By प्रेम शुक्ल
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आंध्र प्रदेश के बंटवारे के विरोधियों ने एक अगस्त को कुरनूल में राजीव गांधी की प्रतिमा को क्षति पहुंचा दी।
तेलंगाना का तेल निकालने से न आंध्र का भला होगा न तेलंगाना का। विदर्भ टूटने से वहां भी कोई मधु कोड़ा ही पैदा होगा। गोवा को खनन माफिया खोखला कर चुका है और उत्तराखंड को भुरभुरा। विकास का विकेद्रीकरण करो। बंटवारे की बीन बजाना बंद करो। राजा बुंदेला, विलास मुत्तेमवार, जगदंबिका पाल जैसे मौसमी मेंढक इतिहास पर टर्रा रहे हैं। इतिहास का दाखला दिया तो ५० नहीं ५०० राज्य बनाने पड़ेंगे। तब भी सत्ताकांक्षा अधूरी रहेगी। कांग्रेस तो बांटो-काटो की उस्ताद है। भाजपा को भी सत्ता लोलुप भस्मासुरी जमात से बचना होगा।
हिंदुस्तान के जनतंत्र को चुनावतंत्र के अलावा कुछ और बचने न देना राजनीतिक नेतृत्व, निर्वाचन आयोग, न्यायतंत्र और बाबूशाही का एकमेव संकल्प बचा है। हर फैसला चुनाव जीतने-हारने की कसौटी पर लिया जाता है। चुनावों की ऐसी चक्की चला दी गई है जिसमें जनाकांक्षा को खैरात बटोरने के अलावा किसी लायक बचने नहीं देना है। तिस पर लालबुझक्कड़ों को बुद्धिजीवी समाज का ऐसा चोगा पहना दिया गया है कि वे अपना चोंगा (भोंगा) बजाने में ही स्वयं को धन्य पाते हैं। कांग्रेस हो, भारतीय जनता पार्टी, सपा, जद, लद, भद, खद-खद सारे के सारे दल ऐसी इकाइयों में तब्दील हो गए हैं कि जिनमें लोकतांत्रिक मूल्य बचने का कोई अवकाश शेष न रहे। निष्पक्ष राय रखना तो वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में अनुशासनहीनता करार दिया जा चुका है। हर दल में ब्यूरोक्रेट-टेक्नोक्रेट टाइप इवेंट मैनेजर बैठ गए हैं जो राजनीतिक प्रक्रिया सूंघते ही बेहोश हो जाते हैं और ऐसी प्रक्रिया के पक्ष में चूं करने वाले को इस अंदाज में धकिया कर पार्टी नामक गोलबंदी से बाहर ठेल देते हैं कि चूं करने वाला चूं-चूं का मुरब्बा बनने को अभिशप्त हो जाता है।
बिगड़ैल हाथी
१९८० के दशक के बाद हर राजनीतिक दल को व्हिप और पार्टी अनुशासन का ऐसा गदा-अंकुश थमा दिया गया है कि जो बना तो बिगड़ैल हाथी को नियंत्रित करने के लिए है पर चलाया गोवंश पर जा रहा है। कांग्रेस ने ऐसा कौशल विकसित कर लिया है जिसे दूसरा राष्ट्रीय दल कुछ असुविधाजनक मुद्दों के अलावा दल संचालन के नित्य कर्म में अनिवार्य मानने की कगार पर है। वामपंथी व्यवस्था के दामपंथी और समाजवादी जातिवादी-मजहबवादी मवाद में राजनीतिक प्रक्रिया की बिलबिलाहट के बाशिंदे बन चुके हैं। अब न्याय के लिए कोई न्यायतंत्र पर नहीं बल्कि नोटतंत्र पर भरोसा करता है। कार्यतंत्र को कार्य कराने के लिए दो दशक पहले तक रिश्वत चभाया जाता था अब वे काम बिगाड़ने का कानूनी धौंस देकर वसूली करते हैं। कार्यपालिका वसूलीपालिका में तब्दील है। विधायिका को सत्ता टिकाए रखने की बिसात में बदल दिया गया है। सो, यहां जनकल्याणार्थ कानून बनाने की प्रक्रिया में हिस्सेदारी की बजाय हुड़दंग और मारामारी की उत्पाती कसौटी को आकाओं ने प्रधानगुण मान लिया है। सो, विधायिका विधायी कार्यों की बजाय विध्वंसक हरकतों के चलते साख विहीन है। अब जनतंत्र को महज धनतंत्र-गनतंत्र के बूते मनमानी तंत्र बना दिया गया है। सो, चुनाव आते ही ध्वज को गुरु मानने वाले को किसी मुखौटापुरुष के कंधों की अनिवार्यता लगती है तो किसी को बांटो-काटो की हर हद को पार करना जरूरी लगता है।
विभाजन की बीन
इसी तरह की फौरी जरूरत के तहत बीते सप्ताह सत्तारूढ़ों ने आंध्रप्रदेश के विभाजन की बीन बजाई। बीन बजा तेलंगाना के नाम का और झूमते-लहराते तेरह और राज्यों के विभाजन के समर्थक अपनी -अपनी बिलों से निकल पड़े। सबके तर्क हैं कि हम पर अन्याय हुआ, हमें विकास में हिस्सा नहीं दिया गया। हमारा शोषण किया गया। हमारी अस्मिता है, हमारा इतिहास है, हमारी जाति है, हमारी अलग संस्कृति है आदि..... आदि। हर किसी का एक समान तर्क है कि छोटे राज्य ही विकास की कुंजी हैं। अधिकांश का तर्क है कि हम तो पहले छोटे ही थे, सो छोटे राज्य बना दो तो हमारा समग्र संकट हल हो जाए। पहले हमें हिंदुस्तान नामक राज्यों के संघीय समुच्चय वाले गणतंत्र के गठन और पुनर्रचना की प्रक्रिया को संक्षेप में समझ लेना चाहिए।
‘फोब्र्स’ पत्रिका ने बीते दिनों सप्रमाण बताया कि भारत नामक राष्ट्र की ०.००००००१ फीसदी आबादी के पास सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जीडीपी) का २५ फीसदी हिस्सा है। तो क्या इस आधार पर उक्त आबादी अलग समृद्धतम प्रांत की हकदार है? या फिर ७२ फीसदी वैश्विक गरीबी रेखा (१.२५ डॉलर ८० रुपए प्रतिदिन आय) से नीचे वालों का एक दरिद्रिस्तान बना दिया जाए?
अंग्रेजी हुकूमत और राज्य
अंग्रेज शासित हिंदुस्तानी साम्राज्य जिसमें आज भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश नामक ३ देश हैं, २ तरह के राज्यों में वर्गीकृत था। पहले तरह के राज्य ऐसे इलाकों के थे जिस पर अंग्रेज सरकार का सीधा शासन था। दूसरे वे रजवाड़े थे जो अंग्रेज मान्य राजघरानों द्वारा शासित और स्थानीय स्वायत्ततायुक्त थे। दूसरी किस्म के अधिकांश रजवाड़ों के साथ अंग्रेजों की अलग-अलग संधियां थीं। बीसवीं सदी के दूसरे दशक से तीसरे दशक के दरम्यान जब अंग्रेजों ने शासकीय सुधार शुरू किए तो राज्यों का शासनतंत्र विधायिकाओं और अंग्रेज नियुक्त गवर्नरों के हवाले किया। कुछ छोटे प्रांतों को विधायिका नहीं दी गई वहां गवर्नर जनरल ने चीफ कमिश्नर नियुक्त कर शासनतंत्र संचालित किया। भारत के मामले में संघीय प्रणाली १९३० के दशक में मान्य की गई जो थोड़े से बदले हुए स्वरूप में आजाद भारत में जारी है। १५ अगस्त १९४७ को जब भारत और पाकिस्तान दोनों को आजादी दी गई तब अंग्रेजों ने सभी ५०० रजवाड़ों को अपनी संधि से मुक्त कर अपनी इच्छा के अनुसार भारत या पाकिस्तान में विलय होने या स्वतंत्र रहने का हक दिया। अधिकांश रजवाड़े हिंदुस्तान में विलीन हुए, कुछ पाकिस्तान में चले गए।
विभाजन का आधार
विभाजन का आधार मजहबी था। तब भूटान और हैदराबाद ने स्वतंत्र रहने का फैसला किया। कालांतर में हैदराबाद मुक्ति संग्राम के चलते सरदार पटेल की सूझबूझ से हिंदुस्तान में विलीन हुआ। जब तक संविधान मंजूर नहीं हुआ था तब तक गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, १९३५ के तहत विलीनकृत राज्य या तो संघीय भारत में शामिल हुए या फिर राजपूताना, हिमाचल प्रदेश, मध्य भारत और विंध्य प्रदेश के रूप में उभरे। मैसूर,हैदराबाद, भोपाल और बिलासपुर जैसे रजवाड़े अलग प्रांत बने रहे। २६ जनवरी १९५० को भारत नामक जिस संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य की संवैधानिक घोषणा हुई उसमें तीन तरह के राज्य थे।
१) अंग्रेज शासित हिंदुस्तान के वे राज्य जो निर्वाचित गवर्नर और प्रांतीय विधायिका द्वारा शासित थे। ये नौ राज्य थे असम, बिहार, मुंबई (तब बांबे), मध्य प्रदेश (अंग्रेजकालीन मध्यप्रांत और बेरार का समुच्चय), मद्रास, उड़ीसा, पूर्वी पंजाब और पश्चिम बंगाल।
२) वे राज्य जो अंग्रेज मान्य रजवाड़ों और निर्वाचित विधायिकाओं द्वारा पहले शासित हुआ करते थे। ये ८ राज्य थे हैदराबाद, जम्मू एवं कश्मीर, मध्य भारत, मैसूर, पटियाला एंड ईस्ट पंजाब स्टेट्स यूनियन (पेप्सू), राजस्थान, सौराष्ट्र, त्रावणकोर एवं कोचीन।
३) कुछ रजवाड़ों और चीफ कमिश्नर द्वारा शासित १० राज्य थे-अजमेर, भोपाल, बिलासपुर, कूर्ग, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, कच्छ, मणिपुर, त्रिपुरा एवं विंध्य प्रदेश। तब अंदमान एवं निकोबार लेफ्टिनेंट गवर्नर द्वारा ही शासित था। फिर तेलुगु भाषियों ने श्रीरामुलु के बलिदान के बाद जो आंदोलन खड़ा किया उससे १९५३ में मद्रास के १६ तेलुगु भाषी जिलों को काटकर आंध्र प्रदेश गठित हुआ। १९५४ में बिलासपुर के छोटे रजवाड़े को हिमाचल प्रदेश में और चंद्रनगर नामक फ्रेंच उपनिवेश को १९५५ में पश्चिम बंगाल में शामिल कर लिया गया।
वहीं गोवा पहले पुर्तगाल का एक उपनिवेश था। पुर्तगालियों ने गोवा पर लगभग ४५० सालों तक शासन किया और दिसंबर १९६१ में यह भारतीय प्रशासन को सौंप दिया। पहले गोवा दमन दीव केन्द्रशासित प्रदेश घोषित था। फिर गोवा को ३० मई १९८७ को दमन दीव से काटकर अलग राज्य का दर्जा दिया गया। इसी के साथ ही दिल्ली का भी गठन हुआ।
भाषावार प्रांत रचना
सनद रहे कि १९१७ में कांग्रेस अधिवेशन में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्षा डॉ. एनी बेसंट की पहल पर भाषावार प्रांत रचना का कांग्रेस ने यह कह कर विरोध किया था कि यह विभाजनकारी साबित होगा। १९२८ में पं. मोतीलाल नेहरू की पहल के बाद १९४७ तक कांग्रेस भाषावार प्रांत रचना का प्रस्ताव पारित करती रही। किन्तु १९४८ में जब न्यायमूर्ति दार आयोग ने भाषावार प्रांत रचना को विभाजनकारी बताया तो पं. नेहरू की राय बदल गई। आंध्र के मामले में जब उन्हें समझौता करना पड़ा तो दिसंबर १९५३ में न्यायमूर्ति फजल अली प्रांत पुनर्गठन आयोग बनाया गया जिसे तत्कालीन गृह मंत्री पं. गोविंद वल्लभ पंत की देखरेख में काम करना था। १९५५ में फजल अली आयोग ने रिपोर्ट सौंपी। ३१ अगस्त १९५६ को सातवें संविधान संशोधन के तहत प्रांत पुनर्गठन अधिनियम, १९५६ पारित हुआ। अब पहले और दूसरे किस्म के प्रांतों को राज्य तथा तीसरे किस्म के प्रांतों को केन्द्रद्रशासित प्रदेश के रूप में १ नवंबर १९५६ से मंजूर कर लिया गया। अब नए राज्य कुछ इस तरह थे-
१) आंध प्रदेश- १९५६ में मद्रास से पुनर्गठित आंध्र में हैदराबाद स्टेट के तेलुगु भाषी राज्यों का विलय कर विशाल आंध्र प्रदेश बना दिया गया।
२) बिहार के कुछ इलाकों को पश्चिम बंगाल के हवाले कर दिया गया।
३) बांबे राज्य- इसमें सौराष्ट्र और कच्छ, मध्य प्रदेश के मराठी भाषी नागपुर डिवीजन तथा हैदराबाद के मराठवाड़ा क्षेत्र को जोड़ दिया गया। बांबे स्टेट के मराठी भाषी कारवार-बेलगांव को काट कर मैसूर राज्य में जोड़ दिया गया। हर राज्य को फजल अली भाषाई आधार पर बना रहे थे। नेहरू खानदान की खुंदक ने बांबे को संयुक्त महाराष्ट्र बनाने की बजाय द्विभाषिक राज्य बना दिया।
४) त्रावणकोर-कोचीन में मद्रास राज्य के मलाबार तथा साउथ केनरा के कासरगोड़ को मिला कर केरल राज्य बना दिया गया।
५) मध्य भारत, विंध्य प्रदेश और भोपाल का विलय कर मध्य प्रदेश बनाया गया।
६) मद्रास स्टेट से लक्षदीव, मिनीकॉय और अमीनीदीवी द्वीप को काटकर केन्द्रशासित बना दिया गया। त्रावणकोर-कोचीन से कन्याकुमारी को काट कर मद्रास स्टेट में मिलाया गया। यही राज्य १९६९ में तमिलनाडु नामांतरित हुआ।
७) मैसूर प्रांत में कूर्ग स्टेट, बेलगांव-निपाणी समेत बांबे स्टेट का दक्षिणी हिस्सा और हैदराबाद स्टेट का दक्षिणी हिस्सा मिलाया गया। इस प्रांत का १९७३ में कर्नाटक नामकरण हुआ।
८) पंजाब में पटियाला एंड ईस्ट पंजाब स्टेट्स यूनियन का विलय कर दिया गया।
९) राजस्थान में अजमेर स्टेट का विलय हुआ। बांबे स्टेट और मध्य भारत के कुछ इलाकों को काट कर शामिल किया गया। चूंकि मुंबई शहर पर कब्जे के इरादे से महाराष्ट्र को ठगा गया था। भाषावार प्रांत रचना में उलटे मराठी भाषी क्षेत्र मैसूर में मिला दिए गए थे। सो संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन उग्र हुआ। उधर महागुजरात आंदोलन खड़ा हुआ। सैकड़ों की शहादत के बाद १ मई १९६० को गुजराती भाषी गुजरात और मराठी भाषी महाराष्ट्र बने। ५३ साल बाद भी बेलगांव-निपाणी-कारवार पर कन्नड़ बर्बरता जारी है, सो महाराष्ट्र आज भी अधूरा है। तिस पर कांग्रेस और भाजपा महाराष्ट्र साकार करने की बजाय विदर्भ तोड़ने की जुगत भिड़ा रहे हैं। १ नवंबर १९६६ को पंजाब से हरियाणा अलग किया गया। नवंबर २००० में उत्तर प्रदेश को काटकर उत्तराखंड, बिहार को काटकर झारखंड तथा मध्य प्रदेश को काटकर छत्तीसगढ़ बने।
छोटे राज्य और सुशासन
अब सवाल है कि क्या छोटे राज्यों से सुशासन बेहतर और विकास दर तीव्र तथा वैषम्य दूर होता है? तीनों दावे सपेâद झूठ हैं। झारखंड और उत्तराखंड में सुशासन की बजाय कुशासन के एक नहीं हजार उदाहरण हैं। छत्तीसगढ़ भी नष्ट-भ्रष्ट राज्य ही नजर आता है। अजीत जोगी कुशासन तो रमण सिंह रक्तरंजित हिंसापात से गले तक डूबे हैं। विकास का विवेंâद्रीकरण जब तक पंचायत -नगरपालिका और महापालिका के स्तर पर नहीं होता तब तक छोटे राज्य विकास की मृगमरीचिका के नाम विनाश का सुनियोजित जाल है। उत्तराखंड की विनाशलीला और झारखंड गोवा की लूटलीला वीभत्स है। विकास का वैषम्य संघीय स्तर पर राज्यों में, राज्य स्तर पर अंचलों में, अंचल स्तर पर जिलों में, जिला स्तर पर तहसीलों में और तहसील स्तर पर परगनाओं में और परगना स्तर पर ग्रामपंचायतों तो ग्रामपंचायतों में मुहल्लों-गलियों के स्तर पर है। तो क्या यह सब बांट दिए जाने से ठीक हो जाएंगे? कुछ कहते हैं कि हमारे पास ज्यादा संसाधन हैं सो हमें अलग करो। ‘फोब्र्स’ पत्रिका ने बीते दिनों सप्रमाण बताया कि भारत नामक राष्ट्र की ०.००००००१ फीसदी आबादी के पास सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जीडीपी) का २५ फीसदी हिस्सा है। तो क्या इस आधार पर उक्त आबादी अलग समृद्धतम प्रांत की हकदार है? या फिर ७२ फीसदी वैश्विक गरीबी रेखा (१.२५ डॉलर, ८० रुपए प्रतिदिन आय) से नीचे वालों का एक दरिद्रिस्तान बना दिया जाए?