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मनीराम शर्मा
न्यायालयों एवं पुलिस को को अक्सर शिकायत रहती है कि जनता उन्हें सहयोग नहीं करती फलत अपराधी बिना दण्डित हुए छूट जाते हैं| किन्तु इस प्रक्रम में शायद ये दोनों एजेंसियां स्वयं अपनी भूमिका का मूल्यांकन नहीं करती हैं| माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इन्द्रमोहन गोस्वामी के मामले में यह सिद्धांत प्रतिपादित कर रखा है कि एक अभियुक्त को आहूत करने के लिए प्रथमत तो समन जारी किया जाना चाहिए, समन की उचित तामिल होने के बाद भी वह उपस्थित न हो तो जमानती वारंट जारी किया जाना चाहिए और गिरफ्तारी वारंट का सहारा तो अंतिम चरण के रूप में जमानती वारंट की तामिल के उपरान्त भी उपस्थित नहीं होने पर ही लिया जाना चाहिए| संभव है आहूत व्यक्ति अपनी स्वयम या किसी प्रियजन की अस्वस्थता या दुर्घटना जैसे किसी विवशकारी कारण से समय पर उपस्थित नहीं हो सका हो अतः जमानती या गिरफ्तारी वारंट जारी करने से पूर्व न्यायहित में उसे एक अवसर और दिया जाना चाहिए |
हितबद्ध पक्षकारों द्वारा भेंट चढ़ाये बिना पुलिस प्रायः समन तामिल नहीं करवाती है| ऐसा देखा गया है कि प्रायः मामलों में गवाहों के लिए समन हेतु बीस से भी अधिक बार आदेश हो जाते हैं किन्तु पुलिस समन तामिल नहीं करवाती और कुछ अपवित्र कारणों से, मजिस्ट्रेट ऐसी अवज्ञा के लिए पुलिस पर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 91 व 349 के अंतर्गत कोई कार्यवाही नहीं करते हैं व पुलिस के वरिष्ठ अधिकारीयों को डी ओ लेटर लिखते हैं|जहां कहीं भी आपवादिक तौर पर यह कार्यवाही होती है वह मात्र दिखावटी और नाक बचाने के लिए ही की जाती है| आखिर समन की उचित तामिल के बिना ही शक्ति के अनुचित प्रयोग से गवाहों पर भी जमानती वारंट जारी कर दिए जाते हैं और जनता को संविधान से प्राप्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मूल्यवान अधिकार से न्यायालयों द्वारा निस्संकोच वंचित कर दिया जाता है|
इस प्रकार गवाहों के प्रति न्यायालयों और पुलिस का सामूहिक रवैया प्रतिकूल रहता है और उनके साथ अभियुक्तों से भी निम्नतर श्रेणी का व्यवहार किया जाता है| ये न्यायालय जनता को न्यायालय कम और यातना केंद्र अधिक दिखाई देते हैं| चूँकि न्यायालयों पर किसी अन्य बाहरी ऐजेंसी का नियंत्रण नहीं है और निचले न्यायालयों को स्वयं उच्च न्यायालय का संरक्षण प्राप्त है अतः उन्हें कोई भी अनुचित कार्य करते समय भय शेष नहीं रह गया है| न्यायपालिका से जुड़े लोगों का कहना होता है कि न्यायपालिका का भयमुक्त व स्वतंत्र होना आवश्यक है किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि न्यायाधीश नियुक्त होते समय ही यह शपथ लेते हैं कि वे रागद्वेष और भयमुक्त होकर कार्य करेंगे और जहां तक स्वतंत्र और निष्पक्ष होकर कार्य करने का प्रश्न है स्वच्छ शासन के लिए यह मात्र न्यायाधीशों के लिए ही नहीं अपितु प्रत्येक लोक सेवक के लिए आवश्यक है| इस प्रकार न्यायाधीश भी लोकसेवक होते हुए किसी भी प्रकार से सुरक्षा की विशेष श्रेणी की पात्रता नहीं रखते हैं|
न्यायालयों एवं पुलिस द्वारा एक ओर संसाधनों की कमी का बहाना बनाया जाता है तो दूसरी ओर दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार रजिस्टर्ड डाक से 25/= रुपये के खर्चे से समन भेजने के स्थान पर पुलिस के माध्यम से व्यक्तिगत तामिल करवाई जाती है जिस पर लगभग 1000/=रुपये खर्चा आता है| इस प्रकार उपलब्ध सीमित साधनों-संसाधनों का दुरुपयोग किया जाता है| सिविल प्रक्रिया संहिता में विपक्षी को जवाब देने के लिए न्यूनतम 30 दिन का समय न्यायालय द्वारा दिया जाता है जबकि पुलिस समन या वारंट की तामिल प्रायः ऍन वक्त पर करवाती है| न्यायालयों को गवाहों की असुविधा और सम्मान का ध्यान रखना चाहिए और उन्हें मात्र समन की न्यूनतम 7 दिन पूर्व तामिल के लिए पुलिस को आदिष्ट करना चाहिए न की अपराधियों की भांति सम्माननीय और जिम्मेदार नागरिकों को भी वारंट भेजने चाहिए| स्वतंत्र गवाहों को आहूत करते समय उन्हें खर्चे भी अग्रिम तौर पर दिए जाने चाहिए|
मात्र इतना ही नहीं, सुनवाई के लिए जारी होने वाले सभी नोटिसों में प्रातः प्रथम घंटे का ही समय दिया जाता है जिससे गवाहों का समय अनावश्यक रूप से बर्बाद होता है| नोटिस जारी करते समय गवाहों के कार्य व जीविकोपार्जन में व्यवधान का न्यायाधीशों द्वारा कोई ध्यान नहीं रखा जाता है मानो कि नागरिकों का पेशा एक मात्र गवाही देना ही हो| यही नहीं सुनवाई के लिए बनाई गयी हेतुक सूचि के क्रम का भी प्रायः कोई ध्यान नहीं रखा जाता है और सुप्रीम कोर्ट तक में भी मनमाने क्रम में सुनवाई की जाती है|
निचले न्यायालयों द्वारा जमानत नहीं लेने के पीछे यह जन चर्चा का विषय होना स्वाभाविक है कि जिन कानूनों और परिस्थितियों में शीर्ष न्यायालय जमानत ले सकता है उन्हीं परिस्थितियों में निचले न्यायालय जमानत क्यों नहीं लेते| देश का पुलिस आयोग भी कह चुका है कि 60 % गिरफ्तारियां अनावश्यक होती हैं तो आखिर ये गिरफ्तारियां होती क्यों हैं और जमानत क्यों नहीं मिलती| इस प्रकार अनावश्यक रूप से गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को मजिस्ट्रेट द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 59 के अंतर्गत बिना जमानत छोड़ दिया जाना चाहिए व पुलिस आचरण की भर्त्सना की जानी चाहिए किन्तु न तो वकीलों द्वारा ऐसी प्रार्थना की जाती है और न ही मजिस्ट्रेटों द्वारा ऐसा किया जाता है| ये यक्ष प्रश्न आम नागरिक को रात दिन कुरेदते हैं| वैसे विश्लेषण से ज्ञात होगा कि न्याय तंत्र से जुड़े सभी लोगों का गिरफ्तारी में हित है अतेव अनावश्यक होते हुए भी अंग्रेजी शासन से लेकर स्वतंत्र भारत में भी गिफ्तारियाँ बदस्तूर जारी हैं| यह भी विडम्बना है कि भारतीय कानून एक तरफ तो कहते हैं कि जब तक दोषी प्रमाणित न हो प्रत्येक व्यक्ति निर्दोष है और दोष सिद्ध व्यक्ति को भी प्रोबेसन पर छोड़ा जा सकता है जबकि दूसरी और मात्र संदिग्ध (अभियुक्त) को जमानत नहीं दी जाती है|
एक ओर पुलिस द्वारा जमानतीय अपराधों में भी जमानत से मना कर दिया जाता है दूसरी ओर पेशेवर, प्रभावशाली और खूंखार अपराधी स्वतंत्र विचरण करते रहते हैं| भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अपराधों के विषय में कानून में जमानतियता के विषय में कुछ भी स्पष्ट नहीं है अतः सी बी आई तो रंगे हाथों पकडे जाने पर भी अभियुक्त को स्वयं जमानत पर छोड़ देती है जबकि राज्य पुलिस जमानत पर नहीं छोडती है| स्थिति तब और विकट हो जाती है जब न्यायालय द्वारा भी जमानत से मना कर दिया जाता है| इस प्रकार भारत में पुलिस और न्यायालयों द्वारा कानून की मनमानी व्याख्याएं कर नागरिकों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है|
भारत के न्यायालयों पर किसी अन्य एजंसी का नियंत्रण नहीं है अतः कनिष्ठ न्यायाधीश को वरिष्ठ का संरक्षण प्राप्त हो तो उसका बाल भी बांका नहीं हो सकता| यहाँ न्यायालयों में मामलों का अंतिम निस्तारण तो आपवादिक बात है बाकि इन न्यायालयों को “जमानत और स्टे के न्यायालय” कहा जाय तो अधिक उपयुक्त होगा| जमानत ही हमारी वर्तमान न्याय प्रणाली की जान है| यह भी चर्चा है कि न्यायाधीशों के मध्य एक गुप्त समझाइश कार्य करती है कि निचले स्तर के न्यायालय न्यूनतम जमानतें देंगे ताकि ऊपरी न्यायालयों में जमानत के अधिकतम प्रकरण पहुंचें और इसके बदले कनिष्ठ न्यायाधीशों को अभयदान दे दिया जाता है कि उनके विरुद्ध आने वाली शिकायतों पर ध्यान नहीं दिया जायेगा अन्यथा परिणाम के लिए वे तैयार रहें| राजस्थान उच्च न्यायालय में एक वर्ष में लगभग 18000 जमानत आवेदन आते हैं जिससे इस रहस्य को समझने में और आसानी होगी|
उच्च न्यायालय स्तर पर जमानत होने में मात्र न्यायाधीशों का ही भला नहीं है अपितु वहाँ प्रक्टिस करनेवाले वकीलों का भी भला है क्योंकि एक पूर्ण परीक्षण वाले मामले में मिलने वाली फीस के मुकाबले 4-5 पृष्ठ की याचिका और 10 मिनट की बहस के लिए भारी भरकम फीस तुरंत मिल जाती है| वकील समुदाय में इस चर्चा को आसानी सुना जा सकता है कि जमानत मिल जाने पर प्रायः न्यायाधीश, उनके स्टाफ, वकील के मुंशी , पुलिस, सरकारी वकील आदि सभी को बख्शीस मिलती जो है| जिस दिन न्यायालयों में जमानत का कोई प्रकरण नहीं आये उस दिन न्यायतंत्र से जुड़े सभी उदास दिखाई देते हैं|
अग्रिम जमानत के आवेदन में भी न्यायाधीशों द्वारा पुलिस डायरी का अवलोकन किया जाता है और बिना भेंट के पुलिस यह डायरी भी समय पर प्रस्तुत नहीं करती है| कई बार तो इन अग्रिम जमानत के आवेदनों के निपटान में आश्चर्यजनक रूप से महीनों तक का समय लगा दिया जाता है जिससे आवेदन प्रस्तुत करने का उद्देश्य ही निष्फल हो जाता है| जमानत के आवेदन का निपटान प्रार्थी की प्रस्तुति के आधार पर होना चाहिए यदि पुलिस समय पर डायरी पेश नहीं करती है तो इस दोष के लिए सम्बंधित व्यक्ति दण्डित नहीं होना चाहिए|
यद्यपि देश का कानून गिरफ्तारी के पक्ष में नहीं है फिर भी गिरफ्तारियां महज इसलिए की जाती हैं कि पुलिस एवं जेल अधिकारी गिरफ्तार व्यक्ति को यातना न देने और सुविधा देने, दोनों के लिए वसूली करते हैं तथा अभिरक्षा के दौरान व्यक्ति पर होने वाले भोजनादि व्यय में कटौती का लाभ भी जेल एवं पुलिस अधिकारियों को मिलता है| इस प्रकार गिरफ्तारी में समाज का कम किन्तु न्याय तंत्र से जुड़े सभी लोगों का हित अधिक निहित है| वैसे सुप्रीम कोर्ट ने जोगिन्द्र कुमार के मामले में कहा है कि जघन्य अपराध के अतिरिक्त गिरफ्तारी को टाला जाना चाहिए और मजिस्ट्रेट को यह सुनिश्चित करना चाहिए फिर भी पुलिस इस नियम के विरुद्ध गिरफ्तारियां कर रही है और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का मजिस्ट्रेट कितना ध्यान रख रहे हैं यह जनता के सामने है| न्यायाधीश और पुलिस एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, दोनों के हित समानांतर हैं| पुलिस द्वारा सुप्रीम कोर्ट के कानूनों का मजिस्ट्रेट के निष्क्रिय सहयोग से उल्लंघन किया जाता रहता है और किसी भी पुलिस अधिकारी के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं किया जाना इस बात का सशक्त प्रमाण है |
मनीराम शर्मा |