कुमार प्रशांत
याकूब मेमन को फांसी की सजा मिली थी, फांसी हो गई ! एक जिंदगी भी खत्म हुई, एक कहानी भी. मेरे जैसे कितने ही लोग, जो मानते हैं कि फांसी की सजा होनी ही नहीं चाहिए, मेरी तरह ही अफसोस महसूस कर रहे होंगे. मुझे अफसोस इस बात का नहीं है कि याकूब मेमन को फांसी हुई; मुझे अफसोस इस बात का है कि एक इंसानी जिंदगी व्यर्थ चली गई अौर हम सब एक राष्ट्र अौर एक समाज के रूप में देखते रह गये. यह अपने-अाप में ही बहुत अफसोसनाक व शर्मिंदा करने वाला अहसास है कि सारा देश, सारा समाज, हमारी सारी राजनीतिक व्यवस्था अौर हमारी सारी न्यायप्रणाली मिल कर, एक अादमी को एकदम अकेला करते-करते निरुपाय कर दे अौर फिर, उस अवश अादमी को पकड़ कर फांसी के फंदे से लटका दे ! एक जिंदा अादमी को लाश में बदल कर कोई देश या समाज न तो बहादुर बनता है अौर न सुरक्षित !
ऐसी हर बात के जवाब में अनगिनत लोग मिलेंगे कि जो तुनक पर पूछेंगे कि क्या वह अपराधी नहीं था ? क्या उसने जितने बेगुनाहों का खून किया, उसे भुला दें हम ? नहीं, हम कुछ भी न भूलें, न भुलाएं लेकिन यह जरूर याद रखें कि सवाल किसी को फांसी देने या न देने से बड़ा है;अौर वह यह है कि अपराध अौर अपराधी के बारे में हमारा नजरिया क्या है अौर क्या होना चाहिए ?
फांसी के बाद यह लिख रहा हूं मैं तो इसलिए ही कि अब हम तनाव व उन्माद से किनारा कर, ठंडे दिल व दिमाग से इस सवाल को सोचें. देश में एक कानून है, संविधान है, न्याय-प्रक्रिया है. हम सब उससे बंधे हैं अौर हममें से कोई भी उससे ऊपर नहीं है. अदालती फैसलों से हम असहमत तो हो सकते हैं लेकिन उसकी अवमानना नहीं कर सकते क्योंकि लोकतंत्र की बुनियाद ही यह है कि हम निजी राय रखते हैं लेकिन सामूहिक फैसले से चलते हैं. इसलिए याकूब मेमन को लंबी न्यायिक प्रक्रिया के बाद, अंतिम दिन की अंतिम रात तक विचार करने के बाद भी यदि सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी की सजा सुनाई तो वह न्यायसंगत ही होगी, ऐसा हमें मानना चाहिए - अपनी निजी असहमति के बाद भी !
अब कसाब भी नहीं है, अफजल गुरु भी नहीं है, याकूब मेमन भी नहीं है. लेकिन हम तो हैं, हमारे बच्चे तो हैं. यह समाज तो है जिसमें हमें अौर हमारे बाद अाने वाली पीढ़ियों को रहना अौर बसर करना है. क्या ऐसा समाज अादमियों के रहने लायक होगा जिसमें से बराबर मारो-मारो,फांसी दो, खून का बदला खून, एक सर काटोगे तो हम दस काटेंगे जैसी अावाजें उठती रहें ?
क्या हम चाहेंगे कि हमारे बच्चों का मन बदला लेने की चालों-कुचालों के बीच परिपक्व हो ? क्या हमारी चाहत यह है कि हमारे समाज में लगातार कसाब पैदा हों, अफजल गुरू या टाइगर मेमन पैदा हों ताकि जैसे को तैसा जवाब दिया जा सके ? ऐसे लोग पैदा होते हैं जब समाज की सामूहिक सोच विकृत कर दी जाती है, उसका पाशवीकरण कर दिया जाता है. दुनिया का हर समाज चाहता है कि लोग शांतिपूर्वक रहें, ईमान की रोटी खाएं अौर इज्जत की जिंदगी जिएं ! चाहता तो है लेकिन इस दिशा में जाने की कोशिश कम करता है. इसलिए जरूरत पड़ती है कि समाज का सयाना नेतृत्व बार-बार, हर बार हमारे मन की सरहदों को बड़ा करने की कोशिश करे.
हम नहीं कहते हैं कि याकूब मेमन की फांसी गलत थी लेकिन हम जोर दे कर,जोर से कहना चाहते हैं कि किसी की फांसी को उत्सव या विजय का प्रतीक बनाना मानवता के प्रति अपराध है. क्या हम अपनी अाने वाली नस्लों का मानस ऐसा बनाना चाहते हैं कि जिसे खून में से खुशबू अाती हो ? ऐसा समाज मनुष्यों का समाज तो नहीं हो सकता है ! समाज का ऐसा पाशवीकरण करते जाएंगे तो फिर अंत में वैसी ही यादवी होगी जिसे काबू में करना भगवान कृष्ण के बस का भी नहीं रहेगा अौर किसी बहेलिये के वाण से अपना अंत कबूल करने का एकमात्र रास्ता ही उनके लिए भी बच जाएगा.
एक व्यक्ति का याकि एक समूह का उन्माद में अाना, बहक-भटक जाना दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन संभव है. लेकिन हम उसका जवाब एक समाज या एक व्यवस्था को उन्मादग्रस्त बना कर देना चाहेंगे तो यह विवेकहीनता का चरम होगा. यह चरम हमने देखा है - देश-विभाजन के दंगों में अौर २००२ के गुजरात के दंगों में देखा है; हिरोशिमा में देखा है; वियतनाम में देखा है; पोलैंड अौर चेकोस्लोवाकिया में देखा है. समाजों को बिखरते,सभ्यताअों को मिटते अौर लोगों को भेंड़-बकरियों की तरह कत्ल होते देखा है.
इसलिए किसी भी स्वस्थ समाज का, जिम्मेवार प्रशासन का दायित्व भी है अौर वही उसकी चरम कला भी है कि सामूहिक उन्माद का शमन होता रहे. उन्माद फूटता है तो वह किसी गांधी को गोली मारेगा या किसी दिल्ली को जला डालेगा, अाप तै नहीं कर सकते. इसलिए कदम-कदम पर, हर सांस के साथ उन्माद पर काबू करना सीखना अौर सिखाना पड़ता है. इसलिए उनका अपराध बहुत बड़ा है जिन्होंने याकूब के मामले में यह कहा कि उसे फांसी इसलिए मिल रही है कि वह मुसलमान है; उनका अपराध बहुत बड़ा है जिन्होंने फांसी-फांसी का मंत्रोच्चार किया; वे अविवेकी हैं जिन्होंने एक अादमी को मार कर किसी पाकिस्तान या किसी अाइएसअाइ को जवाब देने की थोथी बात कही.
हमारे यहां जब तक फांसी की सजा मान्य है तब तक अदालतें जिसे भी कानून की कसौटी पर कस कर इस सजा के लायक पाएंगी, फांसी की सजा देंगी ही. इसमें अदालतों से नाराजगी का कोई कारण भी नहीं है. लेकिन अदालतें जिस संविधान से संचालित होती हैं उस संविधान ने ही हमें अपनी सजा के खिलाफ लड़ने के कई मौके भी दे रखे हैं. इस देश के हर नागरिक को याकि इस देश में अपराध करते पकड़े गये किसी भी अादमी को उन सारे मौकों का पूरा इस्तेमाल करने का पूरा अधिकार है,अौर हमारी न्यायपालिका की संविधानसम्मत जिम्मेवारी है कि वह उन सारे अधिकारों के इस्तेमाल का मौका हर अपराधी को दे. इसलिए वे देश-समाज की कुसेवा करते हैं जो इस बात पर हल्ला मचाते हैं कि किसी कसाब पर मुकदमा चलाने की क्या जरूरत है याकि जो फब्ती कसते हैं कि याकूब मेमन फांसी से बचने की चालें चल रहा है.
फांसी से बचने-बचाने की हर संविधानसम्मत कोशिश का सम्मान ही नहीं होना चाहिए बल्कि उसका समर्थन भी होना चाहिए ताकि हम सब यह महसूस कर सकें कि हमारा भारतीय समाज अौर इसकी संविधानसम्मत व्यवस्थाएं हर जिंदगी का सम्मान करती हैं. इसलिए जिन सौ से ज्यादा लोगों ने अंत-अंत तक याकूब की याचिका पर पुनर्विचार करने की अपील की, वे सारे लोग हमारे समाज के स्वस्थ विवेक के प्रहरी हैं. उन्होंने यह नहीं कहा कि याकूब निर्दोष है ( हालांकि ऐसा कहने का हर भारतीय का अधिकार अक्षुण्ण है ही ! ) बल्कि यह कहा कि इस मामले पर अा रहे नये तथ्यों की रोशनी में फिर-फिर अाप पुनर्विचार कर लें ताकि जिस जिंदगी को हम दे नहीं सकते उसे लेने से पहले हर तथ्य जांच लिया जाए.
इसलिए अपने बचाव की हर कोशिश कर रहा याकूब हमारे व्यंग्य का नहीं, हमारी सहानुभूति का पात्र था क्योंकि वह उस संविधानसम्मत रास्ते का इस्तेमाल कर रहा था जिसका इस्तेमाल हममें से हर एक वैसी अवस्था में करना चाहेगा. याकूब का वह वकील बहुत गलत समय पर, बहुत गलत बात कह रहा था जिसने देर रात की अंतिम सुनवाई के विफल होने के बाद पत्रकारों से कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने गलत नजरिये से इस मामले को खारिज कर दिया. हम सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से असहमत तो हो सकते हैं अौर उसे सही मौके पर, सही जगह पर व्यक्त भी कर सकते हैं लेकिन इतने गहन माहौल में,वकालत के पेशे से जुड़ा कोई जिम्मेदार वकील सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम फैसले पर ऐसी टिप्पणी करे तो यह उन्माद भड़काने का कारण बन सकता है.
याकूब मेमन ने अपना ठौर पा लिया है. एक समाज के रूप में हमें अपने ठौर की तलाश है. ( 30.07.2015)
याकूब मेमन को फांसी |
ऐसी हर बात के जवाब में अनगिनत लोग मिलेंगे कि जो तुनक पर पूछेंगे कि क्या वह अपराधी नहीं था ? क्या उसने जितने बेगुनाहों का खून किया, उसे भुला दें हम ? नहीं, हम कुछ भी न भूलें, न भुलाएं लेकिन यह जरूर याद रखें कि सवाल किसी को फांसी देने या न देने से बड़ा है;अौर वह यह है कि अपराध अौर अपराधी के बारे में हमारा नजरिया क्या है अौर क्या होना चाहिए ?
फांसी के बाद यह लिख रहा हूं मैं तो इसलिए ही कि अब हम तनाव व उन्माद से किनारा कर, ठंडे दिल व दिमाग से इस सवाल को सोचें. देश में एक कानून है, संविधान है, न्याय-प्रक्रिया है. हम सब उससे बंधे हैं अौर हममें से कोई भी उससे ऊपर नहीं है. अदालती फैसलों से हम असहमत तो हो सकते हैं लेकिन उसकी अवमानना नहीं कर सकते क्योंकि लोकतंत्र की बुनियाद ही यह है कि हम निजी राय रखते हैं लेकिन सामूहिक फैसले से चलते हैं. इसलिए याकूब मेमन को लंबी न्यायिक प्रक्रिया के बाद, अंतिम दिन की अंतिम रात तक विचार करने के बाद भी यदि सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी की सजा सुनाई तो वह न्यायसंगत ही होगी, ऐसा हमें मानना चाहिए - अपनी निजी असहमति के बाद भी !
अब कसाब भी नहीं है, अफजल गुरु भी नहीं है, याकूब मेमन भी नहीं है. लेकिन हम तो हैं, हमारे बच्चे तो हैं. यह समाज तो है जिसमें हमें अौर हमारे बाद अाने वाली पीढ़ियों को रहना अौर बसर करना है. क्या ऐसा समाज अादमियों के रहने लायक होगा जिसमें से बराबर मारो-मारो,फांसी दो, खून का बदला खून, एक सर काटोगे तो हम दस काटेंगे जैसी अावाजें उठती रहें ?
क्या हम चाहेंगे कि हमारे बच्चों का मन बदला लेने की चालों-कुचालों के बीच परिपक्व हो ? क्या हमारी चाहत यह है कि हमारे समाज में लगातार कसाब पैदा हों, अफजल गुरू या टाइगर मेमन पैदा हों ताकि जैसे को तैसा जवाब दिया जा सके ? ऐसे लोग पैदा होते हैं जब समाज की सामूहिक सोच विकृत कर दी जाती है, उसका पाशवीकरण कर दिया जाता है. दुनिया का हर समाज चाहता है कि लोग शांतिपूर्वक रहें, ईमान की रोटी खाएं अौर इज्जत की जिंदगी जिएं ! चाहता तो है लेकिन इस दिशा में जाने की कोशिश कम करता है. इसलिए जरूरत पड़ती है कि समाज का सयाना नेतृत्व बार-बार, हर बार हमारे मन की सरहदों को बड़ा करने की कोशिश करे.
हम नहीं कहते हैं कि याकूब मेमन की फांसी गलत थी लेकिन हम जोर दे कर,जोर से कहना चाहते हैं कि किसी की फांसी को उत्सव या विजय का प्रतीक बनाना मानवता के प्रति अपराध है. क्या हम अपनी अाने वाली नस्लों का मानस ऐसा बनाना चाहते हैं कि जिसे खून में से खुशबू अाती हो ? ऐसा समाज मनुष्यों का समाज तो नहीं हो सकता है ! समाज का ऐसा पाशवीकरण करते जाएंगे तो फिर अंत में वैसी ही यादवी होगी जिसे काबू में करना भगवान कृष्ण के बस का भी नहीं रहेगा अौर किसी बहेलिये के वाण से अपना अंत कबूल करने का एकमात्र रास्ता ही उनके लिए भी बच जाएगा.
एक व्यक्ति का याकि एक समूह का उन्माद में अाना, बहक-भटक जाना दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन संभव है. लेकिन हम उसका जवाब एक समाज या एक व्यवस्था को उन्मादग्रस्त बना कर देना चाहेंगे तो यह विवेकहीनता का चरम होगा. यह चरम हमने देखा है - देश-विभाजन के दंगों में अौर २००२ के गुजरात के दंगों में देखा है; हिरोशिमा में देखा है; वियतनाम में देखा है; पोलैंड अौर चेकोस्लोवाकिया में देखा है. समाजों को बिखरते,सभ्यताअों को मिटते अौर लोगों को भेंड़-बकरियों की तरह कत्ल होते देखा है.
इसलिए किसी भी स्वस्थ समाज का, जिम्मेवार प्रशासन का दायित्व भी है अौर वही उसकी चरम कला भी है कि सामूहिक उन्माद का शमन होता रहे. उन्माद फूटता है तो वह किसी गांधी को गोली मारेगा या किसी दिल्ली को जला डालेगा, अाप तै नहीं कर सकते. इसलिए कदम-कदम पर, हर सांस के साथ उन्माद पर काबू करना सीखना अौर सिखाना पड़ता है. इसलिए उनका अपराध बहुत बड़ा है जिन्होंने याकूब के मामले में यह कहा कि उसे फांसी इसलिए मिल रही है कि वह मुसलमान है; उनका अपराध बहुत बड़ा है जिन्होंने फांसी-फांसी का मंत्रोच्चार किया; वे अविवेकी हैं जिन्होंने एक अादमी को मार कर किसी पाकिस्तान या किसी अाइएसअाइ को जवाब देने की थोथी बात कही.
हमारे यहां जब तक फांसी की सजा मान्य है तब तक अदालतें जिसे भी कानून की कसौटी पर कस कर इस सजा के लायक पाएंगी, फांसी की सजा देंगी ही. इसमें अदालतों से नाराजगी का कोई कारण भी नहीं है. लेकिन अदालतें जिस संविधान से संचालित होती हैं उस संविधान ने ही हमें अपनी सजा के खिलाफ लड़ने के कई मौके भी दे रखे हैं. इस देश के हर नागरिक को याकि इस देश में अपराध करते पकड़े गये किसी भी अादमी को उन सारे मौकों का पूरा इस्तेमाल करने का पूरा अधिकार है,अौर हमारी न्यायपालिका की संविधानसम्मत जिम्मेवारी है कि वह उन सारे अधिकारों के इस्तेमाल का मौका हर अपराधी को दे. इसलिए वे देश-समाज की कुसेवा करते हैं जो इस बात पर हल्ला मचाते हैं कि किसी कसाब पर मुकदमा चलाने की क्या जरूरत है याकि जो फब्ती कसते हैं कि याकूब मेमन फांसी से बचने की चालें चल रहा है.
फांसी से बचने-बचाने की हर संविधानसम्मत कोशिश का सम्मान ही नहीं होना चाहिए बल्कि उसका समर्थन भी होना चाहिए ताकि हम सब यह महसूस कर सकें कि हमारा भारतीय समाज अौर इसकी संविधानसम्मत व्यवस्थाएं हर जिंदगी का सम्मान करती हैं. इसलिए जिन सौ से ज्यादा लोगों ने अंत-अंत तक याकूब की याचिका पर पुनर्विचार करने की अपील की, वे सारे लोग हमारे समाज के स्वस्थ विवेक के प्रहरी हैं. उन्होंने यह नहीं कहा कि याकूब निर्दोष है ( हालांकि ऐसा कहने का हर भारतीय का अधिकार अक्षुण्ण है ही ! ) बल्कि यह कहा कि इस मामले पर अा रहे नये तथ्यों की रोशनी में फिर-फिर अाप पुनर्विचार कर लें ताकि जिस जिंदगी को हम दे नहीं सकते उसे लेने से पहले हर तथ्य जांच लिया जाए.
इसलिए अपने बचाव की हर कोशिश कर रहा याकूब हमारे व्यंग्य का नहीं, हमारी सहानुभूति का पात्र था क्योंकि वह उस संविधानसम्मत रास्ते का इस्तेमाल कर रहा था जिसका इस्तेमाल हममें से हर एक वैसी अवस्था में करना चाहेगा. याकूब का वह वकील बहुत गलत समय पर, बहुत गलत बात कह रहा था जिसने देर रात की अंतिम सुनवाई के विफल होने के बाद पत्रकारों से कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने गलत नजरिये से इस मामले को खारिज कर दिया. हम सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से असहमत तो हो सकते हैं अौर उसे सही मौके पर, सही जगह पर व्यक्त भी कर सकते हैं लेकिन इतने गहन माहौल में,वकालत के पेशे से जुड़ा कोई जिम्मेदार वकील सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम फैसले पर ऐसी टिप्पणी करे तो यह उन्माद भड़काने का कारण बन सकता है.
याकूब मेमन ने अपना ठौर पा लिया है. एक समाज के रूप में हमें अपने ठौर की तलाश है. ( 30.07.2015)