Mani Ram Sharma
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अमेरिका के मिसिसिपी प्रान्त के सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीश लीघ एन डर्बी के विरुद्ध अपने निर्णय दिनांक 29.08.11 में पाया है कि न्यायाधीश डर्बी ने न्यायिक आचार संहिता के नियम 1, 2ए, और 3बी (2) का उल्लंघन किया है और परिणाम स्वरूप मिसिसिपी के संविधान की धारा 177ए के अंतर्गत कार्यवाही योग्य है| मामले के तथ्य इस प्रकार हैं कि दिनांक 13.08.09 को एल जे की एक पन्द्रह वर्षीय पुत्री टी को गिरफ्तार किया गया और उस पर आरोप लगाया गया कि उसने शांति भंग की है| 14.08.09 को इस प्रकरण
की सुनवाई में न्यायाधीश डर्बी ने उसे घर में बंदी बनाये रखे जाने का आदेश
दिया| आगे सुनवाई में टी के मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा उठा तो न्यायाधीश
डर्बी को ज्ञात हुआ कि टी ने स्वास्थ्य बीमा नहीं करवा रखा है| न्यायाधीश
डर्बी ने मौखिक आदेश दिया कि टी की माता टी की ओर से स्वास्थ्य सहायता के
लाभों के लिए आवेदन करे|
दिनांक 07.06.10 को
टी की पुनः गिरफ़्तारी पर न्यायाधीश डर्बी ने दूसरी सुनवाई की| इस सुनवाई
में न्यायाधीश को ज्ञात हुआ कि टी ने अभी तक स्वास्थ्य बीमा नहीं
करवाया है जबकि उसकी माँ को उसके नियोक्ता ने स्वास्थ्य बीमा का प्रस्ताव
रखा था| न्यायाधीश डर्बी ने टी की माँ द्वारा स्वास्थ्य बीमा न करवाने पर
भर्त्सना की और मौखिक रूप से माँ को स्वास्थ्य सहायता के लिए आवेदन करने को
कहा| न्यायाधीश ने आगे यह भी मौखिक निर्देश दिया कि इस हेतु वह पार्कवूड अस्पताल से संपर्क करे| दिनांक 08.06.10 को, न्यायाधीश के मौखिक निर्देशानुसार टी की माँ उसे पार्कवूड ले गयी | पार्कवूड के
स्टाफ ने निश्चय किया कि टी का इनडोर रोगी के तौर पर उपचार किया जाये
किन्तु टी चूँकि बीमित नहीं थी अतः ऐसा उपचार प्रारम्भ नहीं किया जा सका|
बाद में उसकी माँ ने स्वास्थ्य सहायता हेतु आवेदन किया वह भी मना कर दिया
गया क्योंकि वह पात्रता की शर्तें पूरी नहीं करती थी|
यद्यपि
टी को बाल स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम के लिए मंजूरी दी गयी और टी की माता
से एक गारंटी समझौते को हस्ताक्षर करने के लिए कह गया कि इस कार्यक्रम में
यदि किसी खर्चे से मना कर दिया जाय तो वह व्यक्तिगत जिम्मेदारी लेगी|
रोजाना आने जाने के खर्चों व उससे जुडी परेशानी को देखते हुए टी की माता ने
निष्कर्ष निकाला कि वह आउटडोर रोगी के रूप में यह खर्च वाहन नहीं कर
सकेगी|
न्यायाधीश डर्बी के न्यायालय के सलाहकार ने टी की माँ को यह कहा कि यदि उसने टी को पार्कवूड में नहीं छोड़ा तो वह न्यायालय के अवमान की दोषी होगी| आगे उस सलाहकार ने (टी की) माँ को डर्बी के न्यायालय में अपरान्ह 2 बजे सुनवाई के लिए उपस्थित होने को कहा| न्यायाधीश डर्बी ने माँ को ताते काउंटी जेल में 3
बजे रिपोर्ट करने के लिए आदेश दिया ताकि उसे उसे अभिरक्षा में लिया जा सके
और आगामी आदेश तक उसे अभिरक्षा में रखा जा सके| तीन दिन बाद दिनांक 19.07.10 को न्यायाधीश डर्बी के समक्ष लाने के बाद माँ को छोड़ा गया|
मामले के तथ्यों से स्वस्पष्ट था कि (1) माँ पर जो आरोप लगाये गए उनके लिए कोई कथन दाखिल नहीं किये गए थे (2) माँ को सुनवाई के लिए कोई नोटिस नहीं दिया गया था (3) माँ को सुनवाई के लिए उपयुक्त समय नहीं दिया गया था और (4)
माँ को उपयुक्त सलाहकार के लिए भी अवसर नहीं दिया गया था| फिर भी निष्कर्ष
रूप में टी की माँ को पार्क वूड में टी के इलाज करवाने में असफल रहने पर
अवमान का दोषी ठहराया गया जिसका कि कोई रिकोर्ड नहीं था|
दिनांक 18.12.10 को माँ की नागरिक शिकायत पर न्यायिक आयोग ने न्यायाधीश डर्बी
के विरुद्ध एक औपचारिक शिकायत दर्ज की| शिकायत में आरोप था कि न्यायाधीश
डर्बी ने न्यायिक आचार संहिता के विभिन्न नियमों का उल्लंघन किया है जिसके
लिए उसे संविधान की धारा 177ए के अंतर्गत दण्डित किया जाना चाहिए|
कार्यवाही
के दौरान न्यायाधीश डर्बी भी इस बात से सहमत हो गयी कि आपराधिक अवमान के
लिए टी की माँ को उसने उसे उचित प्रक्रिया के अंतर्गत अधिकार को अपनाने दिए
बिना गलत रूप से दण्डित किया जिससे नियमों का उल्लन्घन हुआ है| न्यायाधीश
इस बात पर भी सहमत थी कि उसका आचरण संविधान की धारा 177ए
के अंतर्गत दंडनीय था क्योंकि ऐसा आचरण; दुराचरण व न्याय प्रशासन के हित
के विपरीत था जो कि न्यायिक पद की बदनामी करता है| सार्वजानिक भर्त्सना, 500 डॉलर अर्थदंड और 100 डॉलर खर्चे की संयुक्त रूप से सिफारिश की गयी|
सुप्रीम कोर्ट ने आगे यह भी पाया कि टी की माँ ने बिना लिखित आदेश के भी न्यायाधीश डर्बी के निर्देशों की अनुपालना की थी| सुप्रीम
कोर्ट का यह भी मत था कि अप्रत्यक्ष या रचनात्मक आपराधिक अवमान की स्थिति
में जब मामले में ट्रायल न्यायाधीश की सारभूत संलिप्सा हो तो अवमानकारी की ट्रायल अन्य न्यायाधीश द्वारा की जानी चाहिए| न्यायाधीश डर्बी ने इस मामले से दूर न रहकर अपनी अवमान शक्तियों का दुरूपयोग किया है| अवमान की शक्तियों का यह दुरूपयोग न्याय-प्रशासन के हित के विपरीत है| तदनुसार न्यायाधीश डर्बी को सार्वजानिक भर्त्सना, 500 डॉलर जुर्माने और 100 डॉलर खर्चे से दण्डित किया गया|
उल्लेखनीय
है की भारत में अमेरिका के समान इस प्रकार के न्यायिक उदाहरण मिलना दुर्लभ
है जहाँ स्वयं न्यायाधीश को ही अवमान कानून के दुरुपयोग का दोषी पाया गया
हो| यहाँ तो स्थिति यह है कि अत्यंत तुच्छ मामलों में भी नागरिकों को
दण्डित कर नियंत्रणहीन न्यायिक शक्तियों का एहसास करवा दिया है
और सुप्रीम कोर्ट तक भी इस सजा से मुक्ति दिया जाना असंभव नहीं तो कठिन
अवश्य है| भारत में यह सब इसलिए घटित हो रहा है कि न्यायिक एजेंसी पर
नियंत्रण के लिए अलग से कोई स्वतंत्र निकाय का अभाव है
और अनियंत्रित न्यायपालिका स्वानुशासन की परिधि से बाहर स्वछन्द विचरण कर
रही है| कोई भी वरिष्ठ न्यायाधीश सामान्यतया अपने कनिष्ठ भाई-बंधुओं के
विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करना चाहता है क्योंकि स्वाभाविक रूप से आखिर
वे सभी एकजुट हम-पेशेवर हैं|
भारत के न्यायालय अवमान अधिनियम की धारा 10 के
परंतुक में कहा गया है कि कोई भी उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायालयों
के संबंध में ऐसे अवमान का संज्ञान नहीं लेगा जो भारतीय दंड संहिता के
अंतर्गत दंडनीय हैं| न्यायाधीशों के साथ अभद्र व्यवहार , गली गलोज, हाथापाई
आदि ऐसे अपराध हैं जो स्वयं भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय
हैं और उच्च न्यायालयों को ऐसे प्रकरणों में संज्ञान नहीं लेना चाहिए|
किन्तु उच्च न्यायालय अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न समझकर ऐसे तुच्छ मामलों में
भी कार्यवाही करते हैं|