पत्रकारों की आड़ में सहकारिता को रौंदने की साजिश
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भोपाल // अलोक सिंघई
आम लोगों के घर का सपना पूरा करने के लिए मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह चौहान सरकार की पहल पर शुरु किए गए सहकारी गृह निर्माण समितियों में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का महत्वाकांक्षी अभियान अब दम तोड़ रह है . इस अभियान में सहकारिता के नाम पर जमीनों की कालाबाजारी करने वाले कई दिग्गजों को मसलने की कोशिशें आरंभ भी हुईं , लेकिन मकानों की जमाखोरी करने वाले भू माफिया ने सरकार की इस अंगड़ाई को अंततः मसल डाला है . इसके लिए उन्होंने समाज के पहरेदार कहे जाने वाले पत्रकारों के कंधे पर रखकर अपनी बंदूक चलाई और निशाना कारगर रहा . सहकारिता विभाग में रहकर करोड़ों रुपए डकारने वाले अफसरों और नेताओं के गठबंधन ने ये आपरेशन सफलता पूर्वक निपटा लिया . उनका अभियान किस तरह चला और कैसे पत्रकारिता के नाम पर खुद को समाज का सरमाएदार कहलाने वाले पत्रकारों के मुंह पर कालिख पुती , ये लावण्य गुरुकुल गृह निर्माण सहकारी समिति मर्यादित नाम की एक सोसायटी के संचालकों के काले कारनामों को देखकर आसानी से समझा जा सकता है .
सरकार ने जब सहकारिता माफिया पर अपना शिकंजा कसा तो विभाग की सक्रियता दिखाने के लिए अफसरों ने आनन फानन में एक वाद भोपाल के माननीय दशम अतिरिक्त जिला न्यायाधीश के चतुर्थ अपर जिला न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत किया . यह प्रकरण लावण्य गुरुकुल गृह निर्माण सहकारी समिति मर्यादित के प्रभारी अधिकारी श्री आर . के . खत्री के माध्यम से दायर किया गया है . भोपाल के सहकारिता उपायुक्त की ओर से दायर इस प्रकरण में लावण्य गुरुकुल के तत्कालीन अध्यक्ष और पत्रकार शरद द्विवेदी , डिस्ट्रिंक्ट इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड के प्रबंध संचालक रमाकांत विजय वर्गीय , और मेकमेन कंस्ट्रेटिंग प्रा . लिमि . की डायरेक्टर प्रगति अग्रवाल को भूमि घोटाले का अभियुक्त बनाया गया है . हालांकि अब घोटाले बाजों ने अपने राजनीतिक आकाओं और भारतीय मुद्रा के उचित प्रबंधन से समिति के चुनाव एक बार फिर करवा लिए हैं और नई समिति के माध्यम से ये प्रकरण वापिस लेने के प्रयास शुरु कर दिए हैं . इसके बावजूद जो अपराध एक बार घटित हो चुका है उसे किसी भी तरह लीपा पोता नहीं जा सकता .
सहकारिता उपायुक्त की ओर से इस प्रकरण में अदालत को बताया गया है कि लावण्य गुरुकुल नाम की संस्था मप्र राज्य सहकारी संस्थाएं अधिनियम 1960 के अंतर्गत एक पंजीकृत संस्था है . इसका क्रमांक डीआरबी -275 है जो 23 जनवरी 1982 को पंजीकृत की गई थी . जब संस्था के संचालकों के घोटालों की शिकायतें आईं तो सहकारिता निरीक्षक आर के खत्री को सहकारी संस्थाएं उपपंजीयक ने 29 अगस्त 2010 को आदेश क्रमांक विधि। 2010 । 2879 के माध्यम से प्रभारी अधिकारी नियुक्त किया था . संस्था के संचालक मंडल को इसी आदेश से भंग भी किया गया था और श्री खत्री को संस्था के हित में आवश्यक निर्णय लेने के लिए अधिकृत किया गया था . यह संस्था अपने सदस्यों के लिए सभी फैसले और कार्यवाही करने के लिए भूखंड विकसित करने , भवन निर्माण करने और इसके संबंध में ऋण सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए गठित की गई थी . संस्था को इस कालोनी में सामाजिक , शैक्षणिक और मनोरंजन से जुड़ी संरचनाएं स्थापित करने और उनका संचालन करने की जवाबदारी भी सौंपी गई थी . सहकारिता अधिनियम के अंतर्गत समिति पर यह प्रतिबंध लगाया गया था कि वह संस्था के सदस्यों के हितों के विपरीत कोई व्यावसायिक कार्य नहीं करेगी और न ही संस्था की संपत्ति सदस्यों के अतिरिक्त किसी व्यक्ति या संस्था को देगी या बेचेगी .
संस्था के सदस्यों ने इस समिति के बैनर पर हलालपुरा गांव के खसरा क्रञ्मांक 2 । 1, 2 । 2, 3 । 105 । 06, और 108 । 4, की 30.97 एकड़ जमीन खरीदी थी . इसके बाद 3 अक्टूबर 1996 को नगर भूमि सीमा अधिनियम 20 (1) की अनुमति भी प्राप्त कर ली गई . संस्था ने 9 नवंबर 2001 को भोपाल के संयुक्त संचालक , नगर तथा ग्राम निवेश कार्यालय से कालोनी के विकास की अनुमति भी प्राप्त कर ली . इस अनुमति के आधार पर संस्था को नगर निगम भोपाल ने 5 फरवरी 2004 को भवन अनुज्ञा प्रमाणपत्र भी जारी कर दिया गया . विकास अनुज्ञा के साथ संलग्न नक्शे में लाल रंग से क्लब हाऊस कमेटी के सामुदायिक भवन और कन्वीनियंट शापिंग की जगह दर्शाई गई थी . इस जमीन का रकबा 0.774 एकड यानि 33.750 वर्गफीट सुरक्षित रखा गया था . इस कार्य के लिए एयरपोर्ट अथारिटी आफ इंडिया ने संस्था को अपना अनापत्ति प्रमाणपत्र 12 नवंबर 2003 को जारी कर दिया था . यह संस्था चूंकि शहर के सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में थी इसलिए संस्था के तत्कालीन संचालक मंडल के सदस्यों ने व्यक्तिगत लालच के चलते सदस्यों के हितों को ताक पर रखकर संस्था की जमीनों को खुले बाजार में बेचना चालू कर दिया . जब संस्था के सदस्यों ने इस पर आपत्ति जताई तो शासन की पहल पर पुलिस थाने में प्रकरण दर्ज कराए गए . संस्था के तत्कालीन संचालक मंडल ने कालोनी के विकास के नाम पर पूरी जमीन डिस्ट्रिंक्ट रियालिटी लिमिटेड को अंतरित कर दी . प्रशासन और संस्था के सदस्यों को झांसा देने के लिए 15 मार्च 1999 को एक विकास अनुबंध पत्र भी निष्पादित किया गया . संस्था के कई सदस्य तो इसे अपने हित में उठाया गया कदम ही मानते रहे . इस अनुबंध के माध्यम से डिस्ट्रिंक्ट रियालिटी लिमिटेड को सारी शक्तियां और अधिकार भी प्रदान कर दिए गए . अब डिस्ट्रिंक्ट रियालिटी लिमिटेड , संस्था के सदस्यों के अधिकारों का प्रयोग आसानी से कर सकती थी . अब वह ऐसे लोगों को भी प्लाट बेच सकती थी या उनकी रजिस्ट्री कर सकती थी जो संस्था के सदस्य भी नहीं थे . इस प्रकार संस्था के अध्यक्ष और डिस्ट्रिंक्ट रियालिटी लिमिटेड ने सहकारी अधिनियम और उपविधियों का खुला उल्लंघन किया . नतीजा ये हुआ कि संस्था बनाकर सहकारिता के नाम पर लोगों को आवास उपलब्ध कराने का उद्देश्य पूरी तरह चकनाचूर हो गया .
संस्था के पास जब काले धन का प्रवाह आरंभ हो गया तो उसके पदाधिकारियों ने ये भी नहीं सोचा कि वे उपायुक्त की अनुमति के बगैर मूल सदस्यों के अलावा जिन बाहिरी लोगों के नाम सूची में शामिल कर रहे हैं वे सभी अवैध होंगे . इस तरह सदस्य संख्या बढ़ती चली गई और सूची में 1126 लोग शामिल हो गए . जबकि संस्था को केवल 500 सदस्य बनाने का ही अधिकार था . जब तमाम चेतावनियों के बावजूद संस्था के पदाधिकारियों ने अपनी गैर कानूनी गतिविधियां बंद नहीं की तो सदस्यों ने जनसुनवाई में हाजिर होकर शासन को इन धांधलियों की सूचना दी . जिसके आधार पर भोपाल कलेक्टर ने सहकारिता उपायुक्त को निर्देश दिए कि वह इस मामले की उपयुक्त तरीकों से जांच करे . सहकारिता उपायुक्त ने अपने सहकारिता निरीक्षक अनुराग भल्ला से इस मामले की जांच कराई . और उनके प्रतिवेदन के आधार पर 31 नवंबर 2009 को संचालक मंडल ही भंग कर दिया . तत्कालीन संचालक मंडल के पदाधिकारी अपनी काली करतूतों को छिपाने के लिए तरह तरह के बहाने बनाते रहे . उन्होंने घोटाले से जुड़े तमाम दस्तावेज छुपा दिए और सभी संभव तरीकों से असहयोग करने लगे . जब जांच अधिकारी परेशान हो गए तो प्रभारी अधिकारी और सहकारिता निरीक्षक मनोज श्रीवास्तव ने कोहेफिजा पुलिस थाने में पदाधिकारियों के खिलाफ 16 । 07 । 2010 को भा . दं . वि . की धारा 420, 406 । 34 के तहत अपराध पंजीबद्ध कराया गया . इसके बाजवूद तमाम दस्तावेज जांच अधिकारियों को नहीं दिए गए .
जांच में उजागर हुआ कि तत्कालीन संचालक मंडल के पदाधिकारियों ने सदस्यों की सूची अधिनियम के मुतबिक नहीं बनाई थी . संस्था के सदस्यों से प्राप्त राशियां संस्था के खाते में जमा नहीं कराई गई थी . सदस्यों से राशि तो ले ली गई पर उसके एवज में जारी रसीदों और उनके कट्टे खुर्द बुर्द कर दिए ताकि जमा राशि का हिसाब ही न मिल सके . जमीनों के बढ़ते दामों को देखकर पदाधिकारियों ने कई ऐसे लोगों को सदस्य बना डाला जिनका उल्लेख पहले वाली सूचियों में नहीं था . उनके आवेदन पत्र भी नहीं लिए गए . न ही उनसे कोई शपथ पत्र या घोषणा पत्र भरवाया गया . कोई ऐसे दस्तावेज भी पदाधिकारियों के पास नहीं थे जिनके आधार पर फर्जी सदस्यों की पहचान संभव हो सके . समिति के जिन मूलभूत सदस्यों को वरिष्ठता क्रम के आधार पर भूखंड दिए जाने थे उन्हें तो छोड़ दिया गया और मोटा चंदा लेकर नए सदस्यों को जमीनों के कब्जे दिला दिए गए . आनन फानन में उनकी जमीनों का पंजीयन भी करा दिया गया . ये काम इतनी जल्दबाजी में किया गया कि कई बार तो एक ही दिन में सौ सवासौ लोगों के प्लाटों का पंजीयन कराया गया जो किसी भी तरह व्यावहारिक तौर पर संभव नहीं था . बताते हैं कि आनन फानन में पंजीयन कराने के लिए हर सदस्य से एक एक लाख रुपए की अतिरित धनराशि वसूली गई जिसका एक बड़ा हिस्सा पंजीयन विभाग के अधिकारियों को बतौर रिश्वत दिया गया .
जिन अपात्र सदस्यों को भूखंड आबंटित किए गए उन्होंने दस साल तक भूखंड न बेचने के नियम को ताक पर रखकर आनन फानन में अपने भूखंड खुले बाजार में बेच दिए . जाहिर है कि वे तमाम सदस्य फर्जी थे और संचालक मंडल ने ही ये हेराफेरी की जिसके बारे में अदालत जांच कर सकती है . सहकारिता विभाग की जांच में ये साफ हो गया है कि जिन अपात्र लोगों को भूखंड प्रदान किए गए वे संस्था के सदस्य ही नहीं थे . नियमों के अनुसार उन्हें भूखंड मिलना ही नहीं था . संस्था को सहकारिता विभाग के उपनियमों का पालन करना जरूरी होता है और वो उन उपनियमों का पालन करने के अलावा मनमर्जी से कोई फैसला नहीं कर सकती है . यदि वह कोई एसा फैसला लेती है जो समिति के उपनियमों के अनुसार नहीं है तो वह कार्य अपने आप में शून्य हो जाता है . इस लिहाज से जिन भूखंडों को फर्जी तरीके से बेचा गया है उनके सौदे रद्द किए जाने होंगे तभी समिति के मूल सदस्यों को उनके अधिकार दिलाए जा सकते हैं .
संस्था के जिन पदाधिकारियों ने अपने सदस्यों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित करके जमीनें ऊंचे दामों पर बेच डालीं उन्होंने न केवल सहकारिता अधिनियम का उल्लंघन किया बल्कि अपने वास्तविक उपभोक्ताओं के साथ अमानत में खयानत भी की है . जब ये जांच प्रतिवेदन सहकारिता विभाग के उपायुक्त को प्राप्त हुआ तो उन्होंने 22 जनवरी 2011 को अपने पत्र क्रमांक गृ . नि . । 2011 । 382 के माध्यम से प्रभारी अधिकारी आर के खत्री को खाली भूखंडों , विकास अनुज्ञा के बिना बने भवनों और भवन अनुज्ञा के बिना बने शापिंग माल की रजिस्ट्री को निरस्त करने के निर्देश दिए . संस्था ने जो स्थान क्लब हाऊस , सामुदायिक भवन और कन्वीनियंट शापिंग के लिए छोड़ा था उसे संस्था के तत्कालीन अध्यक्ष शरद द्विवेदी ने डिस्ट्रिंक्ट इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड के प्रबंध संचालक रमाकांत विजय वर्गीय को पंजीकृत विक्रय पत्र के माध्यम से बेच दिया . 31 मार्च 2006 को ये सौदा हुआ जो पूरी तरह गैर कानूनी था . जांच समिति ने फिलहाल इस संपत्ति को विवाद ग्रस्त बताया है . अध्यक्ष के रूप में शरद द्विवेदी ने डिस्ट्रिंक्ट इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड के प्रबंध संचालक रमाकांत विजय वर्गीय के साथ विकास अनुबंध भी किया . इसके लिए विजयवर्गीय को अंशदायी सदस्यता प्रदान की गई . समिति में अंशदायी सदस्य ठेकेदार , सप्लायर या विकास कर्ता होते हैं . इन्हें संस्था के भूखंड खरीदने की कोई पात्रता नहीं होती है . जिस कथित विक्रय पत्र के माध्यम से डिस्ट्रिंक्ट इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड के प्रबंध संचालक रमाकांत विजय वर्गीय ने विवादग्रस्त हिस्सा खरीदा उससे प्राप्त राशि को संस्था के अध्यक्ष ने संस्था के खाते में जमा ही नहीं कराया . इसका कोई अभिलेख भी संस्था के पास नहीं है . जांच समिति के मुताबिक संस्था अध्यक्ष शरद द्विवेदी और डिस्ट्रिंक्ट इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड के प्रबंध संचालक रमाकांत विजय वर्गीय ने संस्था को अवैधानिक तौर पर क्षति पहुंचाई और वादग्रस्त संपत्ति को हड़पने का प्रयास किया .
डिस्ट्रिंक्ट इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड के प्रबंध संचालक रमाकांत विजय वर्गीय ने जिस विक्रय पत्र के माध्यम से वादग्रस्त संपत्ति खरीदी थी उसमें साफ तौर पर लिख दिया गया था कि इस संपत्ति का उपयोग संस्था के अन्य सदस्य या कोई और नहीं कर सकता है . डिस्ट्रिंक्ट इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड के प्रबंध संचालक रमाकांत विजय वर्गीय ने इस संपत्ति का सौदा समिति के सदस्यों के हित में नहीं किया था इसके संबंध में एक और प्रमाण इस बात से भी मिल गया कि उसने यह संपत्ति 27 दिसंबर 2008 को निष्पादित पंजीकृत विक्रय पत्र के माध्यम से ये संपत्ति मेकमेन कंस्ट्रेटिंग प्राईवेट लिमिटेड की डायरेक्टर प्रगति अग्रवाल को बेच दी . जाहिर है कि इन सभी जालसाजों ने सामूहिक उपयोग के लिए छोड़ी गई जमीन को षड़यंत्र पूर्वक खुले बाजार में ऊंचे दामों पर बेच डाला . ये कृत्य गैरकानूनी तो था ही बल्कि संस्था के सदस्यों से धोखाधड़ी भी था . हालांकि ये सौदा कानूनी तौर पर शून्य है पर जो अपराध संस्था के पदाधिकारियों ने किया उसके लिए सहकारिता विभाग को अदालत में ये साबित करना होगा तभी अपराधियों को दंडित किया जा सकेगा .
संस्था के पदाधिकारियों ने ये सौदा मोटी रकम लेकर किया था . लेकिन उन्होंने दस्तावेजों पर 28 लाख 25 हजार रुपए की जमीनें मात्र तीन लाख तैतीस हजार सात सौ पचास रुपए में बेचना दर्शाया है . यह राशि भी संस्था के खाते में जमा नहीं कराई गई . जाहिर है कि इसका कोई प्रमाण नहीं है और इस लिहाज से इसे शून्य ही माना जाएगा . डिस्ट्रिंक्ट इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड के प्रबंध संचालक रमाकांत विजय वर्गीय ने सौदे के दो साल बाद ये संपत्ति डेढ़ करोड़ रुपए में मेकमेन कन्स्ट्रेटिंग प्रा . लिमिटेड की डायरेक्टर प्रगति - दिनेश अग्रवाल को बेच दी . यदि इस सौदे को ही असलियत मान लिया जाए तो ये भी साबित होता है कि डेढ़ करोड़ की जमीन डिस्ट्रिंक्ट इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड के प्रबंध संचालक रमाकांत विजय वर्गीय को मात्र तीन लाख तैतीस हजार सात सौ पचास रुपए में लेकर उसने संस्था के सदस्यों की जेब काटी है .
डिस्ट्रिंक्ट इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड के प्रबंध संचालक रमाकांत विजय वर्गीय ने वादग्रस्त जमीन पर वाणिज्यिक उपयोग के लिए शापिंग माल बनाया और उसने जब श्रीमती प्रगति अग्रवाल को ये भवन बेचा तो मेकमेन कंस्ट्रेटिंग कंपनी ने भी माल का ही निर्माण जारी रखा . जाहिर है कि इन दोनों संपत्तिधारकों ने सहकारिता अधिनियम का उल्लेख किया है जिसके तहत इन सभी निर्माणों की वैधानिकता शून्य है . ऐसा नहीं कि इन दोनों पक्षों को सहकारिता अधिनियम की जानकारी नहीं थी . वास्तव में ये दोनों पक्ष जमीनों का कारोबार ही करते हैं और जानबूझकर उन्होंने सहकारिता अधिनियम के तहत जारी होने वाली जमीनों का गैरकानूनी तौर पर सौदा किया है . इस लिहाज से उन्हें सद्भावी क्रेता भी नहीं माना जा सकता और उन्हें कोई सुरक्षा या कृपा पाने का अधिकार भी नहीं है . इन सभी घोटालेबाजों ने संस्था की आमसभा से कोई अनुमति भी प्राप्त नहीं की थी . न ही सहकारिता उपायुक्त या अन्य किसी पदाधिकारी के सामने अनुमति का कोई आवेदन दिया था . इसलिए भी ये सारे सौदे अपने आप अवैध होकर शून्य हो जाते हैं . जांच अधिकारी के रूप में सहकारिता निरीक्षक आरके खत्री ने जो शपथ पत्र न्यायालय में पेश किया उसके साथ उन्होंने अदालत से स्थायी निषेधाज्ञा भी मांगी है . क्योंकि ये संपत्तियां एक बार फिर बेची जा रही हैं .
इस षड़यंत्र की कहानी सहकारिता अधिनियम की आड़ में जमीनों का गोरखधंधा करने वाले माफिया ने ही लिखी थी , जिसे यूनाईटेड न्यूज आफ इंडिया के तत्कालीन ब्यूरो प्रमुख ए . के . भंडारी ने अमली जामा पहनाया . उन्होंने कथित तौर पर न केवल रमाकांत विजयवर्गीय से सौदा किया बल्कि चोरी छुपे करोड़ों रुपयों का मुनाफा भी कमाया . इसके बावजूद उनका नाम सामने नहीं आया क्यों उन्होंने अपने अधीन काम करने वाले पत्रकार शरद द्विवेदी के नाम से ये सारा घोटाला किया था . इस घोटाले से कमाई दौलत के सहारे श्री भंडारी कथित तौर पर यूनाईटेड न्यूज आफ इंडिया के निदेशक भी बन बैठे थे . जब घोटाले की जानकारी दिल्ली पहुंची तो वहां के पत्रकारों की यूनियन ने उन्हें धकियाकर यूएनआई से बाहर कर दिया . आज वे भोपाल में इस सारे घोटाले की लीपापोती में जुटे हुए हैं . उन्होंने न केवल प्रदेश की कानून और व्यवस्था से खिलवाड़ किया बल्कि जमीनों के जालसाजों के माफीनामे की राह भी प्रशस्त की है . उनके साथ जुड़े कई अन्य पत्रकार भी भूमाफिया को बचाने में जुटे रहे और इस तरह उन्होंने प्रदेश की जनता से धोखाघड़ी को बढ़ावा दिया है . सरकारी राजस्व को क्षति पहुंचाकर उन्होंने अपने पेशे की गरिमा को भी कलंकित किया है . जिसकी जांच को प्रभावित करने का काम अब कुछ राजनीतिक दिग्गज भी कर रहे हैं .