मनीराम शर्मा
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जी हाँ ! क्या आपने वकील नियुक्त करने से पूर्व कभी वकालतनामे का अवलोकन किया है? यदि नहीं तो उपयुक्त समय आने पर अब अवश्य करें| वैसे वास्तविकता तो यह है कि वकालतनामें का मुवक्किलों ने तो क्या अधिकांश वकीलों ने भी अवलोकन नहीं किया होगा| आप पाएंगे कि इसमें समस्त शर्तें आपके हित के विपरीत हैं और आप के अनुकूल मुश्किल से ही कोई शर्त होगी| इनमें समस्त दायित्व आप (मुवक्किल) पर डाला गया है और वकील साहब ने कोई जिम्मेदारी नहीं ली है| इस महान भारतभूमि में कानून एवं न्याय तंत्र (मुकदमेबाजी उद्योग) अभी भी स्थापित (अस्वस्थ) परम्पराओं पर ही चल रहा है| कानूनी प्रावधान का सहारा लेना स्वछन्द विचरण करने वाले न तो वकील मुनासिब समझते हैं और न ही न्यायाधीश|
इस तथ्य के समर्थन में मैं कहना चाहूँगा कि हाल ही में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा अपर सत्र न्यायाधीश के पद के लिए लगभग सम्पूर्ण भारत के 3000 वकीलों ने परीक्षा दी थी और परिणाम बड़े ही दुखद रहे| प्रारंभिक परीक्षा में मात्र 226 परीक्षार्थी ही उत्तीर्ण हुए| मुख्य परीक्षा में 22 परीक्षार्थियों के अलग अलग पेपरों में शून्य अंक था व उत्तीर्ण होने हेतु आवश्यक (आरक्षित श्रेणी 33% व सामान्य श्रेणी 40%) अंक एक भी परीक्षार्थी प्राप्त नहीं कर सका| मात्र 6 परीक्षार्थी ही 35% अंक प्राप्त कर पाए| यही नहीं गत वर्ष राजस्थान उच्च न्यायालय ने विधिक शोध सहायक के लिए परीक्षा ली थी जिसमें भी एक भी परीक्षार्थी उत्तीर्ण नहीं हुआ और अब यह परीक्षा इस वर्ष पुनः करवाई जा रही है| राजस्थान उच्च न्यायालय में दो वर्ष पूर्व अपर सत्र न्यायाधीशों के पद पर हुई भर्ती में माननीय मुख्य न्यायाधिपति जगदीश भल्ला पर भ्रष्टाचार के आरोप किस तरह लगे थे और अंततोगत्वा वह भर्ती निरस्त हुई इसे सारा भारत जानता है|
प्रायः वकालतनामों में शर्त होती है कि कि यदि किसी तारीख पेशी पर वकील साहब उपस्थित नहीं हुए और कोई प्रतिकूल आदेश पारित हो गया तो यह दायित्व भी मुवक्किल का ही होगा क्योंकि वकालतनामें में मुवक्किल द्वारा यह भी परिवचन (अंडर्टेकिंग) दी जाती है कि वह हर तारीख पेशी पर हाजिर होगा| अधिकांश वकालतनामों में यह भी लिखा होता है कि देरी के लिए हर्जा खर्चा देना पड़ा तो मुवक्किल देगा और प्राप्त होने पर यह माल वकील साहब का होगा| विडम्बना यह है कि हमारे कानूनविदों ने अभी तक वकालतनामें का कोई मानक प्रारूप निर्धारित नहीं किया है और वकीलों और भूतपूर्व वकीलों(न्यायाधीशों) के मध्य यह दुरभि संधि चली आरही है| वैसे विलम्ब से प्रायः प्रार्थी पक्ष को हानि होती है अतः इसके लिए मिलने वाली क्षतिपूर्ति पर पक्षकार का ही अधिकार बनता है| सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 35 ख में भी यह प्रावधान है कि विलम्ब के लिए पक्षकार को क्षतिपूर्ति दी जायेगी| किन्तु इसके बावजूद वकालतनामें में विधिविरुद्ध प्रावधान रखे जाते हैं और हमारी विकलांग न्याय व्यवस्था मूक दर्शक बने यह सब देखती रहती है|
यहाँ यह उल्लेख करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपनी वेबसाइट पर वकालतनामें का प्रारूप दे रखा है उसमें भी वकीलों के लिए बहुत ही अनुकूल शर्तें हैं| इस वकालतनामें में कहा गया है कि दी गयी फीस वापिस नहीं होगी और यह फीस मात्र तीन वर्ष के लिए है व यदि मुक़दमा अधिक अवधि तक चला तो प्रत्येक अतिरिक्त तीन वर्ष की अवधि के लिए तयशुदा फीस की आधी फीस और दी जायेगी| अब आप सोचें जब वकालतनामें में मुवक्किल के लिए ऐसी आत्मघाती शर्तें थोपी गयीं हों तो वकील साहब क्यों कर मुकदमें का जल्दी निपटान चाहेंगे|
प्रश्न यह है कि मुवक्किल ने तो मुकदमे का निपटान करवाने के लिए वकील नियुक्त किया है न कि वकील को एक कमरे की तरह किराये पर लिया है ताकि अवधि के अनुसार उसे फीस/किराया देना पड़ेगा| सिद्धांततः वकील के दुराचरण के लिए बार काउन्सिल में शिकायत की जा सकती है और उपभोक्ता मंच में भी परिवाद पेश किया जा सकता है किन्तु बार काउन्सिल तो वकीलों का एक बंद क्लब मात्र ही है और उपभोक्ता मंच भी उसी प्रकार के एक न्यायाधीश द्वारा अध्याक्षित है जिन्होंने ऐसा सुन्दर वकालतनामा अपनी वेबसाइट पर दे रखा है| मुवक्किलों को इनसे राहत की संभावनाएं नगण्य नहीं तो धूमिल अवश्य हैं| अतः सावधान रहें ....