंदुओं को। इसी स्वतंत्रता का प्रमाण
है कि पोप बेनडिक्ट 16वें के भारत में प्रतिनिधी बिशप स्लवाटोर पान्शियों
(वेटिकन द्वारा भारत में नियुक्त राजदूत) बिना किसी अवरोध के पोप की सहमति
से भारतीय बिशपों को नियुक्त करते जा रहे है। बिना किसी अवरोध के नये चर्चो
एवं स्कूलों का निर्माण कराया और उन्हें अल्पसंख्यक अधिकारों के तहत चलाया
जा रहा है। इतना सब होने के बावजूद आखिर वेटिकन को चर्च के लिए और कैसी
धार्मिक स्वतंत्रता चाहिए?
वेटिकन का मानना है कि पिछले कुछ समय से ईसाइयों को हिंदू अतिवादियों के कारण हिंसा और उत्पीड़न की घटनाओं का सामना करना पड़ा है। कई राज्यों में कानून के कारण धर्म प्रचारकों को काम करने में दिक्कतें आ रही है। लेकिन वेटिकन को यह भी समझना चाहिए कि हालही के वर्षो में जो दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं कुछ राज्यों में घटी है उनके पीछे के मूल कारण ‘धर्मांतरण’ और दूसरों की ‘आस्था और विश्वास’ में कुछ धर्म प्रचारकों का अनावश्यक हस्तक्षेप ही था। इस तथ्य की तरफ इशारा उड़ीसा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश आदि राज्य सरकारों द्वारा नियुक्त किये गये जांच आयोगों ने भी किया है। धार्मिक क्रियाकलाप करने में भारत के ईसाइयों को कोई दिक्कत नही है।
चर्च और उसके धर्म प्रचारकों को दिक्कत वहां ही आती है जहां वह चर्च के साम्राज्यवाद को बढ़ाने की अनैतिक कोशिश करते है। हालाकि इस तथ्य से भी इन्कार नही किया जा सकता कि देश के दूर दराज के क्षेत्रों में अशिक्षा और गरीबी के कारण वंचित समूह खासकर आदिवासी समुदाय लगातार ऐसे धर्म प्रचारको का निशाना बने हुए है। क्या यह जरुरी है कि ईसाई धर्म प्रचारक उसी की सहायता करें जो उनकी शरण में आयें। ईसा मसीह ने अपने अनुयायियों से कहा था कि अगर तुम अपने प्रेम रखनेवालों से ही प्रेम रखो, तो तुम्हारे लिये क्या फल होगा? क्या कर वसूलने वाले भी ऐसा नही करते? इसलिये तुम सिद्ध बनों वैसे ही जैसे ईश्वर बिना भेदभाव सब पर अपनी करुणा करता है। (मती 5ः 47-48)
आदिवासी एवं दलित समहों के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप के कारण तनाव बढ़ता जा रहा है। वेटिकन जिन हिंदू अतिवादियों की तरफ इशारा कर रहा है उनका स्पष्ट मत है कि चर्च से जुड़े सामाजिक संगठन विदेशी धन के बलबूते देश में चर्च के लिए धर्मांतरण की जमीन तैयार कर रहे है, जबकि इन्हें विदेशी अनुदान सामाजिक गतिविधयों के कार्यकलाप के लिये ही मिलता है। इतने के बावजूद ईसाई बन चुके आदिवासी एवं दलित समूहों के हालात सुधर गए हों, ऐसा भी नही है।
भारतीय कैथोलिक ईसाइयों की कुल जनसंख्या का दस प्रतिशत से भी ज्यादा छोटानागपुर में आदिवासी समुदाय है। चर्च के पास विशाल संसाधनों के बावजूद उनकी स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नही हुआ है। चर्च के दस्तावेजो के अनुसार आज दिल्ली जैसे शहर में ही घरेलू कामगार लड़कियों में 91.47 प्रतिशत ईसाई एवं बहूसंख्यक कैथोलिक और छोटानागपुर से है जबकि गैर ईसाई आदिवासी सरना लड़कियों का प्रतिशत 1.3 प्रतिशत ही है। ईसाई समुदाय की कुल जनसंख्या का 60 प्रतिशत धर्मांतरित दलित ईसाई है जिन्हें पोप के प्रतिनिधि पुनः हिन्दू दलितों की सूची में शामिल करवाने के लिए सरकार पर राष्ट्रीय और अतंरराष्ट्रीय दबाव बनाये हुए है। साफ है कि धर्मांतरण मुक्ति का द्वार नही है।
पोप बेनिडिक्ट सोहलवें ने ‘विश्व शांति के लिए 27 अक्टूबर को इटली के असीसी में दुनियां के विभिन्न देशों के 200 धर्माचार्यों व मतावलंबियों के साथ साझा बैठक बुलाई है। ऐसी बैठकों की शुरुआत 1986 में पोप जान पॉल द्वितीय ने की थी। 2009 में भारतीय चर्च ने मुंबई में सर्वधर्म सौहार्द बैठक का आयोजन किया था जिसमें शंकरचार्य स्वामी जयेंद्र सरस्वती और कई अन्य धर्माचार्यों के साथ वेटिकन के प्रतिनिधि कार्डीनल जन लाउस ने बातचीत की थी। जानकारों के मुताबिक ऐसी बैठकों में भी सौहार्द में धर्मांतरण को बड़ी बाधा माना गया है।शायद इस बात से वेटिकन को भी इनकार नही होगा कि आज ईसाइयत में धर्म प्रचार की सफलता और असफलता को संख्याओं के साथ जोड़कर ही आंका जाता है। पूरे विश्व में ‘ईसायत’ के अंदर ही भेड़-चोरी (शीप-सिंटंिलग) का कितना जोर है। भारत भी इससे अछूता नही है।
वेटिकन का मानना है कि पिछले कुछ समय से ईसाइयों को हिंदू अतिवादियों के कारण हिंसा और उत्पीड़न की घटनाओं का सामना करना पड़ा है। कई राज्यों में कानून के कारण धर्म प्रचारकों को काम करने में दिक्कतें आ रही है। लेकिन वेटिकन को यह भी समझना चाहिए कि हालही के वर्षो में जो दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं कुछ राज्यों में घटी है उनके पीछे के मूल कारण ‘धर्मांतरण’ और दूसरों की ‘आस्था और विश्वास’ में कुछ धर्म प्रचारकों का अनावश्यक हस्तक्षेप ही था। इस तथ्य की तरफ इशारा उड़ीसा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश आदि राज्य सरकारों द्वारा नियुक्त किये गये जांच आयोगों ने भी किया है। धार्मिक क्रियाकलाप करने में भारत के ईसाइयों को कोई दिक्कत नही है।
चर्च और उसके धर्म प्रचारकों को दिक्कत वहां ही आती है जहां वह चर्च के साम्राज्यवाद को बढ़ाने की अनैतिक कोशिश करते है। हालाकि इस तथ्य से भी इन्कार नही किया जा सकता कि देश के दूर दराज के क्षेत्रों में अशिक्षा और गरीबी के कारण वंचित समूह खासकर आदिवासी समुदाय लगातार ऐसे धर्म प्रचारको का निशाना बने हुए है। क्या यह जरुरी है कि ईसाई धर्म प्रचारक उसी की सहायता करें जो उनकी शरण में आयें। ईसा मसीह ने अपने अनुयायियों से कहा था कि अगर तुम अपने प्रेम रखनेवालों से ही प्रेम रखो, तो तुम्हारे लिये क्या फल होगा? क्या कर वसूलने वाले भी ऐसा नही करते? इसलिये तुम सिद्ध बनों वैसे ही जैसे ईश्वर बिना भेदभाव सब पर अपनी करुणा करता है। (मती 5ः 47-48)
आदिवासी एवं दलित समहों के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप के कारण तनाव बढ़ता जा रहा है। वेटिकन जिन हिंदू अतिवादियों की तरफ इशारा कर रहा है उनका स्पष्ट मत है कि चर्च से जुड़े सामाजिक संगठन विदेशी धन के बलबूते देश में चर्च के लिए धर्मांतरण की जमीन तैयार कर रहे है, जबकि इन्हें विदेशी अनुदान सामाजिक गतिविधयों के कार्यकलाप के लिये ही मिलता है। इतने के बावजूद ईसाई बन चुके आदिवासी एवं दलित समूहों के हालात सुधर गए हों, ऐसा भी नही है।
भारतीय कैथोलिक ईसाइयों की कुल जनसंख्या का दस प्रतिशत से भी ज्यादा छोटानागपुर में आदिवासी समुदाय है। चर्च के पास विशाल संसाधनों के बावजूद उनकी स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नही हुआ है। चर्च के दस्तावेजो के अनुसार आज दिल्ली जैसे शहर में ही घरेलू कामगार लड़कियों में 91.47 प्रतिशत ईसाई एवं बहूसंख्यक कैथोलिक और छोटानागपुर से है जबकि गैर ईसाई आदिवासी सरना लड़कियों का प्रतिशत 1.3 प्रतिशत ही है। ईसाई समुदाय की कुल जनसंख्या का 60 प्रतिशत धर्मांतरित दलित ईसाई है जिन्हें पोप के प्रतिनिधि पुनः हिन्दू दलितों की सूची में शामिल करवाने के लिए सरकार पर राष्ट्रीय और अतंरराष्ट्रीय दबाव बनाये हुए है। साफ है कि धर्मांतरण मुक्ति का द्वार नही है।
पोप बेनिडिक्ट सोहलवें ने ‘विश्व शांति के लिए 27 अक्टूबर को इटली के असीसी में दुनियां के विभिन्न देशों के 200 धर्माचार्यों व मतावलंबियों के साथ साझा बैठक बुलाई है। ऐसी बैठकों की शुरुआत 1986 में पोप जान पॉल द्वितीय ने की थी। 2009 में भारतीय चर्च ने मुंबई में सर्वधर्म सौहार्द बैठक का आयोजन किया था जिसमें शंकरचार्य स्वामी जयेंद्र सरस्वती और कई अन्य धर्माचार्यों के साथ वेटिकन के प्रतिनिधि कार्डीनल जन लाउस ने बातचीत की थी। जानकारों के मुताबिक ऐसी बैठकों में भी सौहार्द में धर्मांतरण को बड़ी बाधा माना गया है।शायद इस बात से वेटिकन को भी इनकार नही होगा कि आज ईसाइयत में धर्म प्रचार की सफलता और असफलता को संख्याओं के साथ जोड़कर ही आंका जाता है। पूरे विश्व में ‘ईसायत’ के अंदर ही भेड़-चोरी (शीप-सिंटंिलग) का कितना जोर है। भारत भी इससे अछूता नही है।
पूर्वोत्तर का सारा क्षेत्र गरीब
आदिवासियों एवं पूर्वातीय लोगो से भरा हुआ है। धर्मांतरण को लेकर इस
क्षेत्र में कैथोलिक और प्रटोस्टेंट मिशनरियों में भारी हिंसा हो रही है।
स्थानीय कैथोलिक बिशप ‘‘जोस मुकाला’’ के अनुसार कोहिमा क्षेत्र में
प्रटोस्टेंट ईसाई कैथोलिक ईसाइयों को जोर-जबरदस्ती प्रटोस्टेंट बनाने पर
तुले हुए है उनके घर एवं अन्य संपत्ति को जलाया या बर्बाद किया जा रहा है।
वे कैथोलिक ईसाइयों की सुरक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ तक गुहार लगा
चुके है। कुछ वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश के कैथोलिक और कुछ प्रटोस्टेंट
मिशनरियों ने तय किया कि वह एक दूसरे के सदास्यों का धर्मांतरण नही करेगें।
इसका अर्थ साफ है कि अब संख्याबल कहां से आयेगा।
इसी महीने भोपाल में आदिवासी महोत्सव के नाम पर नो राज्यों के सैकड़ों आदिवासी प्रतिनिधियों को कैथोलिक चर्च द्वारा जुटाया गया। चर्च के मुताबिक महोत्सव का मकसद आदिवासियों को उनके सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक शोषण से आजाद करवाना था। उन्हें बार बार यह घुट्टी पिलाई गई कि वह हिन्दू नहीं है। वे अपना धर्म चुनने के लिए स्वतंत्र है। मकसद साफ था उन्हें चर्च को चुनने के लिए प्रेरित करना। दरअसल दो वर्ष पूर्व कैथोलिक चर्च ने कहा था कि आदिवासियों में चर्च अभी शैशवकाल में है, संकेत साफ है हालांकि ऐसी गतिविधियों के कारण आदिवासी समुदाय ईसाई और गैर-ईसाई की श्रेणी में विभाजित होता जा रहा है। उनके अंदर ही अविश्वास की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है।
वेटिकन की ‘बहुधर्म संवाद परिषद’ के अध्यक्ष जन लुइस टाउरन और महासचिव पियर लुई कैलाटा ने जारी संदेश में भारत में कुछ राज्य सरकारों द्वारा लागू धर्मांतरण विरोघी कानूनों का जिक्र करते हुए कहा है कि इस कारण धर्म प्रचारकों को काम करने में दिक्कत आ रही है।
इसी महीने भोपाल में आदिवासी महोत्सव के नाम पर नो राज्यों के सैकड़ों आदिवासी प्रतिनिधियों को कैथोलिक चर्च द्वारा जुटाया गया। चर्च के मुताबिक महोत्सव का मकसद आदिवासियों को उनके सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक शोषण से आजाद करवाना था। उन्हें बार बार यह घुट्टी पिलाई गई कि वह हिन्दू नहीं है। वे अपना धर्म चुनने के लिए स्वतंत्र है। मकसद साफ था उन्हें चर्च को चुनने के लिए प्रेरित करना। दरअसल दो वर्ष पूर्व कैथोलिक चर्च ने कहा था कि आदिवासियों में चर्च अभी शैशवकाल में है, संकेत साफ है हालांकि ऐसी गतिविधियों के कारण आदिवासी समुदाय ईसाई और गैर-ईसाई की श्रेणी में विभाजित होता जा रहा है। उनके अंदर ही अविश्वास की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है।
वेटिकन की ‘बहुधर्म संवाद परिषद’ के अध्यक्ष जन लुइस टाउरन और महासचिव पियर लुई कैलाटा ने जारी संदेश में भारत में कुछ राज्य सरकारों द्वारा लागू धर्मांतरण विरोघी कानूनों का जिक्र करते हुए कहा है कि इस कारण धर्म प्रचारकों को काम करने में दिक्कत आ रही है।
वेटिकन को समझना चाहिए कि भारत
का संविधान किसी भी धर्म का अनुसरण करने की आजादी देता है उसमें निहित
धर्मप्रचार को भी मान्यता देता है। लेकिन धर्मप्रचार और धर्मांतरण के बीच
एक लक्ष्मण रेखा भी है। यदि धर्मांतरण कराने का प्रमुख उदे्श्य लेकर घूमने
वाले संसाधनों से लैस संगठित संगठनों को खुली छूट दी जाए तो राज्य का यह
कत्वर्य बन जाता है कि वह इसमें हस्तक्षेप करें। क्योंकि जहां भी अधिक
संख्या में धर्मांतरण हुए है, सामाजिक तनाव में वृद्वि हुई है। वेटिकन
द्वारा जारी अपील से सौहार्द का वातावरण तलाशने में बड़ी भूमिका चर्च की ही
है। अब समय आ गया है कि चर्च को धर्म प्रचार पर खर्च होने वाले धन को अपने
उन अनुयायियों (धर्मांतरित ईसाइयों) पर खर्च करना चाहिए जो चर्च के अंदर ही
शोषण और उत्पीड़न का शिकार हो रहे है। वेटिकन को उनकी मुक्ति के बारे में
सोचना चाहिए।
आर.एल.फ्रांसिस
पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मुवमेन्ट के अध्यक्ष आर एल फ्रांसिस ईसाई मिशनरियों के बीच व्याप्त भेदभाव और कटुता के खिलाफ लगातार अपनी आवाज बुलंद किये हुए हैं.