बे‘बस’ प्रदेश
मध्य प्रदेश सड़क परिवहन निगम की बसों का बंद होना आर्थिक
भ्रष्टाचार की ऐसी कहानी है जिसने नेताओं के लिए करोड़ों रुपये के मुनाफे
का एक नया रास्ता तो खोला ही साथ में करोड़ों की आबादी के लिए हर दिन लुटने
की परिस्थितियां भी पैदा कर दीं. शिरीष खरे की रिपोर्ट.
ऐसे समय में जब पूरे भारत में राज्य सरकारें लोगों की
सहूलियत और आर्थिक रूप से फायदे का सौदा मानकर सार्वजनिक परिवहन प्रणाली
में दखल दे रही हैं वहां मध्य प्रदेश के बारे में यह जानकारी कई लोगों को
हैरत में डाल सकती है. अपने विस्तृत क्षेत्रफल, रेल लाइनों के कम घनत्व और
वृहत ग्रामीण क्षेत्र के हिसाब से मध्य प्रदेश देश में पहला राज्य है जहां
सरकार ने परिवहन निगम की बसें बंद कर दी हैं और प्रदेश की जनता को पूरी तरह
से प्राइवेट बस ऑपरेटरों के सहारे छोड़ दिया है. और इस पूरी सरकारी कवायद
का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि जहां हर दिन लाखों यात्रियों को इसका
खमियाजा भुगतना पड़ रहा है वहीं प्रदेश के नेताओं और उनके रिश्तेदारों को
इसका सीधा आर्थिक लाभ मिल रहा है.
वैसे तो प्रदेश की राजधानी भोपाल से प्रतिदिन 450 बसें चलती हैं लेकिन
यह संख्या तब छोटी लगने लगती है जब यह पचास जिलों से जुड़ने की बात तो
कोसों दूर चंद शहरों तक भी बमुश्किल ही जुड़ पाती है. राज्य के तीन लाख
वर्ग किलोमीटर से अधिक और ऊंट के आकार के क्षेत्रफल के भीतर फैले निमाड़ और
मालवा के कई अंचलों तक रेल नहीं पहुंचने से बस आखिरी उम्मीद की तरह बचती
है. मगर यहां भी बसों का अकाल पड़ने से यात्री जहां ट्रैक्टर की ट्रॉली
जैसे मालवाहनों में जबरदस्ती लदने को बेबस हैं.
चुनाव के मुहाने पर खड़े सूबे के मुखिया शिवराज सिंह जनता की इस बेबसी
से वाकिफ हैं और इसीलिए वे देहातों में एक हजार छोटी बसें चलवाना चाहते
हैं. इन बसों को खरीदने के लिए वे 25 करोड़ रूपये राज्य सरकार से और बाकी
25 करोड़ रूपये अनुदान के तौर पर बैंकों से बस मालिकों को दिलाने को तैयार
हैं. मगर घाटे वाले मार्गों पर बस मालिकों द्वारा कोई दिलचस्पी न दिखाने से
एक बड़े भूभाग की मंगलमय यात्रा का भविष्य अंधी सुरंग में चला गया है.
दूसरी तरफ, बीते पांच साल में चार बार किराया बढ़ाने से शहरी यात्रियों का
सफर भी अपेक्षा से कहीं अधिक महंगा हो चुका है. इस दौरान परिवहन विभाग के
किराये में 60 प्रतिशत बढ़ोतरी का सीधा लाभ बस मालिकों को मिला. लेकिन बात
यहीं नहीं थमी. किराये से कहीं अधिक रुपया वसूलने की शिकायतें राज्य सरकार
को लगातार मिलती रहीं. इसके बाद खुद मुख्यमंत्री ने सभी बसों में
किराया-सूची लगाने का सख्त निर्देश भी दिया, लेकिन वह कभी अमल में नहीं आ
पाया क्योंकि परिवहन विभाग के पास इसके लिए कोई निगरानी एजेंसी ही नहीं है.
और इसी निगरानी एजेंसी की कमी की वजह से आज तक बसों में तय किराये से
ज्यादा वसूली जारी है.
दरअसल राज्य में सार्वजनिक परिवहन की बदहाली का तार सात साल पहले भाजपा
सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर के उस फैसले से जुड़ा है जिसमें
उन्होंने आधी शताब्दी तब गांवों, कस्बों और शहरों को एक सूत्र में बांधने
वाले सड़क परिवहन निगम को बंद किया था. 2005 को ‘सड़क वर्ष’ घोषित करने के
साथ इसी साल गौर के इस विरोधा भाषी फैसले ने 11,000 कर्मचारियों को तो
ऊहापोह में डाला ही, निगम को श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास रागदरबारी के उस
प्रथम दृश्य की स्थिति तक भी पहुंचा दिया जिसमें ड्राइवर की नजर में ट्रक
साइड पर है लेकिन पुलिसवाले की नजर में नहीं है. असल में राज्य सरकार ने
घाटे के नाम पर निगम को बंद करने से पहले कानूनी प्रक्रियाओं का पालन नहीं
किया. राज्य परिवहन कानून के मुताबिक जब घाटे का संचय इतना बढ़ जाए कि वह
निगम की कुल संपत्ति से अधिक हो जाए तो ऐसी स्थिति में सरकार उस
अर्ध-न्यायिक प्रक्रिया में जा सकती है जिसमें तय होगा कि यदि निगम का
पुनरुद्धार संभव नहीं है तब क्या उसे बंद कर दिया जाए. विशेषज्ञों की राय
में सरकार इस प्रक्रिया में जाने से इसलिए बची कि निगम इतने घाटे में था ही
नहीं. वहीं औद्योगिक विवाद अधिनियम के मुताबिक किसी उद्योग को बंद करने से
पहले संबंधित प्राधिकरण की मंजूरी लेना जरूरी होता है. मगर इस मामले में
राज्य सरकार ने केंद्र के श्रम विभाग से मंजूरी नहीं ली और यही वजह है कि
केंद्र राज्य सड़क निगम को बंद नहीं मानता लेकिन राज्य के लिए अब इसका कोई
अस्तित्व नहीं है.
कैसे निगम सड़क पर आया
बातचीत में पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर बताते हैं कि
उनके सामने निगम को बंद करने के अलावा कोई चारा नहीं था. उनके मुताबिक हर
साल करोड़ों का घाटा हो रहा था. जाहिर है सरकार ने निगम के गठन के मूल मकसद
यानी जनता को सस्ती और सुलभ परिवहन सेवा की जवाबदारी से हाथ खींचने में ही
अपनी भलाई समझी. मगर निगम के कई पूर्व मुख्य प्रबंधकों की राय में नेताओं
की बसें चलवाने के लिए यह खेल खेला गया. पूर्व मुख्य प्रबंधक केएल जैन
बताते हैं कि प्रदेश में अवैध बसों का परिचालन तो शुरू से होता रहा और ये
निगम की आय में सेंध भी लगाती रहीं लेकिन जितनी आमदनी होती थी उससे निगम का
खर्च आराम से चलता था. उनके मुताबिक, ‘असल गड़बड़ी 1990 के बाद से तब हुई
जब निगम के अध्यक्ष के तौर पर नेताओं ने सारे अधिकार छीन लिए और कुछ
अधिकारियों के साथ मिलकर निगम की बसों पर हमेशा के लिए ब्रेक लगा दिया.’
यहां सरकार के बताए घाटे की यदि छानबीन की जाए तो आसानी से यह समझा जा सकता
है कि तमाम काम करवाने के नाम पर शासन के नियंत्रण वाली किसी संस्था का
किस तरह ‘काम तमाम’ किया जाता है.
राष्ट्रीयकृत मार्गों पर निजी वाहनों के अवैध संचालन को घाटे के पीछे की
एक खास वजह माना गया था. सरकार के मुताबिक इससे उसे प्रतिमाह पांच करोड़
रुपए का नुकसान उठाना पड़ रहा था. उल्लेखनीय है कि निगम की प्रतिमाह की
आमदनी (10 करोड़ 20 लाख रुपये) और खर्च (14 करोड़ रुपये) के बीच का घाटा था
3 करोड़ 80 लाख रुपये. यानी यदि सिर्फ अवैध बसों से होने वाले घाटे को ही
ठीक किया जाता तो निगम घाटे के बजाय लाभ में आ सकता था. निगम ने ऐसी अवैध
बसों की सूची भी राज्य सरकार को सौंपी थी, लेकिन उन्हें बंद करने के बजाय
सरकार ने फरियादी निगम को ही बंद कर दिया.
इसी समय परिवहन व्यवस्था के अधिकारी कुप्रबंधन की वह इबारत लिख रहे थे
जो आगे चलकर निगम के बंद होने की बुनियाद बन गई. निगम के पूर्व मुख्य
प्रबंधक भागीरथ प्रसाद के कार्यकाल (1992-94) में बसों की संख्या 1,800 थी
और कर्मचारियों की संख्या 10,500. इनमें से 1,500 कर्मचारियों को कम किया
जाना था, लेकिन उल्टे 450 कर्मचारियों की भर्ती की गई. इससे बस-कर्मचारी के
बीच का अनुपात इस हद तक गड़बड़ा गया कि एक बस पर दस-दस कर्मचारी सवार हो
गए. पूर्व मुख्य प्रबंधक यूके सॉमल के दौरान (1995-97) प्रदेश में निगम की
तीन वर्कशॉप ऐसी थीं जिनसे वह खुद प्रतिमाह बसों का निर्माण कर सकता था.
बावजूद इसके सॉमल ने गोवा की एक निजी कंपनी से दुगुनी कीमत पर 400 से अधिक
बसें खरीदीं. इसी तरह, के. सुरेश के कार्यकाल (1998-01) में 16 निजी
वित्तीय कंपनियों से एक हजार बसें खरीदने के लिए 90 करोड़ रुपये का कर्ज
ऊंची ब्याज दर पर लिया गया. 16 प्रतिशत ब्याज दर पर तीन साल के लिए लिये गए
इस कर्ज में शर्त यह रखी गई कि यदि किस्त समय पर नहीं चुकाई तो निगम को
18 से 36 प्रतिशत ब्याज की दर से भुगतान करना पड़ेगा. जबकि उस समय
राष्ट्रीयकृत बैंकों की अधिकतम ब्याज दर 10 प्रतिशत थी. यह मामला इस समय
मध्य प्रदेश लोकायुक्त विभाग में लंबित है.
ये निगम से जुड़े कुछ बड़े फैसले थे जिन्होंने इसके ताबूत में अंतिम कील
ठोकने का काम किया. घाटे की स्थिति से उबरने के लिए राज्य सरकार के पास
तीन मार्ग थे. इसमें से उसने कम आर्थिक बोझ वाले दो मार्गों को छोड़कर सबसे
अधिक बोझ वाले मार्ग को चुना. पहला मार्ग निगम की बसों का पूर्ण
सुदृढ़ीकरण करके संचालन का था. इसमें 1,400 करोड़ रुपये का खर्च आता. दूसरा
मार्ग निगम को पुनर्गठित करके बसों को सीमित मार्गों में चलाना था, जिसमें
900 करोड़ रुपये का खर्च आता. मगर सरकार ने 1,600 करोड़ रुपये के खर्च
वाला आखिरी मार्ग चुनते हुए निगम में ताला डाल दिया. मप्र अनुबंधित बस
ओनर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष श्याम सुंदर शर्मा कहते हैं कि यदि निगम में
घाटा था तो सरकार को बताना चाहिए था कि उसने उभारने के लिए क्या किया.
शर्मा का आरोप है, ‘घाटे के लिए जिम्मेदार अधिकारियों पर कार्रवाई करने के
बजाय उन्हें मलाईदार पदों से नवाजना यह बताता है कि नेताओं ने एक साजिश के
तहत निगम बंद करवाया. ‘भले ही नेताओं के लिए निगम एक चरागाह रहा हो लेकिन
जिन अधिकारियों पर इसे बचाने की सबसे अधिक जिम्मेदारी थी उन्होंने भी इसे
चरने में कोई कसर नहीं छोड़ी.