भारतीय न्यायपालिका में भ्रष्टाचार
भारतीय न्यायपालिका में भ्रष्टाचार
प्रस्तुतकर्ता मनीराम शर्मा
अंग्रेजी काल से ही न्यायालय शोषण और भ्रष्टाचार के अड्डे
बन गये थे। उसी समय यह धारणा बन गयी थी कि जो अदालत के चक्कर में पड़ा, वह बर्बाद हो जाता है। भारतीय न्यायपालिका में भ्रष्टाचार
अब आम बात हो गयी है। सर्वोच्च न्यायालय के कई न्यायधीशों पर महाभियोग की
कार्यवाही हो चुकी है। न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार में - भाई भतीजावाद , बेहद धीमी और बहुत लंबी न्याय प्रक्रिया , बहुत ही ज्यादा मंहगा अदालती खर्च , न्यायालयों की भारी कमी , और
पारदर्शिता की कमी , कर्मचारियों का भ्रष्ट आचरण आदि जैसे कारकों की प्रमुख
भूमिका है ।
वैसे विगत छह दशकों में राज्य के तीन अंगों के परफॉर्मेस
पर नजर डाली जाए तो न्यायपालिका को ही बेहतर माना जाएगा। अनेक अवसरों पर उसने पूरी
निष्ठा और मुस्तैदी से विधायिका और कार्यपालिका द्वारा संविधान उल्लंघन को रोका है, लेकिन अदालतों में पेंडिंग मुकदमों की तीन करोड़ की संख्या
का पिरामिड देशवासियों के लिए चिंता और भय उत्पन्न कर रहा है। अदालती फैसलों में
पांच साल लगाना तो सामान्य-सी बात है, लेकिन बीस-तीस साल में भी
निपटारा न हो पाना आम लोगों के लिए त्रासदी से कम नहीं है। न्याय का मौलिक
सिद्धांत है कि विलंब का मतलब न्याय को नकारना होता है। देश की अदालतों में जब
करोड़ों मामलों में न्याय नकारा जा रहा हो तो आम आदमी को न्याय सुलभ हो पाना आकाश
के तारे तोड़ना जैसा होगा।
वस्तुत: अदालतों में त्वरित निर्णय न हो पाने के लिए यह
कार्यप्रणाली ज्यादा दोषी है जो अंग्रेजी शासन की देन है और उसमें व्यापक परिवर्तन
नहीं किया गया है। कई मामलों में तो वादी या प्रतिवादी ही प्रयास करते हैं कि
फैसले की नौबत ही नहीं आ पाए। समाचार-पत्रों और टीवी के बावजूद नोटिस तामीली के
लिए उनका सहारा नहीं लिया जाता और नोटिस तामील होने में वक्त जाया होता रहता है।
आवश्यकता इस बात की है कि कानूनों में सुधार करके जमानत और अपीलों की चेन में
कटौती की जाए और पेशियां बढ़ाने पर बंदिश लगाई जाए। हालांकि देश में भ्रष्टाचार
इतना सर्वन्यायी हुआ है कि कोई भी कोना उसकी सड़ांध से बचा नहीं है, लेकिन फिर भी उच्चस्तरीय न्यायपालिका कुछ अपवाद छोड़कर
निस्तवन साफ-सुथरी है। 2007
की ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रपट
अनुसार नीचे के स्तर की अदालतों में लगभग 2630 करोड़ रूपया बतौर रिश्वत
दिया गया। अब तो पश्चिम बंगाल के न्यायमूर्ति सेन और कर्नाटक के दिनकरन जैसे मामले
प्रकाश में आने से न्यायपालिका की धवल छवि पर कालिख के छींटे पड़े हैं। मुकदमों के
निपटारे में विलंब का एक कारण भ्रष्टाचार भी है। उच्चतम न्यायालय और हाईकोर्ट के जजों को हटाने की सांविधानिक प्रक्रिया
इतनी जटिल है कि कार्रवाई की जाना बहुत कठिन होता है। न्यायिक आयोग के गठन का मसला
सरकारी झूले में वर्षो से झूल रहा है।
उच्चतम न्यायालय द्वारा बच्चों के शिक्षा अधिकार, पर्यावरण की सुरक्षा, चिकित्सा, भ्रष्टाचार, राजनेताओं के अपराधीकरण, मायावती का पुतला प्रेम जैसे अनेक मामलों में दिए गए
नुमाया फैसले, रिश्वतखोरी के चंद मामलों और विलंबीकरण के असंख्य मामलों
की धुंध में छुप-से गए हैं। यह भारत की गर्वोन्नत न्यायपालिका की ही चमचमाती मिसाल
है, जहां सुप्रीम कोर्ट और उसके मुख्य न्यायाधीश उन पर सूचना
का अधिकार लागू न होने का दावा करते हैं और दिल्ली हाईकोर्ट उनकी राय से असहमत
होकर पिटीशन खारिज कर देता है। यह सुप्रीम कोर्ट ही है, जिसने आंध्रप्रदेश सरकार द्वारा मुसलमानों को शैक्षणिक
संस्थाओं में आरक्षण पर रोक लगा दी। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश हों, देश के विधि मंत्री हों या अन्य और लंबित मुकदमों के अंबार
को देखकर चिंता में डूब जाते हैं, लेकिन किसी को हल नजर
नहीं आता है। उधर, सुप्रीम कोर्ट अदालतों में जजों की कमी का रोना रोता है।
उनके अनुसार उच्च न्यायालय के लिए 1500 और निचली अदालतों के लिए 23000 जजों की आवश्यकता है। अभी की स्थिति यह है कि उच्च
न्यायालयों में ही 280 पद रिक्त पड़े हैं। जजों की कार्य कुशलता के संबंध में हाल
में सेवानिवृत्त हुए उड़ीसा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस बिलाई नाज ने कहा कि
मजिस्ट्रेट कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के लिए कई जज फौजदारी मामले डील करने
में अक्षम हैं। 1998 के फौजदारी अपीलें बंबई उच्च न्यायालय में इसलिए पेंडिंग
पड़ी हैं, क्योंकि कोई जज प्रकरण का अध्ययन करने में दिलचस्पी नहीं
लेता। वैसे भी पूरी सुविधाएं दिए जाने के बावजूद न्यायपालिका में सार्वजनिक अवकाश
भी सर्वाधिक होते हैं। पदों की कमी और रिक्त पदों को भरे जाने में विलंब ऎसी
समस्याएं हैं, जिनका निराकरण जल्दी हो। हकीकत तो यह है कि न्यायपालिका की
शिथिलता और अकुशलता से तो अपराध और आतंकवाद तक को बढ़ावा मिलता है। दस वर्ष पूर्व
मुंबई में हुए आतंकी कांड के प्रकरणों का निपटारा आज तक पूरा नहीं हुआ है, जबकि ब्रिटेन में हुई ऎसी घटना के प्रकरण एक-दो साल में
निपटाए जा चुके हैं।
सरकार कई वर्षो से न्यायपालिका में सुधार के लिए कानून
लाने की बात कर रही है। अब चार मेट्रो नगरों में सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली में
फेडरल कोर्ट का नया शिगूफा सामने आया है। वस्तुत: न्यायपालिका की स्वतंत्रता के
साथ इस अंग की कार्यकुशलता और शुचिता लोकतंत्र के लिए लाजिमी है। मुकदमों का अंबार
निपटाने और सुधार करने के लिए केवल कार्यपालिका, न्यायपालिका
और विधायिका ही नहीं वरन् देश के अग्रणी न्यायविदों, समाज
शास्त्रियों और आम लोगों को विश्वास में लिए जाने की आवश्यकता है।