विनोद उपाध्याय
Toc news 16 मई 2015
जर्जर बांधों की जद में प्रदेश की आधी आबादी
प्रदेश में 100 साल की उम्र पार कर चुके हैं 23 बांध
नेपाल में आए भूकंप के बाद बढ़ी सरकार की चिंता
भोपाल। नेपाल सहित देश के कई राज्यों में भूकंप से मची तबाही के बाद अब मप्र के उम्रदराज बांधों की चिंता पर्यावरणविदों और उनके आसपास के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को सताने लगी हैं। सरकार भी इस बात को लेकर चिंतित है, क्योंकि प्रदेश के 23 बांध 100 साल से भी अधिक पुराने हो गए हैं और अधिकांश खतरे की जद में हैं। अहमदाबाद स्थित भूकंप अनुसंधान संस्थान के महानिदेशक बीके रस्तोगी का कहना है कि अगर नेपाल की तरह यहां 7.9 मैग्नीट्यूट तीव्रता वाला भूकंप आता है तो हर तरफ जलजला हो जाएगा क्योंकि मप्र के अशिकांश बांधों की स्थिति इतना तेज झटका बर्दास्त करने की नहीं है। भूगर्भशास्त्रियों और वैज्ञानिकों के मुताबिक, मप्र अपेक्षाकृत कम खतरे वाले हिस्से जोन-3 में आता है। इस कारण यहां के बांधों के निर्माण में भूकंपरोधी क्षमता की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है।
वैज्ञानिक डॉ. अशोक कुमार कहते हैं कि जिस तरह टिहरी बांध नौ से दस मैग्निट्यूड के भूकंप को भी झेलने में सक्षम है उस तरह की क्षमता मप्र के बांधों में नहीं है। वैसे भी मप्र के बांध पिछले कुछ सालों से जर्जर अवस्था में पहुंच गए हैं। पिछली बारिश के दौरान डिंडोरी का गोमती बांध, हमेरिया बांध, रामगढ़ी, सिमरियानग, चांदिया, गोरेताल, लोकपाल सागर, भरोली सहित करीब दर्जनभर बांधों में रिसाव और दरार आने से आसपास के क्षेत्रों में दहशत फैल गई थी। हालांकि समय पर इन बांधों के रिसाव और दरार को दुरूस्त कर दिया गया, लेकिन ये घटनाएं इस बात का संकेत दे गईं की अगर बांधों की लगातार देखरेख और मरम्मत नहीं की गई तो ये कभी भी जानलेवा बन सकते हैं। अब नेपाल में आए विनाशक भूकंप के बाद जब मप्र के जर्जर बांधों की स्थिति का जायजा लिया गया तो यह तथ्य सामने आया की प्रदेश के करीब 91 बांध उम्रदराज हैं और ये कभी भी दरक सकते हैं। वाटर रिसोर्स डेवलपमेंट के आंकडों के अनुसार प्रदेश में पेयजल उपलब्ध कराने, सिंचाई और बिजली उत्पादन के लिए 168 बड़े और सैकड़ों छोटे बांध बनाए गए हैं।
देखरेख और मेंटेंनेंस के अभाव में कई छोटे-बड़े बांध बूढ़े और जर्जर हो चुके हैं। इनमें से कुछ की उम्र 100 साल से ज्यादा है। इन उम्रदराज बांधों को लेकर बेपरवाह प्रशासन ने न तो इन्हें डेड घोषित किया और न ही मरम्मत की कोई ठोस पहल की। ऐसे में ये लबालब बांध यदि दरक गए या टूट गए तो कभी भी बड़ी तबाही ला सकते हैं। इन बांधों की वजह से नदियां भी अपनी दिशा बदल सकती हैं। इससे भी बड़ा खतरा पैदा हो सकता है। लेकिन इस ओर कभी किसी का ध्यान नहीं गया है। प्रदेश के लगभग आधा सैकड़ा बांधों की उम्र 50 साल पूरी हो चुकी है। जबकि 23 बांध तो 100 साल से भी ज्यादा पुराने हैं। ऐसे में इन बांधों की ठोस मरम्मत नहीं होने से इनके आधार कमजोर हो चले हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक बड़े बांधों की उम्र 100 वर्ष व छोटे बांध की उम्र लगभग 50 वर्ष मानी जाती है।
इस उम्र तक इन बांधों की मजबूती बनी रहती है। बाद में ये धीरे-धीरे ये कमजोर होने लगते हैं। साथ ही नदियों के साथ आने वाले गाद भी बांधों को प्रभावित करते हैं। इससे बांधों की क्षमता कम होने लगती है। वाटर रिसोर्सेज से जुड़े एक्सपर्ट इंजीनियर बांधों की उम्र 50 और 100 साल बताते हैं। छोटे बांधों को 50 वर्ष के हिसाब से डिजाइन किया जाता है, जबकि बड़े बांधों की उम्र 100 साल बताई जाती है। बांधों के सिलटेशन और मजबूती दोनों के आधार पर उम्र तय होती है। वर्तमान में ज्यादातर बांधों की उम्र बहुत ज्यादा हो चुकी है। जानकारों का कहना है कि जब बांध बने थे जब ज्यादातर स्थान जंगल थे।
अब जंगल काटकर खेती होने लगी है। इसका असर भी बांधों पर पड़ा है। बांधों में सिलटेशन बढ़ चुके हैं। आजतक सरकार ने लाइव स्टोरेज ही नहीं मापी है। बेस में मिट्टी में सही तरीके से का प्रेशन नहीं किया गया है। आधार ही यदि कमजोर हो गया, तो बांध के बचने का सवाल ही नहीं। गेट से ज्यादा खतरा बांधों में सबसे ज्यादा खतरा गेट के खराब होने का रहता है। हर साल गेट की मरम्मत होनी जरूरी हैं। ज्यादातर गेट के रबर-सील कट जाते हैं, जिन्हें नहीं सुधारने पर बगैर गेट खोले ही पानी बहने लगता है। इसके अलावा चोक नालियां भी खतरा बन सकती हैं। पिछले चार साल से करीब दो दर्जन बांध जब बारिश के दिन में लबालब होते हैं तो उनके गेट से पानी बहने लगता है। लेकिन मध्यप्रदेश वाटर रिसोर्स डेवलपमेंट इस ओर ध्यान नहीं दे रहा है। बताया जात है हर साल सैकड़ों एकड़ खेती तो बांध से निकले पानी से ही खराब हो जाती है। विभागीय अधिकारियों का कहना है कि तीन साल पहले एक रिपोर्ट तैयार की गई थी, जिसमें बांधों की बदहाल स्थिति को बताया गया था।
लेकिन रिपोर्ट फाइलों में ही दब कर रह गई है। प्रदेश के कई बांधों में रिसाव की समस्या आम है। आए दिन रिसाव वाली जगह से बांधों के आशिंक रूप से टूटने की खबरें आती रहती हैं। बांध टूटने से सैकड़ो एकड़ फसल के अलावा अन्य आर्थिक नुकसान भी होते हैं। मंदसौर शहर को बाढ़ के खतरे से बचाने के लिए चार दशक पहले बने धुलकोट बांध पर अब खनन माफियाओं की नजर पड़ गई है। शहर के पश्चिमी इलाके में बने इस ढाई किलोमीटर लंबे बांध की पाल को मिट्टी माफियाओं ने खोदना शुरु कर दिया है और वे चोरी छिपे यहां से ट्रॉलियों में मिट्टी भरकर ले जा रहे है, जिसका ईंट बनाने में उपयोग कर रह रहे हैं।
ईंट भट्टे मालिकों ने शमशान घाट और नरसिंहपुरा इलाके से गुजर रही बांध की पाल से इतनी भारी मात्रा में मिट्री की खुदाई की है कि करीब आधा किलोमीटर इलाके में बांध काफी जर्जर हो गई है। हैरत की बात ये है कि अधिकारी इस खुदाई से नावाकिफ हैं। वहीं, खंडवा जिले में स्थित 'ओंकार पर्वतÓ की दरार से ओंकारेश्वर बांध (जल विद्युत सिंचाई परियोजना) को खतरा उत्पन्न होने की आशंका है। बांध के ठीक सामने पर्वत में दरार दिखाई दे रही है।
बांध से लगभग 150 मीटर दूर पर्वत का एक हिस्सा दरकने लगा है। बांध और पर्वत के बीच कुछ चट्टानें कट गई हैं। आशंका व्यक्त की जा रही है कि नर्मदा नदी की तलहटी में दरार अंदर ही अंदर बांध तक पहुंच गई तो बड़े नुकसान का खतरा हो सकता है। जानकारों का कहना है कि नर्मदा में आने वाली बाढ़ से पर्वत चारों तरफ से कट रहा है। पर्वत पर कभी जंगल हुआ करता था, लेकिन क्षेत्र में गिनती के पेड़ रह गए हैं। पर्वत पर मठ, आश्रम, दुकान, मकान बन गए हैं। पर्वत की तलहटी में ज्योर्तिलिग मंदिर है, यह क्षेत्र अवैध भवन निर्माणों से घिरता जा रहा है। पर्वत पर अतिक्रमण हो रहे हैं। उल्लेखनीय है कि नर्मदा हाइड्रोइलेक्ट्रिक डेवलपमेंट कापरेरेशन लिमिटेड द्वारा बनाई गई ओंकारेश्वर जल विद्युत परियोजना में बांध द्वारा 520 मेगावाट बिजली बनाने की क्षमता है। बांध में कुल 23 गेट लगे हैं। यहां पर 189 मीटर जलस्तर तक (समुद्र तल से) पानी भरा जाता है। अगर यह बांध दरकता है तो बड़ी जन हानि होगी।
संजय सरोवर परियोजना के तहत बनाए गए एशिया के सबसे बड़े मिट्टी के बांध पर खतरा मंडरा रहा है। एक तरफ इस बांध के तटबंध की मिट्टी लगातार बह रही है वहीं आतंकवादियों और नक्सलवादियों की भी कुदृष्टि इस बांध की ओर है। भीमगढ़ बांध में गेटों की सुरक्षा के लिए कन्ट्रोल रूम बनाया गया है जहां एक चोकीदार रहता है और वह भी नदारद रहता है और उसके सिवाय वहां कोई भी जबाबदार व्यक्ति सेवा नहीं देता। इनकी होती है लगातार मॉनिटरिंग एक तरफ जहां आधी शताब्दी पहले बने बांधों की देखरेख नहीं की जा रही है वहीं अभी हाल ही में बने बरगी, तवा, बरना, इंदिरा सागर,ओंकारेश्वर, बाणसागर, गांधी सागर, मनीखेड़ा, गोपीकृष्ण सागर, माही, कोलार और केरवा बांध ऐसे हैं जिनकी लगातार मॉनिटरिंग हो रही है। इन बांधों में किस दिन कितना पानी बढ़ा और कितना कम हुआ इसकी जानकारी प्रतिदिन मिलती है।
कितने सुरक्षित हैं बांध... सरकार ने माना था कि देश के कुल 5,000 बांधों में से 670 ऐसे इलाके में जो भूकंप संभावित जोन की उच्चतम श्रेणी में आते हैं। ऐसे बांधों में मप्र के करीब 24 बांध भी शामिल हैं। सवाल ये उठता है कि भूकंप संभावित इलाकों में मौजूद ये बांध आखिर कितने सुरक्षित हैं। मौजूदा समय में उपयोग किए जाने वाले 100 से ज़्यादा बांध 100 वर्ष से भी पुराने हैं। भारत में बांध बनाने की परंपरा सदियों पुरानी है और पिछले 50 वर्षों में ही देश के विभिन्न राज्यों में 3,000 से ज़्यादा बड़े बांधों का निर्माण हुआ है।
ऐसे देश में, जहां आधी से ज़्यादा आबादी कृषि पर निर्भर है वहां 95 प्रतिशत से ज़्यादा बांधों का उपयोग सिंचाई के लिए किया जाता है। भारत में बांधों का निर्माण और उनकी मरम्मत की निगरानी केंद्रीय जल आयोग करता है। आयोग के साथ सरकारें भी दोहराती रहीं हैं कि सभी बांधों की सुरक्षा जांच होती रही है और भूकंप संभावित ज़ोन में आने वाले बांध भी किसी आपदा को झेल सकने में सक्षम हैं। कई विशेषज्ञों का मत है कि मप्र में सैंकड़ों बांध अब पुराने हो चले हैं और असुरक्षित होते जा रहे हैं।
उनका कहना है कि पुराने बांधों को गिराकर उसी इलाके में नए और ज़्यादा मज़बूत बांधों का निर्माण आवश्यक है। साऊथ एशिया नेटवर्क ऑफ डैम्स के प्रमुख हिमांशु ठक्कर कहते है कि सरकारों का ध्यान इस ओर नहीं गया है। ठक्कर ने बताया, मौजूदा समय में उपयोग किए जाने वाले देश में 100 तथा मप्र में 23 बांध 100 वर्ष से भी पुराने हैं। बांध पर बांध बने जा रहे हैं बिना ये सोचे की अगर ऊपर का एक बांध टूट गया तो नीचे किस तरह की प्रलय आ जाएगा। मामले से जुड़े अधिकारियों का कहना है कि भारत में किसी बांध का इस्तेमाल बंद कर देना इतना भी आसान नहीं है और उसे बंद करने से पहले विकल्प की तलाशने की जरूरत होती है।
भारत के 'सेंट्रल वॉटर कमीशनÓ के प्रमुख अश्विन पंड्या को लगता है कि भारत एक विकासशील अर्थव्यवस्था है जहां आबादी का दबाव तेजी से बढ़ रही है, साथ ही सिंचाई और ऊर्जा संबंधी जरूरतें बढ़ती जा रही हैं। ऐसे ताबड़तोड़ बांध बनाए जा रहे हैं, लेकिन इन बांधों को बनाने में कई तरह की बातों को दरकिनार किया जा रहा है,जो भविष्य के लिए खतरनाक है। वह कहते हैं कि भारत में दशकों पहले कंक्रीट से बने बांधों को भूकंप से बचाने के लिए नई बांध तकनीक से मजबूत करने की जरूरत है।
इसके लिए आईआईटी के साथ मिलकर अमेरिका के विशेषज्ञ काम करने को तैयार हैं। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के विशेषज्ञ प्रो. एके चोपड़ा कहते हैं कि 1967 में भूकंप में पुणे का 'कोएना बांध'
जिस तरह से टूटा-फूटा था, उसे लेकर कंक्रीट के बांधों को नई तकनीक से मजबूती देने की जरूरत महसूस हुई। भारत में अधिकांश बांध 50 से 60 साल पुराने हैं जिनकी क्षमता दिनों दिन घट रही है। उल्लेखनीय है कि भारत में कांग्रेस की पूर्ववर्ती सरकार ने एक प्रस्ताव रखा था जिसमें देश के सभी बांधों के निरीक्षण और मरम्मत की बात कही गई थी। यह प्रस्तावित कानून अभी तक संसद से पारित नहीं हुआ है। हालांकि पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा है, हम हर बांध की पूरी सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे और उसी हिसाब से उनकी समीक्षा की जाएगी। धरती की गरमी बढ़ाते हैं बांध बांधों से हो रहे पर्यावरण विनाश को लेकर पर्यावरणविद बरसों से चेता रहे हैं लेकिन हमारी सरकारें बांधों को विकास का प्रतीक बताने का ढिंढोरा पीटते हुए उनकी नसीहतों को अनसुना करती रही हैं। कैग की रिपोर्ट ने भी अपनी तरह से चेताया है।
इस सबके बावजूद सरकार बड़े बांध बनाकर उसको विकास का नमूना दिखाना चाह रही है। सच यह है कि बांधों ने पर्यावरणीय शोषण की प्रक्रिया को गति देने का काम किया है जबकि बांध समर्थक इसके पक्ष में विद्युत उत्पादन, सिंचाई, जल, मत्स्य पालन और रोजगार आदि में बढ़ोतरी का तर्क देते हैं। वे बांधों को जल का प्रमुख स्रोत बताते नहीं थकते। जबकि विश्व बांध आयोग के सर्वेक्षण से स्पष्ट होता है कि बांध राजनेताओं, प्रमुख केन्द्रीयकृत सरकारी-अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और बांध निर्माता कंपनियों के निजी हितों की भेंट चढ़ जाते हैं।
सरकार इस मामले में दूसरे देशों से सबक लेने को तैयार नहीं है जो अब बांधों से तौबा कर रहे हैं। विडम्बना यह है कि सरकार नए बांधों के निर्माण को तो प्रमुखता दे रही है लेकिन खतरनाक स्थिति में पहुंच चुके 50 साल पुराने तकरीब 655 बांधों के रखरखाव, भूकंप, बाढ़, मौसमी प्रभाव और सामान्य टूट-फूट से उपजी समस्याओं तथा बांधों के खतरे के आकलन स बंधी अध्ययन के लिए सचेत नहीं दिखती है। इस संबंध में जल संसाधन मंत्रालय के पास न तो कोई योजना है और न उसके लिए कोई बजट निर्धारित है। सरकार ने बांध सुरक्षा समिति गठित तो की है लेकिन मात्र सलाह देने के अलावा उसके पास कोई अधिकार नहीं है। यह सरकारी लापरवाही की जीती-जागती मिसाल है।
गौरतलब है कि आज भारत समेत दुनिया के बड़े बांधों को ग्लोबल वार्मिग के लिए भी जिम्मेदार माना जा रहा है। ब्राजील के वैज्ञानिकों के शोध इस तथ्य का खुलासा कर इसकी पुष्टि कर रहे हैं। उनसे स्पष्ट हो गया है कि दुनिया के बड़े बांध 11.5 करोड़ टन मीथेन वायुमंडल में छोड़ रहे हैं और भारत के बांध कुल ग्लोबल वार्मिग के पांचवे हिस्से के लिए जि मेदार हैं। इससे स्थिति की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है। वैज्ञानिकों का दावा है कि दुनिया के कुल 52 हजार के लगभग बांध और जलाशय मिलकर ग्लोबल वार्मिग पर मानव की करतूतों के चलते पडऩे वाले प्रभाव में चार फीसदी का योगदान कर रहे हैं। इस तरह इंसानी करतूतों से पैदा होने वाली मीथेन में बड़े बांधों की अहम भूमिका है। हमारे यहां मौजदा समय में कुल 5125 बड़े बांध हैं जिनमें से 4728 तैयार हैं और 397 निर्माणाधीन हैं। भारत में बड़े बांधों से कुल मीथेन का उत्सर्जन 3.35 करोड़ टन है जिसमें जलाशयों से करीब 11 लाख, स्पिलवे से 1.32 करोड़ व पनबिजली परियोजनाओं की टरबाइनों से 1.92 करोड़ टन मीथेन उत्सर्जित होता है। ऐसे में जिन क्षेत्रों में बांध बने हुए हैं वहीं भूकंप की संभावना अधिक रहती है। भूकंप के अलावा बांधों से लोगों को और भी कई तरह के खतरे रहते हैं। मध्य प्रदेश की जमीन पर बने उत्तर प्रदेश के आधा दर्जन बांधों के कारण पिछले कई दशक से मध्य प्रदेश हर साल बाढ़ से तबाही झेल रहा है। इन बांधों से मध्य प्रदेश को दोहरी मार पड़ रही है। एक तो यहां जमीनें खराब हो रही हैं और साथ ही बांधों के बकाए राजस्व की राशि दिन पर दिन बढ़ती जा रही है।
प्रदेश को होने वाली इस राजस्व की क्षति की वसूली के लिए प्रदेश की सरकारों ने कभी पहल नहीं की जबकि दूसरी ओर एक बड़े रकबे में भूमि सिंचित करने और बकाया भू-भाटक कोई जमा न करने से उत्तर प्रदेश सरकार के दोनों हाथों में लड्डू हैं। इस बीच केन बेतवा नदी गठजोड़ परियोजना पर भी सवालिया निशान उठ रहे हैं। इन बांधों के कारण मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सीमा से लगा हुआ छतरपुर जिला अरसे से बाढ़ त्रासदी को झेल रहा है। जंगल और जमीन मध्य प्रदेश की है लेकिन उसका दोहन उत्तर प्रदेश कर रहा है। गौरतलब है कि आजादी से पहले एकीकृत बुन्देलखण्ड में सिंचाई की व्यवस्था थी। लेकिन प्रदेशों के गठन के बाद मध्य प्रदेश को इन बांधों के कारण दोहरी मार झेलनी पड़ रही है। बांधों का निर्माण तो मध्य प्रदेश की जमीन पर हुआ है लेकिन व्यवसायिक उपयोग उत्तर प्रदेश कर रहा है। मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में कुल 6 बांध निर्मित हैं जो उत्तर प्रदेश की सम्पत्ति हैं। लहचुरा पिकअप वियर का निर्माण सन् 1910 में ब्रिटिश सरकार ने कराया था। इसमें मध्य प्रदेश की 607.88 एकड़ भूमि समाहित है। तत्कालीन अलीपुरा नरेश और ब्रिटिश सरकार के बीच अलीपुरा के राजा को लीज के रकम के भुगतान के लिए अनुबन्ध हुआ था।
आजादी के बाद नियमों के तहत लीज रेट का भुगतान मध्य प्रदेश सरकार केा मिलना चाहिए था लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने कोई भुगतान नहीं किया। नियम कायदों के हिसाब से लहचुरा पिकअप वियर ग्राम सरसेड के पास है इसलिए 15.30 रूपया प्रति 10 वर्गफुट के मान से 607.88 एकड़ का 40 लाख 51 हजार 318 रूपया वार्षिक भू-भाटक संगणित होता है। लेकिन ये रकम उत्तर प्रदेश पर बकाया है। इसी तरह पहाड़ी पिकअप वियर का निर्माण 1912 में ब्रिटिश सरकार ने कराया था। अनुबन्ध की शर्तों के मुताबिक दिनांक 01 अप्रैल 1908 से 806 रूपया और 1 अप्रैल 1920 से 789 रूपया अर्थात 1595 रूपया वार्षिक लीज रेट तय किया गया था। पहाड़ी पिकअप वियर के डूब क्षेत्र 935.21 एकड़ का वार्षिक भू-भाटक 62 लाख 32 हजार 875 रूपया होता है। यह राशि 1950 से आज तक उत्तर प्रदेश सरकार ने जमा नहीं की। करोड़ों रूपयों के इस बकाया के साथ-साथ बरियारपुर पिकअप वियर का भी सालाना भू-भाटक 8 लाख 36 हजार 352 रूपया होता है। इस वियर को भी 1908 में अंग्रेजी हुकूमत ने तैयार कराया था। इसमें तकरीबन 800 एकड़ भूमि डूब क्षेत्र में आती है। छतरपुर के पश्चिम में पन्ना जिले की सीमा से सटे गंगऊ पिकअप वियर का निर्माण 1915 में अंग्रेजी सरकार ने कराया था।
जिसमें 1000 एकड़ डूब क्षेत्र है। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने अन्य बांधों की तरह इस बांध का भी 6 लाख 53 हजार 400 रूपया वार्षिक भू-भाटक राशि को आज तक जमा नहीं किया। छतरपुर एवं पन्ना जिले की सीमा को जोडऩे वाले रनगुंवा बांध का निर्माण 1953 में उत्तर प्रदेश सरकार ने कराया था। इसका डूब क्षेत्र भी तकरीबन 1000 एकड़ है। इस प्रकार से वार्षिक भू-भाटक 6 लाख 53 हजार 400 रूपया है। इस राशि को भी उत्तर प्रदेश सरकार की रहनुमाई का इन्तजार है। वर्ष 1995 में उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रदेश की सीमा को जोडऩे वाली उर्मिल नदी पर बांध का निर्माण कराया था। इसके निर्माण के बाद मध्य प्रदेश की 1548 हेक्टेयर भूमि डूब क्षेत्र में आ गयी। इसका सालाना अनुमानित भू-भाटक 9 लाख 86 हजार 176 रूपए बनता है। लेकिन मप्र सरकार कभी भी उत्तर प्रदेश सरकार से अपने राजस्व का हिसाब नहीं कर सकी।,
जबकि हर बरसात में मध्य प्रदेश के गांवों को भीषण बाढ़ का सामना करने के साथ-साथ पलायन करना पड़ता है। उत्तर प्रदेश के इन अधिकंाश बांधों की समय सीमा अब लगभग समाप्त हो चुकी है। इनसे निकलने वाली नहरों के रख-रखाव पर न ही सरकारों ने कोई ध्यान दिया और न ही जल प्रबन्धन के सकारात्मक समाधान तैयार किए हैं। रनगुंवा बांध से मध्य प्रदेश को अब पानी भी नहीं मिल पाता है। जल-जंगल और जमीन इन तीन मुद्दों के बीच पिसती उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की हांसिए पर खड़ी जनता की यह पीड़ा कहीं न कहीं उन बांध परियोजनाओं के कारण ही उपजी है। जिसने दो प्रदेशों के बीच वर्तमान में पानी की जंग और भविष्य में बिन पानी बुंदेलखंड के अध्याय लिखने की तैयारी कर ली है।
आलम यह है कि अब ये बांध लोगों की जानमाल के लिए भी खतरे की घंटी बजा रहे हैं। इन बांधों से है खतरा बांध निर्मित वर्ष बालाघाट जिले में डोगरबोदी 1911 अमनल्ला 1916 बिठली 1910 बसीनखार 1909 रामगढ़ी 1915 तुमड़ीभाटा 1989 कुतरीनल्ला 1916 बड़वानी जिले में रंजीत 1916 बैतूल जिले में सतपुड़ा 1967 भोपाल जिले में केरवा 1976 हथाईखेड़ा 1962 छतरपुर जिले में मदारखबनधी 1964 गोरेताल 1663 दमोह जिले में माला 1929 मझगांव 1914 हसबुआमुदर 1917 गोड़ाघाट 1913 चिरेपानी 1913 रेद्दैया 1910 छोटीदेवरी 1919 जुमनेरा 1910 नूनपानी 1952 दतिया जिले में रामसागर(गुना) 1963 रामपुर 1917 अमाही 1917 खानपुरा 1907 जमाखेड़ी 1915 भरोली 1916 मोहरी 1916 केशोपुर 1916 खानकुरिया 1915 समर सिंघा 1917 ग्वालियर जिले में हरसी 1917 तिगरा 1917 रामोवा 1931 टेकनपुर 1895 सिमरियानग 1976 खेरिया 1913 रीवा जिले में गोविंदगढ़ 1916 सागर जिले में नारायणपुरा 1926 रतोना 1924 चांदिया 1926 सतना जिले में लिलगीबुंदबेला 1938 सीहोर जिले में जमनोनिया 1938 सिवनी जिले में अरी 1952 समाल 1910 चिचबुंद 1951 बारी 1957 शाजापुर जिले में नरोला 1916 सिलोदा 1916 शिवपुरी जिले में धपोरा 1913 चंदापाठा 1918 डिनोरा 1907 नागदागणजोरा 1911 झलोनी 1913 रजागढ़ 1914 अदनेर 1911 ककेटो 1934 विदिशा जिले में घटेरा 1956 उज्जैन जिले में अंतालवासा 1908 कड़ोडिया 1957 शाजापुर जिले में नरोला 1916 सिलोदा 1916 होशंगाबाद जिले में दुक्रिखेड़ा 1956 धनदीबड़ा 1956 इंदौर जिले में यशवंत नगर 1933 देपालपुर 1931 हशलपुर 1950 जबलपुर जिले में परियट 1927 बोरना 1920 पानागर 1912 कटनी जिले में पिपरोद 1913 गोहबंनधा 1912 पथारेहटा 1918 दारवारा 1918 पब्रा 1912 अमेठा 1918 जगुआ 1921 जगुआ 1921 लोवर सकरवारा 1919 अपर सकरवारा 1919 बोहरीबंद 1927 अमाड़ी 1927 बोरिना लोवरटी 1923 मौसंधा 1917 मंदसौर जिले में पोदोंगर 1956 गोपालपुरा 1954 पन्ना जिले में लोकपाल सागर 1909 रायसेन जिले में लोवर पलकसती 1936 भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील है नर्मदा पट्टी भारतीय उपमहाद्वीप में विनाशकारी भूकंपों का लम्बा इतिहास रहा है।
भूकंपों की अत्यधिक आवृत्ति और तीव्रता का मुख्य कारण यह है कि भारतीय टेक्टोनिक प्लेट तकरीबन 47 मिलीमीटर प्रति वर्ष की गति से यूरेशियाई प्लेट से टकरा रही है। भारत का करीब 54 प्रतिशत हिस्सा भूकंप की आशंका वाला है। जहां तक मप्र का सवाल है तो यहां के अधिकांश क्षेत्र जोन-3 यानी सामान्य तबाही वाले क्षेत्र की श्रेणी में आते हैं। भूकंप के दृष्टिकोण से अति संवेदनशील निमाड़ देश के मानचित्र में भूकंप जोन-3 में आता है। यह भूकंप की दृष्टि से कमजोर सोन-नर्मदा-ताप्ती लिनियामेंट जोन में है। यहां सन 1847 से 1992 के बीच 4 से 6.5 मैग्नीट्यूट क्षमता के 7 भूकंप आ चुके हैं। इसे देखते हुए नर्मदा पट्टी को संवेदनशील भूकंप संभावित क्षेत्र माना गया है। खंडवा जिले की पंधाना तहसील में करीब 20 वर्षों से भूगर्भीय हलचल ज्यादा बढ़ी है। 11 सितंबर 1998 से सन 2002 तक अंचल के 50 से अधिक गांवों को थर्रा देने वाले करीब 2000 झटके दर्ज हुए। इस दौरान सबसे अधिक 3.1 मैग्नीट्यूट तीव्रता का एक झटका दर्ज हुआ था। कई बार तो एक ही दिन में 50 से अधिक झटके दर्ज हुए। इनसे किसी प्रकार की क्षति तो नहीं हुई लेकिन कुछ वर्षों तक भूकंप की दहशत बनी रही। धीरे-धीरे भूगर्भीय गतिविधियों में कमी होते-होते लगभग बंद हो गई।
भूगर्भीय हलचल के बाद देश के ख्यात वैज्ञानिकों ने क्षेत्र में इनका सर्वेक्षण किया। पंधाना तहसील मुख्यालय, नर्मदानगर, जिलाधीश कार्यालय, छनेरा, ओंकारेश्वर, बागली, बड़वानी, मंडलेश्वर सहित 11 स्थानों पर भूकंप मापी सिस्मोग्राफ मशीनें लगाई गई। छेगांवमाखन विकास खंड के सिरसोद में वैधशाला स्थापित की गई। भूगर्भीय हलचल पर नजर रखने के लिए वैज्ञानिकों के लगातार दौरे होते रहे, लेकिन सन 2002 के बाद जैसे-जैसे भूगर्भीय हलचलों में कमी आई वैधशाला बंद हो गई। अधिकांश स्थानों पर लगी भूकंपमापी मशीनें भी बंद हो गईं। लेकिन विसंगति यह है कि भूकंप के लिए संवेदनशील नर्मदा पट्टी में सबसे अधिक बांधों और नहरों का निर्माण किया गया है। क्षेत्र में निर्माण की लंबी श्रृंखला को देखते हुए लगता है कि नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण (एनवीडीए)को पता ही नहीं है कि नर्मदा पट्टी भूकंप के लिए संवेदनशील क्षेत्र है। खतरे में है नर्मदा घाटी नर्मदा घाटी क्षेत्र में 26 अप्रैल को हुए भू-गर्भीय कंपन लोगों के लिए कौतूहल का विषय बना हुआ है। बड़वानी में भूकंप से कई स्थानों पर पक्के मकानों की दीवारों में दरारें आ गई। लोगों का कहना है कि भूकंपन की दृष्टि से नर्मदा घाटी खतरनाक जोन में माना गया है।
नर्मदा पर बनाए जा रहे सरदार सरोवर बांध सहित अन्य बांधों की श्रृंखला से व जलाशयों के बनने से यहां लगातार दबाव बढ़ता जा रहा है। बावजूद इसके आपात स्थिति से निपटने के लिए कोई तैयारी नहीं है। जिला मुख्यालय पर वेधशालाएं तो हैं लेकिन पर्याप्त संसाधन नहीं होने से ये किसी काम की साबित नहीं हो रही है। जिस समय भूकंपन हुआ उस दौरान लोगों ने इसे साफ महसूस किया। कृष्णा स्टेट कॉलोनी निवासी विजय गोरे ने बताया मकान के खिड़की दरवाजे हिलने लगे। अजय गोरे ने बताया कि पूजा करते समय दो झटके लगे। इससे मकान की दीवार में दरारें भी पड़ गई। नर्मदा बचाओ आंदोलन नेत्री मेधा पाटकर ने बताया कि नर्मदा घाटी खतरे की जद में है। वर्ष 2009 में भी क्षेत्र में 4.2 रिक्टर स्केल की तीव्रता का कंपन आंका गया था।
सरदार सरोवर बांध प्रभावित क्षेत्र में भू-गर्भीय हलचल को रोकने या इसके आंकलन के लिए कोई तैयारी नहीं है। भूकंप के लिए मेधा पाटकर ने सरदार सरोवर बांध व नर्मदा क्षेत्र में हो रहे रेत उत्खनन को जिम्मेदार ठहराया हैं। उन्होंने बताया कि मप्र में जलाशयों की श्रंृखला निर्मित की जा रही है। नर्मदा सोन लिनमेट पर बहने वाली नर्मदा पर ही बनने से जो क्षेत्र पर बड़ा दबाव पैदा होता है, उससे भूगर्भ में हलचल मचती है, जो भूचाल बनाती है। मेधा पाटकर कहती हैं कि नर्मदा सोन नर्मदा लिनामेंट पर बह रही है। भूकंप की दृष्टि से ये क्षेत्र बहुत ही कमजोर है। उन्होंने बताया कि 3 रिक्टर स्केल के भूकंप महसूस नहीं होता है। 4.5 रिक्टर स्केल के भूकंप महसूस होते हैं। मप्र में भूकंप मापन पर कोई काम नहीं हो रहा है। सोन नर्मदा लिनामेंट पर वॉटर बॉडी खड़ी कर रहे हैं। इसके घातक परिणाम भुगतने होंगे। किनारों पर जमीन धंसने की घटनाएं अब लगातार होने की संभावना है। नर्मदा घाटी देश की संवेदनशील क्षेत्रों में से एक है। नदी घाटियों में स्थित सरदार सरोवर के इर्दगिर्द में तीनों राज्यों में कई सोर प्लांट जोन्स है। इसमें एक बोरखेड़ी बड़वानी में है तो दूसरा शाहदा महाराष्ट्र में है। बड़वानी में 1930 से लेकर कई भूकंप आए हंै।
जिसमें 6 .5 तक के झटके हैं, 2009 में 4.2 रिक्टर स्केल का रहा है। इससे बांध को क्षति हुई, लेकिन कभी भी उसका आंकलन नहीं करवाया गया। सरदार सरोवर संबंध में भूकंप मापन केन्द्र प्रस्थापित किए गए हैं। इनमें से एक सागबारा, गुजरात में तथा दूसरा शाहदा, महाराष्ट्र में कार्यरत है। मप्र में एक भी काम नहीं कर रहा है। इसी कारण भूकंप की तीव्रता एवं नियमितता कभी रिकॉर्ड पर नहीं हुई। नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण के पर्यावरण उपदल की बैठकों में यह कहा गया है कि अधिक जानकारी राज्यों से जरूरी है, जो नहीं मिल पा रही है। बरगी में 1996 का भूकंप बांध के पास ही केंद्र होकर निर्मित हुआ था। कच्छ में आए महाविनाशक 2000 के भूंकप का केंद्र भी सरदार सरोवर के ही पास था। यह गुजरात के कई वैज्ञानिकों की खोज से निकली बात थी। बड़वानी 1938 में 6 रिस्केल से अधिक और 2009 में 4.2 रिस्केल को भूंकप आया था। बरगी मध्यप्रदेश तथा कोयना महाराष्ट्र और अन्य बांधों को भूकंप से सुरक्षित कहकर इर्दगिर्द के घर, इंसान, पेड़ और संपत्ति का बड़ा नुकसान किया था।
बोरखेड़ी बड़वानी फाल्ट जोन में आज भी भूकंप का हादसा बना हुआ है, जिसका असर पाटी जैसे आदिवासी क्षेत्र से लेकर खरगोन तक जाता है। 2009 में बड़वानी के भूकंप का धक्का भी खरगोन तक पहुंचा था। 1972 में बने मास्टर प्लान के अनुसार मध्यप्रदेश नर्मदा में उपलब्ध कुल जल का 65 फीसद यानि 18.25 मिलियन एकड़ फीट(एमएएफ ) जल का उपयोग कर प्रदेश को समृद्ध बनाएगा। इसके तहत 23 बड़ी, 135 मध्यम व तीन हजार से अधिक छोटी परियोजनाओं का निर्माण करना तय किया गया। वृहद परियोजनाओं के लिए 1985 में नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण (एनवीडीए)का गठन हुआ। सभी बड़ी परियोजनाओं का जिम्मा प्राधिकरण को सौंपा गया। लेकिन प्राधिकरण ने बिना मापदंड के इस क्षेत्र में निर्माण कार्य करवाया है जो कभी भी खतरनाक बन सकते हैं। इस क्षेत्र में प्राधिकरण ने तीन दशक में केवल दो बड़ी परियोजनाएं मान व जोबट ही पूरी कर सका। वहीं पांच परियोजनाएं वर्ष 1988 से पहले जल संसाधन विभाग द्वारा पूरी की गई। एनवीडीए की सात परियोजनाएं रानी अवंतीबाई लोधी सागर परियोजना (जल उपयोग1681एमसीएम), बरगी डायवर्जन (2510.6 एमसीएम), इंदिरा सागर (1625.26 एमसीएम), ओंकारेश्वर (1300 एमसीएम), अपर वेदा(101.09 एमसीएम), पुनासा लि ट (130.20 एमसीएम)एवं लोअर गोई (136.65 एमसीएम)निर्माणाधीन हैं।
वहीं दो परियोजनाएं हालोन एवं अपर नर्मदा के लिए निर्माण का कार्य शुरुआती दौर में ही है। जबकि सात परियोजनाएं अब तक शुरु ही नहीं की जा सकी। इनके लिए सर्वे,अन्वेषण एवं डीपीआर बनाने का काम ही पूरा नहीं हो सका। भूकंप से बचाने की कागजी योजना भूकंप और अन्य प्राकृतिक आपदाओं को लेकर सरकारी एजेंसियों का अभी तक का रवैया कैसा रहा है इसका सबसे बड़ा उदाहरण जवाहर लाल नेहरू अर्बन रिन्यूअल मिशन के तहत भूकंप सहने वाले मकान बनाने की योजना है।
इस योजना के तहत तीन दर्जन से ज्यादा शहरों में भूकंप रोधी मकानों के निर्माण के कार्य को वरीयता देने की बात थी लेकिन कई वर्ष बीतने के बाद भी यह योजना कागजों में ही सिमटी है। इस योजना का हश्र बताता है कि जब देश में कोई आपदा आती है तो सरकारी एजेंसियां योजना बनाने में जुट जाती हैं लेकिन समय बीतने के साथ ही उस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। योजनाओं के अमल का कोई उपाय नहीं जवाहर लाल नेहरू अर्बन रिन्यूअल मिशन में भूकंप सहने वाले मकान बनाने की योजना के साथ ही 38 शहरों के लिए अर्बन अर्थक्वेक वलनरबिलिटी रिडक्शन प्रोजेक्ट की प्रगति भी काफी खराब है। असलियत में इन दोनों योजनाओं की प्रगति सिर्फ कागजों में दिखाई देती है।
दरअसल, इन योजनाओं को कैसे अमलीजामा पहनाया जाएगा, इसको लेकर सरकार अंधेरे में हैं। केंद्र में नई सरकार के आने के बाद भी हालात में बहुत बदलाव नहीं हुए हैं। बार-बार केंद्र की तरफ से राज्यों को भूकंप से बचने के लिए तमाम उपाय करने पर सुझाव देने की औपचारिकता पूरी कर दी जाती है। लेकिन इसे कैसे अमल में लाया जाए या इसको लेकर क्या प्रगति हो रही है, इसकी कोई निगरानी नहीं होती। बिल्डर उड़ा रहे नियमों की धज्जियां राज्य सरकारों की भूमिका भी कम चिंताजनक नहीं है। इस बारे में केंद्र की तरफ से बुलाई गई बैठक में काफी वादे किए जाते हैं लेकिन जमीनी तौर पर भूकंप से बचने के लिए होने वाले उपायों की पूरी तरह से अनदेखी की जाती है।
लिहाजा बिल्डर धड़ल्ले से नियम कायदों की धज्जियां उड़ा रहे हैं। मप्र की राजधानी से लेकर इंदौर, ग्वालियर, जबलपुर जैसे तमाम शहरों में सिंगल प्लाट पर बनने वाले बहुमंजिला इमारत किसी प्राकृतिक आपदा में मौत का कुंआ साबित हो सकते हैं। उत्तर भारत के अधिकांश शहर खतरनाक सेस्मिक जोन (भूकंप संभावित क्षेत्र) में है। सरकार ने भूकंप की आशंका के मुताबिक सभी शहरों के लिए योजना बनाई थी लेकिन अमल अभी तक नहीं ह o पाया। पहले चरण में पांच लाख से ज्यादा आबादी वाले संभावित शहरों को चुना गया था। लेकिन कही भी इसका अमल नहीं हुआ है।
Toc news 16 मई 2015
जर्जर बांधों की जद में प्रदेश की आधी आबादी
प्रदेश में 100 साल की उम्र पार कर चुके हैं 23 बांध
नेपाल में आए भूकंप के बाद बढ़ी सरकार की चिंता
भोपाल। नेपाल सहित देश के कई राज्यों में भूकंप से मची तबाही के बाद अब मप्र के उम्रदराज बांधों की चिंता पर्यावरणविदों और उनके आसपास के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को सताने लगी हैं। सरकार भी इस बात को लेकर चिंतित है, क्योंकि प्रदेश के 23 बांध 100 साल से भी अधिक पुराने हो गए हैं और अधिकांश खतरे की जद में हैं। अहमदाबाद स्थित भूकंप अनुसंधान संस्थान के महानिदेशक बीके रस्तोगी का कहना है कि अगर नेपाल की तरह यहां 7.9 मैग्नीट्यूट तीव्रता वाला भूकंप आता है तो हर तरफ जलजला हो जाएगा क्योंकि मप्र के अशिकांश बांधों की स्थिति इतना तेज झटका बर्दास्त करने की नहीं है। भूगर्भशास्त्रियों और वैज्ञानिकों के मुताबिक, मप्र अपेक्षाकृत कम खतरे वाले हिस्से जोन-3 में आता है। इस कारण यहां के बांधों के निर्माण में भूकंपरोधी क्षमता की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है।
वैज्ञानिक डॉ. अशोक कुमार कहते हैं कि जिस तरह टिहरी बांध नौ से दस मैग्निट्यूड के भूकंप को भी झेलने में सक्षम है उस तरह की क्षमता मप्र के बांधों में नहीं है। वैसे भी मप्र के बांध पिछले कुछ सालों से जर्जर अवस्था में पहुंच गए हैं। पिछली बारिश के दौरान डिंडोरी का गोमती बांध, हमेरिया बांध, रामगढ़ी, सिमरियानग, चांदिया, गोरेताल, लोकपाल सागर, भरोली सहित करीब दर्जनभर बांधों में रिसाव और दरार आने से आसपास के क्षेत्रों में दहशत फैल गई थी। हालांकि समय पर इन बांधों के रिसाव और दरार को दुरूस्त कर दिया गया, लेकिन ये घटनाएं इस बात का संकेत दे गईं की अगर बांधों की लगातार देखरेख और मरम्मत नहीं की गई तो ये कभी भी जानलेवा बन सकते हैं। अब नेपाल में आए विनाशक भूकंप के बाद जब मप्र के जर्जर बांधों की स्थिति का जायजा लिया गया तो यह तथ्य सामने आया की प्रदेश के करीब 91 बांध उम्रदराज हैं और ये कभी भी दरक सकते हैं। वाटर रिसोर्स डेवलपमेंट के आंकडों के अनुसार प्रदेश में पेयजल उपलब्ध कराने, सिंचाई और बिजली उत्पादन के लिए 168 बड़े और सैकड़ों छोटे बांध बनाए गए हैं।
देखरेख और मेंटेंनेंस के अभाव में कई छोटे-बड़े बांध बूढ़े और जर्जर हो चुके हैं। इनमें से कुछ की उम्र 100 साल से ज्यादा है। इन उम्रदराज बांधों को लेकर बेपरवाह प्रशासन ने न तो इन्हें डेड घोषित किया और न ही मरम्मत की कोई ठोस पहल की। ऐसे में ये लबालब बांध यदि दरक गए या टूट गए तो कभी भी बड़ी तबाही ला सकते हैं। इन बांधों की वजह से नदियां भी अपनी दिशा बदल सकती हैं। इससे भी बड़ा खतरा पैदा हो सकता है। लेकिन इस ओर कभी किसी का ध्यान नहीं गया है। प्रदेश के लगभग आधा सैकड़ा बांधों की उम्र 50 साल पूरी हो चुकी है। जबकि 23 बांध तो 100 साल से भी ज्यादा पुराने हैं। ऐसे में इन बांधों की ठोस मरम्मत नहीं होने से इनके आधार कमजोर हो चले हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक बड़े बांधों की उम्र 100 वर्ष व छोटे बांध की उम्र लगभग 50 वर्ष मानी जाती है।
इस उम्र तक इन बांधों की मजबूती बनी रहती है। बाद में ये धीरे-धीरे ये कमजोर होने लगते हैं। साथ ही नदियों के साथ आने वाले गाद भी बांधों को प्रभावित करते हैं। इससे बांधों की क्षमता कम होने लगती है। वाटर रिसोर्सेज से जुड़े एक्सपर्ट इंजीनियर बांधों की उम्र 50 और 100 साल बताते हैं। छोटे बांधों को 50 वर्ष के हिसाब से डिजाइन किया जाता है, जबकि बड़े बांधों की उम्र 100 साल बताई जाती है। बांधों के सिलटेशन और मजबूती दोनों के आधार पर उम्र तय होती है। वर्तमान में ज्यादातर बांधों की उम्र बहुत ज्यादा हो चुकी है। जानकारों का कहना है कि जब बांध बने थे जब ज्यादातर स्थान जंगल थे।
अब जंगल काटकर खेती होने लगी है। इसका असर भी बांधों पर पड़ा है। बांधों में सिलटेशन बढ़ चुके हैं। आजतक सरकार ने लाइव स्टोरेज ही नहीं मापी है। बेस में मिट्टी में सही तरीके से का प्रेशन नहीं किया गया है। आधार ही यदि कमजोर हो गया, तो बांध के बचने का सवाल ही नहीं। गेट से ज्यादा खतरा बांधों में सबसे ज्यादा खतरा गेट के खराब होने का रहता है। हर साल गेट की मरम्मत होनी जरूरी हैं। ज्यादातर गेट के रबर-सील कट जाते हैं, जिन्हें नहीं सुधारने पर बगैर गेट खोले ही पानी बहने लगता है। इसके अलावा चोक नालियां भी खतरा बन सकती हैं। पिछले चार साल से करीब दो दर्जन बांध जब बारिश के दिन में लबालब होते हैं तो उनके गेट से पानी बहने लगता है। लेकिन मध्यप्रदेश वाटर रिसोर्स डेवलपमेंट इस ओर ध्यान नहीं दे रहा है। बताया जात है हर साल सैकड़ों एकड़ खेती तो बांध से निकले पानी से ही खराब हो जाती है। विभागीय अधिकारियों का कहना है कि तीन साल पहले एक रिपोर्ट तैयार की गई थी, जिसमें बांधों की बदहाल स्थिति को बताया गया था।
लेकिन रिपोर्ट फाइलों में ही दब कर रह गई है। प्रदेश के कई बांधों में रिसाव की समस्या आम है। आए दिन रिसाव वाली जगह से बांधों के आशिंक रूप से टूटने की खबरें आती रहती हैं। बांध टूटने से सैकड़ो एकड़ फसल के अलावा अन्य आर्थिक नुकसान भी होते हैं। मंदसौर शहर को बाढ़ के खतरे से बचाने के लिए चार दशक पहले बने धुलकोट बांध पर अब खनन माफियाओं की नजर पड़ गई है। शहर के पश्चिमी इलाके में बने इस ढाई किलोमीटर लंबे बांध की पाल को मिट्टी माफियाओं ने खोदना शुरु कर दिया है और वे चोरी छिपे यहां से ट्रॉलियों में मिट्टी भरकर ले जा रहे है, जिसका ईंट बनाने में उपयोग कर रह रहे हैं।
ईंट भट्टे मालिकों ने शमशान घाट और नरसिंहपुरा इलाके से गुजर रही बांध की पाल से इतनी भारी मात्रा में मिट्री की खुदाई की है कि करीब आधा किलोमीटर इलाके में बांध काफी जर्जर हो गई है। हैरत की बात ये है कि अधिकारी इस खुदाई से नावाकिफ हैं। वहीं, खंडवा जिले में स्थित 'ओंकार पर्वतÓ की दरार से ओंकारेश्वर बांध (जल विद्युत सिंचाई परियोजना) को खतरा उत्पन्न होने की आशंका है। बांध के ठीक सामने पर्वत में दरार दिखाई दे रही है।
बांध से लगभग 150 मीटर दूर पर्वत का एक हिस्सा दरकने लगा है। बांध और पर्वत के बीच कुछ चट्टानें कट गई हैं। आशंका व्यक्त की जा रही है कि नर्मदा नदी की तलहटी में दरार अंदर ही अंदर बांध तक पहुंच गई तो बड़े नुकसान का खतरा हो सकता है। जानकारों का कहना है कि नर्मदा में आने वाली बाढ़ से पर्वत चारों तरफ से कट रहा है। पर्वत पर कभी जंगल हुआ करता था, लेकिन क्षेत्र में गिनती के पेड़ रह गए हैं। पर्वत पर मठ, आश्रम, दुकान, मकान बन गए हैं। पर्वत की तलहटी में ज्योर्तिलिग मंदिर है, यह क्षेत्र अवैध भवन निर्माणों से घिरता जा रहा है। पर्वत पर अतिक्रमण हो रहे हैं। उल्लेखनीय है कि नर्मदा हाइड्रोइलेक्ट्रिक डेवलपमेंट कापरेरेशन लिमिटेड द्वारा बनाई गई ओंकारेश्वर जल विद्युत परियोजना में बांध द्वारा 520 मेगावाट बिजली बनाने की क्षमता है। बांध में कुल 23 गेट लगे हैं। यहां पर 189 मीटर जलस्तर तक (समुद्र तल से) पानी भरा जाता है। अगर यह बांध दरकता है तो बड़ी जन हानि होगी।
संजय सरोवर परियोजना के तहत बनाए गए एशिया के सबसे बड़े मिट्टी के बांध पर खतरा मंडरा रहा है। एक तरफ इस बांध के तटबंध की मिट्टी लगातार बह रही है वहीं आतंकवादियों और नक्सलवादियों की भी कुदृष्टि इस बांध की ओर है। भीमगढ़ बांध में गेटों की सुरक्षा के लिए कन्ट्रोल रूम बनाया गया है जहां एक चोकीदार रहता है और वह भी नदारद रहता है और उसके सिवाय वहां कोई भी जबाबदार व्यक्ति सेवा नहीं देता। इनकी होती है लगातार मॉनिटरिंग एक तरफ जहां आधी शताब्दी पहले बने बांधों की देखरेख नहीं की जा रही है वहीं अभी हाल ही में बने बरगी, तवा, बरना, इंदिरा सागर,ओंकारेश्वर, बाणसागर, गांधी सागर, मनीखेड़ा, गोपीकृष्ण सागर, माही, कोलार और केरवा बांध ऐसे हैं जिनकी लगातार मॉनिटरिंग हो रही है। इन बांधों में किस दिन कितना पानी बढ़ा और कितना कम हुआ इसकी जानकारी प्रतिदिन मिलती है।
कितने सुरक्षित हैं बांध... सरकार ने माना था कि देश के कुल 5,000 बांधों में से 670 ऐसे इलाके में जो भूकंप संभावित जोन की उच्चतम श्रेणी में आते हैं। ऐसे बांधों में मप्र के करीब 24 बांध भी शामिल हैं। सवाल ये उठता है कि भूकंप संभावित इलाकों में मौजूद ये बांध आखिर कितने सुरक्षित हैं। मौजूदा समय में उपयोग किए जाने वाले 100 से ज़्यादा बांध 100 वर्ष से भी पुराने हैं। भारत में बांध बनाने की परंपरा सदियों पुरानी है और पिछले 50 वर्षों में ही देश के विभिन्न राज्यों में 3,000 से ज़्यादा बड़े बांधों का निर्माण हुआ है।
ऐसे देश में, जहां आधी से ज़्यादा आबादी कृषि पर निर्भर है वहां 95 प्रतिशत से ज़्यादा बांधों का उपयोग सिंचाई के लिए किया जाता है। भारत में बांधों का निर्माण और उनकी मरम्मत की निगरानी केंद्रीय जल आयोग करता है। आयोग के साथ सरकारें भी दोहराती रहीं हैं कि सभी बांधों की सुरक्षा जांच होती रही है और भूकंप संभावित ज़ोन में आने वाले बांध भी किसी आपदा को झेल सकने में सक्षम हैं। कई विशेषज्ञों का मत है कि मप्र में सैंकड़ों बांध अब पुराने हो चले हैं और असुरक्षित होते जा रहे हैं।
उनका कहना है कि पुराने बांधों को गिराकर उसी इलाके में नए और ज़्यादा मज़बूत बांधों का निर्माण आवश्यक है। साऊथ एशिया नेटवर्क ऑफ डैम्स के प्रमुख हिमांशु ठक्कर कहते है कि सरकारों का ध्यान इस ओर नहीं गया है। ठक्कर ने बताया, मौजूदा समय में उपयोग किए जाने वाले देश में 100 तथा मप्र में 23 बांध 100 वर्ष से भी पुराने हैं। बांध पर बांध बने जा रहे हैं बिना ये सोचे की अगर ऊपर का एक बांध टूट गया तो नीचे किस तरह की प्रलय आ जाएगा। मामले से जुड़े अधिकारियों का कहना है कि भारत में किसी बांध का इस्तेमाल बंद कर देना इतना भी आसान नहीं है और उसे बंद करने से पहले विकल्प की तलाशने की जरूरत होती है।
भारत के 'सेंट्रल वॉटर कमीशनÓ के प्रमुख अश्विन पंड्या को लगता है कि भारत एक विकासशील अर्थव्यवस्था है जहां आबादी का दबाव तेजी से बढ़ रही है, साथ ही सिंचाई और ऊर्जा संबंधी जरूरतें बढ़ती जा रही हैं। ऐसे ताबड़तोड़ बांध बनाए जा रहे हैं, लेकिन इन बांधों को बनाने में कई तरह की बातों को दरकिनार किया जा रहा है,जो भविष्य के लिए खतरनाक है। वह कहते हैं कि भारत में दशकों पहले कंक्रीट से बने बांधों को भूकंप से बचाने के लिए नई बांध तकनीक से मजबूत करने की जरूरत है।
इसके लिए आईआईटी के साथ मिलकर अमेरिका के विशेषज्ञ काम करने को तैयार हैं। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के विशेषज्ञ प्रो. एके चोपड़ा कहते हैं कि 1967 में भूकंप में पुणे का 'कोएना बांध'
जिस तरह से टूटा-फूटा था, उसे लेकर कंक्रीट के बांधों को नई तकनीक से मजबूती देने की जरूरत महसूस हुई। भारत में अधिकांश बांध 50 से 60 साल पुराने हैं जिनकी क्षमता दिनों दिन घट रही है। उल्लेखनीय है कि भारत में कांग्रेस की पूर्ववर्ती सरकार ने एक प्रस्ताव रखा था जिसमें देश के सभी बांधों के निरीक्षण और मरम्मत की बात कही गई थी। यह प्रस्तावित कानून अभी तक संसद से पारित नहीं हुआ है। हालांकि पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा है, हम हर बांध की पूरी सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे और उसी हिसाब से उनकी समीक्षा की जाएगी। धरती की गरमी बढ़ाते हैं बांध बांधों से हो रहे पर्यावरण विनाश को लेकर पर्यावरणविद बरसों से चेता रहे हैं लेकिन हमारी सरकारें बांधों को विकास का प्रतीक बताने का ढिंढोरा पीटते हुए उनकी नसीहतों को अनसुना करती रही हैं। कैग की रिपोर्ट ने भी अपनी तरह से चेताया है।
इस सबके बावजूद सरकार बड़े बांध बनाकर उसको विकास का नमूना दिखाना चाह रही है। सच यह है कि बांधों ने पर्यावरणीय शोषण की प्रक्रिया को गति देने का काम किया है जबकि बांध समर्थक इसके पक्ष में विद्युत उत्पादन, सिंचाई, जल, मत्स्य पालन और रोजगार आदि में बढ़ोतरी का तर्क देते हैं। वे बांधों को जल का प्रमुख स्रोत बताते नहीं थकते। जबकि विश्व बांध आयोग के सर्वेक्षण से स्पष्ट होता है कि बांध राजनेताओं, प्रमुख केन्द्रीयकृत सरकारी-अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और बांध निर्माता कंपनियों के निजी हितों की भेंट चढ़ जाते हैं।
सरकार इस मामले में दूसरे देशों से सबक लेने को तैयार नहीं है जो अब बांधों से तौबा कर रहे हैं। विडम्बना यह है कि सरकार नए बांधों के निर्माण को तो प्रमुखता दे रही है लेकिन खतरनाक स्थिति में पहुंच चुके 50 साल पुराने तकरीब 655 बांधों के रखरखाव, भूकंप, बाढ़, मौसमी प्रभाव और सामान्य टूट-फूट से उपजी समस्याओं तथा बांधों के खतरे के आकलन स बंधी अध्ययन के लिए सचेत नहीं दिखती है। इस संबंध में जल संसाधन मंत्रालय के पास न तो कोई योजना है और न उसके लिए कोई बजट निर्धारित है। सरकार ने बांध सुरक्षा समिति गठित तो की है लेकिन मात्र सलाह देने के अलावा उसके पास कोई अधिकार नहीं है। यह सरकारी लापरवाही की जीती-जागती मिसाल है।
गौरतलब है कि आज भारत समेत दुनिया के बड़े बांधों को ग्लोबल वार्मिग के लिए भी जिम्मेदार माना जा रहा है। ब्राजील के वैज्ञानिकों के शोध इस तथ्य का खुलासा कर इसकी पुष्टि कर रहे हैं। उनसे स्पष्ट हो गया है कि दुनिया के बड़े बांध 11.5 करोड़ टन मीथेन वायुमंडल में छोड़ रहे हैं और भारत के बांध कुल ग्लोबल वार्मिग के पांचवे हिस्से के लिए जि मेदार हैं। इससे स्थिति की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है। वैज्ञानिकों का दावा है कि दुनिया के कुल 52 हजार के लगभग बांध और जलाशय मिलकर ग्लोबल वार्मिग पर मानव की करतूतों के चलते पडऩे वाले प्रभाव में चार फीसदी का योगदान कर रहे हैं। इस तरह इंसानी करतूतों से पैदा होने वाली मीथेन में बड़े बांधों की अहम भूमिका है। हमारे यहां मौजदा समय में कुल 5125 बड़े बांध हैं जिनमें से 4728 तैयार हैं और 397 निर्माणाधीन हैं। भारत में बड़े बांधों से कुल मीथेन का उत्सर्जन 3.35 करोड़ टन है जिसमें जलाशयों से करीब 11 लाख, स्पिलवे से 1.32 करोड़ व पनबिजली परियोजनाओं की टरबाइनों से 1.92 करोड़ टन मीथेन उत्सर्जित होता है। ऐसे में जिन क्षेत्रों में बांध बने हुए हैं वहीं भूकंप की संभावना अधिक रहती है। भूकंप के अलावा बांधों से लोगों को और भी कई तरह के खतरे रहते हैं। मध्य प्रदेश की जमीन पर बने उत्तर प्रदेश के आधा दर्जन बांधों के कारण पिछले कई दशक से मध्य प्रदेश हर साल बाढ़ से तबाही झेल रहा है। इन बांधों से मध्य प्रदेश को दोहरी मार पड़ रही है। एक तो यहां जमीनें खराब हो रही हैं और साथ ही बांधों के बकाए राजस्व की राशि दिन पर दिन बढ़ती जा रही है।
प्रदेश को होने वाली इस राजस्व की क्षति की वसूली के लिए प्रदेश की सरकारों ने कभी पहल नहीं की जबकि दूसरी ओर एक बड़े रकबे में भूमि सिंचित करने और बकाया भू-भाटक कोई जमा न करने से उत्तर प्रदेश सरकार के दोनों हाथों में लड्डू हैं। इस बीच केन बेतवा नदी गठजोड़ परियोजना पर भी सवालिया निशान उठ रहे हैं। इन बांधों के कारण मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सीमा से लगा हुआ छतरपुर जिला अरसे से बाढ़ त्रासदी को झेल रहा है। जंगल और जमीन मध्य प्रदेश की है लेकिन उसका दोहन उत्तर प्रदेश कर रहा है। गौरतलब है कि आजादी से पहले एकीकृत बुन्देलखण्ड में सिंचाई की व्यवस्था थी। लेकिन प्रदेशों के गठन के बाद मध्य प्रदेश को इन बांधों के कारण दोहरी मार झेलनी पड़ रही है। बांधों का निर्माण तो मध्य प्रदेश की जमीन पर हुआ है लेकिन व्यवसायिक उपयोग उत्तर प्रदेश कर रहा है। मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में कुल 6 बांध निर्मित हैं जो उत्तर प्रदेश की सम्पत्ति हैं। लहचुरा पिकअप वियर का निर्माण सन् 1910 में ब्रिटिश सरकार ने कराया था। इसमें मध्य प्रदेश की 607.88 एकड़ भूमि समाहित है। तत्कालीन अलीपुरा नरेश और ब्रिटिश सरकार के बीच अलीपुरा के राजा को लीज के रकम के भुगतान के लिए अनुबन्ध हुआ था।
आजादी के बाद नियमों के तहत लीज रेट का भुगतान मध्य प्रदेश सरकार केा मिलना चाहिए था लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने कोई भुगतान नहीं किया। नियम कायदों के हिसाब से लहचुरा पिकअप वियर ग्राम सरसेड के पास है इसलिए 15.30 रूपया प्रति 10 वर्गफुट के मान से 607.88 एकड़ का 40 लाख 51 हजार 318 रूपया वार्षिक भू-भाटक संगणित होता है। लेकिन ये रकम उत्तर प्रदेश पर बकाया है। इसी तरह पहाड़ी पिकअप वियर का निर्माण 1912 में ब्रिटिश सरकार ने कराया था। अनुबन्ध की शर्तों के मुताबिक दिनांक 01 अप्रैल 1908 से 806 रूपया और 1 अप्रैल 1920 से 789 रूपया अर्थात 1595 रूपया वार्षिक लीज रेट तय किया गया था। पहाड़ी पिकअप वियर के डूब क्षेत्र 935.21 एकड़ का वार्षिक भू-भाटक 62 लाख 32 हजार 875 रूपया होता है। यह राशि 1950 से आज तक उत्तर प्रदेश सरकार ने जमा नहीं की। करोड़ों रूपयों के इस बकाया के साथ-साथ बरियारपुर पिकअप वियर का भी सालाना भू-भाटक 8 लाख 36 हजार 352 रूपया होता है। इस वियर को भी 1908 में अंग्रेजी हुकूमत ने तैयार कराया था। इसमें तकरीबन 800 एकड़ भूमि डूब क्षेत्र में आती है। छतरपुर के पश्चिम में पन्ना जिले की सीमा से सटे गंगऊ पिकअप वियर का निर्माण 1915 में अंग्रेजी सरकार ने कराया था।
जिसमें 1000 एकड़ डूब क्षेत्र है। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने अन्य बांधों की तरह इस बांध का भी 6 लाख 53 हजार 400 रूपया वार्षिक भू-भाटक राशि को आज तक जमा नहीं किया। छतरपुर एवं पन्ना जिले की सीमा को जोडऩे वाले रनगुंवा बांध का निर्माण 1953 में उत्तर प्रदेश सरकार ने कराया था। इसका डूब क्षेत्र भी तकरीबन 1000 एकड़ है। इस प्रकार से वार्षिक भू-भाटक 6 लाख 53 हजार 400 रूपया है। इस राशि को भी उत्तर प्रदेश सरकार की रहनुमाई का इन्तजार है। वर्ष 1995 में उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रदेश की सीमा को जोडऩे वाली उर्मिल नदी पर बांध का निर्माण कराया था। इसके निर्माण के बाद मध्य प्रदेश की 1548 हेक्टेयर भूमि डूब क्षेत्र में आ गयी। इसका सालाना अनुमानित भू-भाटक 9 लाख 86 हजार 176 रूपए बनता है। लेकिन मप्र सरकार कभी भी उत्तर प्रदेश सरकार से अपने राजस्व का हिसाब नहीं कर सकी।,
जबकि हर बरसात में मध्य प्रदेश के गांवों को भीषण बाढ़ का सामना करने के साथ-साथ पलायन करना पड़ता है। उत्तर प्रदेश के इन अधिकंाश बांधों की समय सीमा अब लगभग समाप्त हो चुकी है। इनसे निकलने वाली नहरों के रख-रखाव पर न ही सरकारों ने कोई ध्यान दिया और न ही जल प्रबन्धन के सकारात्मक समाधान तैयार किए हैं। रनगुंवा बांध से मध्य प्रदेश को अब पानी भी नहीं मिल पाता है। जल-जंगल और जमीन इन तीन मुद्दों के बीच पिसती उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की हांसिए पर खड़ी जनता की यह पीड़ा कहीं न कहीं उन बांध परियोजनाओं के कारण ही उपजी है। जिसने दो प्रदेशों के बीच वर्तमान में पानी की जंग और भविष्य में बिन पानी बुंदेलखंड के अध्याय लिखने की तैयारी कर ली है।
आलम यह है कि अब ये बांध लोगों की जानमाल के लिए भी खतरे की घंटी बजा रहे हैं। इन बांधों से है खतरा बांध निर्मित वर्ष बालाघाट जिले में डोगरबोदी 1911 अमनल्ला 1916 बिठली 1910 बसीनखार 1909 रामगढ़ी 1915 तुमड़ीभाटा 1989 कुतरीनल्ला 1916 बड़वानी जिले में रंजीत 1916 बैतूल जिले में सतपुड़ा 1967 भोपाल जिले में केरवा 1976 हथाईखेड़ा 1962 छतरपुर जिले में मदारखबनधी 1964 गोरेताल 1663 दमोह जिले में माला 1929 मझगांव 1914 हसबुआमुदर 1917 गोड़ाघाट 1913 चिरेपानी 1913 रेद्दैया 1910 छोटीदेवरी 1919 जुमनेरा 1910 नूनपानी 1952 दतिया जिले में रामसागर(गुना) 1963 रामपुर 1917 अमाही 1917 खानपुरा 1907 जमाखेड़ी 1915 भरोली 1916 मोहरी 1916 केशोपुर 1916 खानकुरिया 1915 समर सिंघा 1917 ग्वालियर जिले में हरसी 1917 तिगरा 1917 रामोवा 1931 टेकनपुर 1895 सिमरियानग 1976 खेरिया 1913 रीवा जिले में गोविंदगढ़ 1916 सागर जिले में नारायणपुरा 1926 रतोना 1924 चांदिया 1926 सतना जिले में लिलगीबुंदबेला 1938 सीहोर जिले में जमनोनिया 1938 सिवनी जिले में अरी 1952 समाल 1910 चिचबुंद 1951 बारी 1957 शाजापुर जिले में नरोला 1916 सिलोदा 1916 शिवपुरी जिले में धपोरा 1913 चंदापाठा 1918 डिनोरा 1907 नागदागणजोरा 1911 झलोनी 1913 रजागढ़ 1914 अदनेर 1911 ककेटो 1934 विदिशा जिले में घटेरा 1956 उज्जैन जिले में अंतालवासा 1908 कड़ोडिया 1957 शाजापुर जिले में नरोला 1916 सिलोदा 1916 होशंगाबाद जिले में दुक्रिखेड़ा 1956 धनदीबड़ा 1956 इंदौर जिले में यशवंत नगर 1933 देपालपुर 1931 हशलपुर 1950 जबलपुर जिले में परियट 1927 बोरना 1920 पानागर 1912 कटनी जिले में पिपरोद 1913 गोहबंनधा 1912 पथारेहटा 1918 दारवारा 1918 पब्रा 1912 अमेठा 1918 जगुआ 1921 जगुआ 1921 लोवर सकरवारा 1919 अपर सकरवारा 1919 बोहरीबंद 1927 अमाड़ी 1927 बोरिना लोवरटी 1923 मौसंधा 1917 मंदसौर जिले में पोदोंगर 1956 गोपालपुरा 1954 पन्ना जिले में लोकपाल सागर 1909 रायसेन जिले में लोवर पलकसती 1936 भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील है नर्मदा पट्टी भारतीय उपमहाद्वीप में विनाशकारी भूकंपों का लम्बा इतिहास रहा है।
भूकंपों की अत्यधिक आवृत्ति और तीव्रता का मुख्य कारण यह है कि भारतीय टेक्टोनिक प्लेट तकरीबन 47 मिलीमीटर प्रति वर्ष की गति से यूरेशियाई प्लेट से टकरा रही है। भारत का करीब 54 प्रतिशत हिस्सा भूकंप की आशंका वाला है। जहां तक मप्र का सवाल है तो यहां के अधिकांश क्षेत्र जोन-3 यानी सामान्य तबाही वाले क्षेत्र की श्रेणी में आते हैं। भूकंप के दृष्टिकोण से अति संवेदनशील निमाड़ देश के मानचित्र में भूकंप जोन-3 में आता है। यह भूकंप की दृष्टि से कमजोर सोन-नर्मदा-ताप्ती लिनियामेंट जोन में है। यहां सन 1847 से 1992 के बीच 4 से 6.5 मैग्नीट्यूट क्षमता के 7 भूकंप आ चुके हैं। इसे देखते हुए नर्मदा पट्टी को संवेदनशील भूकंप संभावित क्षेत्र माना गया है। खंडवा जिले की पंधाना तहसील में करीब 20 वर्षों से भूगर्भीय हलचल ज्यादा बढ़ी है। 11 सितंबर 1998 से सन 2002 तक अंचल के 50 से अधिक गांवों को थर्रा देने वाले करीब 2000 झटके दर्ज हुए। इस दौरान सबसे अधिक 3.1 मैग्नीट्यूट तीव्रता का एक झटका दर्ज हुआ था। कई बार तो एक ही दिन में 50 से अधिक झटके दर्ज हुए। इनसे किसी प्रकार की क्षति तो नहीं हुई लेकिन कुछ वर्षों तक भूकंप की दहशत बनी रही। धीरे-धीरे भूगर्भीय गतिविधियों में कमी होते-होते लगभग बंद हो गई।
भूगर्भीय हलचल के बाद देश के ख्यात वैज्ञानिकों ने क्षेत्र में इनका सर्वेक्षण किया। पंधाना तहसील मुख्यालय, नर्मदानगर, जिलाधीश कार्यालय, छनेरा, ओंकारेश्वर, बागली, बड़वानी, मंडलेश्वर सहित 11 स्थानों पर भूकंप मापी सिस्मोग्राफ मशीनें लगाई गई। छेगांवमाखन विकास खंड के सिरसोद में वैधशाला स्थापित की गई। भूगर्भीय हलचल पर नजर रखने के लिए वैज्ञानिकों के लगातार दौरे होते रहे, लेकिन सन 2002 के बाद जैसे-जैसे भूगर्भीय हलचलों में कमी आई वैधशाला बंद हो गई। अधिकांश स्थानों पर लगी भूकंपमापी मशीनें भी बंद हो गईं। लेकिन विसंगति यह है कि भूकंप के लिए संवेदनशील नर्मदा पट्टी में सबसे अधिक बांधों और नहरों का निर्माण किया गया है। क्षेत्र में निर्माण की लंबी श्रृंखला को देखते हुए लगता है कि नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण (एनवीडीए)को पता ही नहीं है कि नर्मदा पट्टी भूकंप के लिए संवेदनशील क्षेत्र है। खतरे में है नर्मदा घाटी नर्मदा घाटी क्षेत्र में 26 अप्रैल को हुए भू-गर्भीय कंपन लोगों के लिए कौतूहल का विषय बना हुआ है। बड़वानी में भूकंप से कई स्थानों पर पक्के मकानों की दीवारों में दरारें आ गई। लोगों का कहना है कि भूकंपन की दृष्टि से नर्मदा घाटी खतरनाक जोन में माना गया है।
नर्मदा पर बनाए जा रहे सरदार सरोवर बांध सहित अन्य बांधों की श्रृंखला से व जलाशयों के बनने से यहां लगातार दबाव बढ़ता जा रहा है। बावजूद इसके आपात स्थिति से निपटने के लिए कोई तैयारी नहीं है। जिला मुख्यालय पर वेधशालाएं तो हैं लेकिन पर्याप्त संसाधन नहीं होने से ये किसी काम की साबित नहीं हो रही है। जिस समय भूकंपन हुआ उस दौरान लोगों ने इसे साफ महसूस किया। कृष्णा स्टेट कॉलोनी निवासी विजय गोरे ने बताया मकान के खिड़की दरवाजे हिलने लगे। अजय गोरे ने बताया कि पूजा करते समय दो झटके लगे। इससे मकान की दीवार में दरारें भी पड़ गई। नर्मदा बचाओ आंदोलन नेत्री मेधा पाटकर ने बताया कि नर्मदा घाटी खतरे की जद में है। वर्ष 2009 में भी क्षेत्र में 4.2 रिक्टर स्केल की तीव्रता का कंपन आंका गया था।
सरदार सरोवर बांध प्रभावित क्षेत्र में भू-गर्भीय हलचल को रोकने या इसके आंकलन के लिए कोई तैयारी नहीं है। भूकंप के लिए मेधा पाटकर ने सरदार सरोवर बांध व नर्मदा क्षेत्र में हो रहे रेत उत्खनन को जिम्मेदार ठहराया हैं। उन्होंने बताया कि मप्र में जलाशयों की श्रंृखला निर्मित की जा रही है। नर्मदा सोन लिनमेट पर बहने वाली नर्मदा पर ही बनने से जो क्षेत्र पर बड़ा दबाव पैदा होता है, उससे भूगर्भ में हलचल मचती है, जो भूचाल बनाती है। मेधा पाटकर कहती हैं कि नर्मदा सोन नर्मदा लिनामेंट पर बह रही है। भूकंप की दृष्टि से ये क्षेत्र बहुत ही कमजोर है। उन्होंने बताया कि 3 रिक्टर स्केल के भूकंप महसूस नहीं होता है। 4.5 रिक्टर स्केल के भूकंप महसूस होते हैं। मप्र में भूकंप मापन पर कोई काम नहीं हो रहा है। सोन नर्मदा लिनामेंट पर वॉटर बॉडी खड़ी कर रहे हैं। इसके घातक परिणाम भुगतने होंगे। किनारों पर जमीन धंसने की घटनाएं अब लगातार होने की संभावना है। नर्मदा घाटी देश की संवेदनशील क्षेत्रों में से एक है। नदी घाटियों में स्थित सरदार सरोवर के इर्दगिर्द में तीनों राज्यों में कई सोर प्लांट जोन्स है। इसमें एक बोरखेड़ी बड़वानी में है तो दूसरा शाहदा महाराष्ट्र में है। बड़वानी में 1930 से लेकर कई भूकंप आए हंै।
जिसमें 6 .5 तक के झटके हैं, 2009 में 4.2 रिक्टर स्केल का रहा है। इससे बांध को क्षति हुई, लेकिन कभी भी उसका आंकलन नहीं करवाया गया। सरदार सरोवर संबंध में भूकंप मापन केन्द्र प्रस्थापित किए गए हैं। इनमें से एक सागबारा, गुजरात में तथा दूसरा शाहदा, महाराष्ट्र में कार्यरत है। मप्र में एक भी काम नहीं कर रहा है। इसी कारण भूकंप की तीव्रता एवं नियमितता कभी रिकॉर्ड पर नहीं हुई। नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण के पर्यावरण उपदल की बैठकों में यह कहा गया है कि अधिक जानकारी राज्यों से जरूरी है, जो नहीं मिल पा रही है। बरगी में 1996 का भूकंप बांध के पास ही केंद्र होकर निर्मित हुआ था। कच्छ में आए महाविनाशक 2000 के भूंकप का केंद्र भी सरदार सरोवर के ही पास था। यह गुजरात के कई वैज्ञानिकों की खोज से निकली बात थी। बड़वानी 1938 में 6 रिस्केल से अधिक और 2009 में 4.2 रिस्केल को भूंकप आया था। बरगी मध्यप्रदेश तथा कोयना महाराष्ट्र और अन्य बांधों को भूकंप से सुरक्षित कहकर इर्दगिर्द के घर, इंसान, पेड़ और संपत्ति का बड़ा नुकसान किया था।
बोरखेड़ी बड़वानी फाल्ट जोन में आज भी भूकंप का हादसा बना हुआ है, जिसका असर पाटी जैसे आदिवासी क्षेत्र से लेकर खरगोन तक जाता है। 2009 में बड़वानी के भूकंप का धक्का भी खरगोन तक पहुंचा था। 1972 में बने मास्टर प्लान के अनुसार मध्यप्रदेश नर्मदा में उपलब्ध कुल जल का 65 फीसद यानि 18.25 मिलियन एकड़ फीट(एमएएफ ) जल का उपयोग कर प्रदेश को समृद्ध बनाएगा। इसके तहत 23 बड़ी, 135 मध्यम व तीन हजार से अधिक छोटी परियोजनाओं का निर्माण करना तय किया गया। वृहद परियोजनाओं के लिए 1985 में नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण (एनवीडीए)का गठन हुआ। सभी बड़ी परियोजनाओं का जिम्मा प्राधिकरण को सौंपा गया। लेकिन प्राधिकरण ने बिना मापदंड के इस क्षेत्र में निर्माण कार्य करवाया है जो कभी भी खतरनाक बन सकते हैं। इस क्षेत्र में प्राधिकरण ने तीन दशक में केवल दो बड़ी परियोजनाएं मान व जोबट ही पूरी कर सका। वहीं पांच परियोजनाएं वर्ष 1988 से पहले जल संसाधन विभाग द्वारा पूरी की गई। एनवीडीए की सात परियोजनाएं रानी अवंतीबाई लोधी सागर परियोजना (जल उपयोग1681एमसीएम), बरगी डायवर्जन (2510.6 एमसीएम), इंदिरा सागर (1625.26 एमसीएम), ओंकारेश्वर (1300 एमसीएम), अपर वेदा(101.09 एमसीएम), पुनासा लि ट (130.20 एमसीएम)एवं लोअर गोई (136.65 एमसीएम)निर्माणाधीन हैं।
वहीं दो परियोजनाएं हालोन एवं अपर नर्मदा के लिए निर्माण का कार्य शुरुआती दौर में ही है। जबकि सात परियोजनाएं अब तक शुरु ही नहीं की जा सकी। इनके लिए सर्वे,अन्वेषण एवं डीपीआर बनाने का काम ही पूरा नहीं हो सका। भूकंप से बचाने की कागजी योजना भूकंप और अन्य प्राकृतिक आपदाओं को लेकर सरकारी एजेंसियों का अभी तक का रवैया कैसा रहा है इसका सबसे बड़ा उदाहरण जवाहर लाल नेहरू अर्बन रिन्यूअल मिशन के तहत भूकंप सहने वाले मकान बनाने की योजना है।
इस योजना के तहत तीन दर्जन से ज्यादा शहरों में भूकंप रोधी मकानों के निर्माण के कार्य को वरीयता देने की बात थी लेकिन कई वर्ष बीतने के बाद भी यह योजना कागजों में ही सिमटी है। इस योजना का हश्र बताता है कि जब देश में कोई आपदा आती है तो सरकारी एजेंसियां योजना बनाने में जुट जाती हैं लेकिन समय बीतने के साथ ही उस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। योजनाओं के अमल का कोई उपाय नहीं जवाहर लाल नेहरू अर्बन रिन्यूअल मिशन में भूकंप सहने वाले मकान बनाने की योजना के साथ ही 38 शहरों के लिए अर्बन अर्थक्वेक वलनरबिलिटी रिडक्शन प्रोजेक्ट की प्रगति भी काफी खराब है। असलियत में इन दोनों योजनाओं की प्रगति सिर्फ कागजों में दिखाई देती है।
दरअसल, इन योजनाओं को कैसे अमलीजामा पहनाया जाएगा, इसको लेकर सरकार अंधेरे में हैं। केंद्र में नई सरकार के आने के बाद भी हालात में बहुत बदलाव नहीं हुए हैं। बार-बार केंद्र की तरफ से राज्यों को भूकंप से बचने के लिए तमाम उपाय करने पर सुझाव देने की औपचारिकता पूरी कर दी जाती है। लेकिन इसे कैसे अमल में लाया जाए या इसको लेकर क्या प्रगति हो रही है, इसकी कोई निगरानी नहीं होती। बिल्डर उड़ा रहे नियमों की धज्जियां राज्य सरकारों की भूमिका भी कम चिंताजनक नहीं है। इस बारे में केंद्र की तरफ से बुलाई गई बैठक में काफी वादे किए जाते हैं लेकिन जमीनी तौर पर भूकंप से बचने के लिए होने वाले उपायों की पूरी तरह से अनदेखी की जाती है।
लिहाजा बिल्डर धड़ल्ले से नियम कायदों की धज्जियां उड़ा रहे हैं। मप्र की राजधानी से लेकर इंदौर, ग्वालियर, जबलपुर जैसे तमाम शहरों में सिंगल प्लाट पर बनने वाले बहुमंजिला इमारत किसी प्राकृतिक आपदा में मौत का कुंआ साबित हो सकते हैं। उत्तर भारत के अधिकांश शहर खतरनाक सेस्मिक जोन (भूकंप संभावित क्षेत्र) में है। सरकार ने भूकंप की आशंका के मुताबिक सभी शहरों के लिए योजना बनाई थी लेकिन अमल अभी तक नहीं ह o पाया। पहले चरण में पांच लाख से ज्यादा आबादी वाले संभावित शहरों को चुना गया था। लेकिन कही भी इसका अमल नहीं हुआ है।