Tuesday, July 12, 2011

80 करोड ग्रामीणों का जीवन दाव पर!

80 करोड ग्रामीणों का जीवन दाव पर!



वास्तव में इस देश का बण्टाधार करने वाले हैं, इस देश के बडे बाबू जो स्वयं को महामानव समझते हैं और इससे भी बडी और शर्मनाक बात यह है कि इस देश का मानसिक रूप से दिवालिया राजनैतिक नेतृत्व इन बडे बाबुओं की बैसाखी के सहारे ही अपनी राजनीति कर रहा है। ये बडे बाबू कभी नहीं चाहेंगे कि ग्रामीणों को भी इंसान समझा जावे। यहाँ विचारणीय बात यह भी है कि ये बडे बाबू क्यों नहीं चाहते कि शहरी क्षेत्र के डॉक्टर गॉवों में सेवा करें? इसकी बडी वजह यह है कि इन बडे बाबुओं के पास काले धन की तो कोई कमी है नहीं, लेकिन केवल इस धन के बल पर ये बडे बाबू और इनके आका राजनेता अपनी सन्तानों को बडे बाबू की जाति में तो आसानी से शामिल नहीं करा सकते हैं। लेकिन देश में अनेक ऐसे मैडीकल कॉलेजों को इन्हीं बडे बाबुओं की मेहरबानी से पूर्ण मान्यता मिली हुई है, जो धनकुबेर बडे बाबुओं, राजनेताओं और उद्योगपतियों की निकम्मी और बिगडी हुई सन्तानों को मनचाहा डोनेशन लेकर डॉक्टर बनाने का कारखाना सिद्ध हो रहे हैं। इन मैडीकल कारखानों से पास होकर निकलने वाले डॉक्टर निजी प्रेक्टिस में तो सफल हो नहीं सकते। अतः उनको सरकारी क्षेत्र में ले-देकर डॉक्टर बनना दिया जाता है और इन शहरी जीवों को डॉक्टरी करने के लिये कभी भी ग्रामीण क्षेत्रों की घूल नहीं फांकनी पडे इस बात का पक्का इलाज करने के लिये आधे-अधूरे ज्ञान वाले ग्रामीण डॉक्टर बनाकर ग्रामीण क्षेत्र में ही नियुक्त करवाने का घिनौना और विकृत विचार राजनैतिक नेतृत्व के माध्यम से इस देश पर लादा जा रहा है।

संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन के मूल अधिकार का उल्लेख किया गया है। जिसकी व्याख्या करते हुए भारत की सर्वोच्च अदालत अर्थात्‌ सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अनुच्छेद 21 में प्रदान किये गये जीवन के मूल अधिकार का तात्पर्य केवल जीने का अधिकार नहीं है, बल्कि इसमें सम्मानपूर्व जीवन जीने का मूल अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट का इससे आगे यह भी कहना है कि कोई भी व्यक्ति बिना पर्याप्त और समुचित स्वास्थ्य सुविधाओं के तो स्वस्थ रह सकता है और न हीं वह सम्मान पूर्वक जिन्दा ही रह सकता है। अतः सरकार का दायित्व है कि प्रत्येक देशवासी को पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध करवाये, जिनमें सभी प्रकार की जाँच और उपचार भी शामिल है। सर्वोच्च अदालत का यहाँ तक कहना है कि जिन लोगों के पास उपचार या चिकित्सकीय परीक्षणों पर खर्चा करने के लिये आर्थिक संसाधन नहीं हैं, उनके लिये ये सब सुविधाएँ मुफ्त में उपलब्ध करवाई जानी चाहिये। ताकि कोई व्यक्ति बीमारी के कारण बेमौत नहीं मारा जाये। अन्यथा संविधान द्वारा प्रदत्त जीवन के मूल अधिकार का कोई अर्थ नहीं होगा।

जबकि इसके ठीक विपरीत ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाली सत्तर प्रतिशत आबादी के लिये स्थापित सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर या तो डॉक्टर पदस्थ नहीं है या पदस्थ रहकर भी अपनी सेवा नहीं दे रहे हैं। भारत सरकार एवं राज्य सरकारों के समक्ष आजादी के प्रारम्भ से ही यह समस्या रही है कि शहरों में पला, बढा और पढा व्यक्ति डॉक्टर बनने के बाद गाँवों में लोगों को अपनी सेवाएँ देने में आनाकानी करता रहा है। जिसे साफ शब्दों में कहें तो ग्रामीणों की चिकित्सा सेवा करने के बजाय डॉक्टर शहरों में रहकर के अपनी निजी प्रेक्टिस करने में अधिक व्यस्त रहते हैं। इस मनमानी को कडाई से रोकने के बजाय केन्द्र सरकार ने डॉक्टरों के सामने दण्डवत होकर घुटने टेकते हुए बचकाना निर्णय लिया है कि ग्रामीणों का उपचार करने के लिये ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को ही गाँव में डॉक्टर बना दिया जाये, जिससे कि शहरी डॉक्टरों को गाँवों में तकलीफ नहीं झेलनी पडे। सरकार चाहती है कि गाँव के व्यक्ति को गाँव में ही नौकरी मिल जाये और इस सबसे गाँव के लोगों को हमेशा अपने गाँव में डॉक्टरों की उपलब्धता रहेगी। इसके लिये केन्द्र सरकार बैचलर ऑफ रूरल हेल्थ केयर (बीआरएच) कोर्स शुरू करने जा रही है।

पहली नजर में भारत सरकार का उक्त निर्णय कितना पवित्र और निर्दोष नजर आता है, लेकिन इसके पीछे के निहितार्थ दूरगामी दुष्प्रभाव डालने वाले हैं। जिन पर विचार किये बिना ही केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की संसदीय सलाहकार समिति तक ने इस विचार को मान्यता दे दी है। जिसे केन्द्र सरकार शीघ्रता से लागू करने जा रही है।

जबकि ग्रामीण डॉक्टर बनाने की उपरोक्त विकृत योजना न मात्र देश के 80 करोड ग्रामीणों के जीवन और स्वास्थ्य के साथ खिलवाड और भेदभाव करने वाली ही है, बल्कि इसके साथ-साथ यह योजना पूरी तरह से असंवैधानिक भी है। इस योजना के तहत ग्रामीण क्षेत्र के 12वीं पास विद्यार्थियों को चयनित करके 3 वर्ष में डॉक्टर बनाया जायेगा। ऐसे लोग डॉक्टर तो होंगे, लेकिन उन्हें अपनी डॉक्टरी ज्ञान का उपयोग केवल गाँव में ही करना होगा। शहर में जाते ही कानून की नजर में उनका डॉक्टरी ज्ञान अवैधानिक हो जायेगा। अर्थात्‌ इस योजना के तहत डॉक्टर बनने वाला व्यक्ति जीवनपर्यन्त शहर में रहकर डॉक्टरी करने का ख्वाब नहीं देख सकेगा और गाँव में रहने वाला व्यक्ति अपने गाँव में रहते हुए किसी बडे शहर के, बडे अस्पताल में इलाज करने का लम्बा अनुभव रखने वाले शहरी डॉक्टर से उपचार करवाने का सपना नहीं देख सकेगा।

कितने दुःख और आश्चर्य की बात है कि एक ओर तो संविधान का अनुच्छेद 14 कहता है कि देश के सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समान समझा जायेगा और साथ ही साथ सभी लोगों को कानून का समान संरक्षण भी प्रदान किया जायेगा। जबकि इस तीन वर्षीय पाठ्यक्रम के तहत ग्रामीण डॉक्टर की डिग्री करने वाले डॉक्टर को, शहरी क्षेत्र के डिग्रीधारी डॉक्टरों की तरह स्नातक स्तर की अन्यत्र कहीं भी पात्रता नहीं होगी। सरकारी नौकरी नहीं मिलने पर या ऐसे ग्रामीण डॉक्टर को सरकारी नौकरी छोडने पर, शहर में प्रेक्टिस करने का कानूनी अधिकार भी नहीं होगा।

इस सबके उपरान्त भी ग्रामीण डॉक्टर की प्रस्तावित डिग्री में प्रवेश पाने वालों में भी कडी प्रतियोगिता होना तय है, क्योंकि सर्व-प्रथम तो इस देश में बेरोजगारी एक बडी समस्या है। दूसरे इस देश के युवा वर्ग में सरकारी नौकरी के प्रति कभी न मिटने वाला सम्मोहन है। तीसरे वातानुकूलित कक्षों में बैठकर भारत सरकार के लिये नीति बनाने वाले बडे बाबू ग्रामीण लोगों को इंसान कब समझते हैं। उनकी नजर में ग्रामीण क्षेत्र के लोग तो शुरू से ही दूसरे दर्जे के नागरिक रहे हैं। इसलिये ग्रामीणों के जीवन को ग्रामीण डॉक्टरों के माध्यम से प्रयोगशाला बनाने में इन कागजी नीति-नियन्ताओं का क्या बिगडने वाला है?

भारत सरकार बिना नौकरी की गारण्टी दिये, इन डॉक्टरों से किसी भी शहर में जाकर प्रेक्टिस करने का हक कैसे छीन सकती है? यही नहीं ग्रामीण डॉक्टर की डिग्री करने वाले लोगों को स्नातक होकर भी आईएएस या अन्य ऐसी कोई भी परीक्षा में बैठने का कानूनी हक नहीं होगा, जो प्रत्येक ग्रेज्युएट को होता है।

इस निर्णय से साफ तौर पर यह प्रमाणित हो रहा है कि भारत सरकार समस्या का स्थाई समाधान ढूंढ़ने के बजाय उसका तात्कालिक समाधान ढूंढ़ रही है, जिससे अनेक नई समस्याएँ पैदा होना स्वाभाविक है। यदि कल को अध्यापक, ग्राम सेवक, कृषि वैज्ञानिक, थानेदार, कोई भी कह देंगे कि वे भी असुविधापूर्ण ग्रामीण क्षेत्र में क्यों नौकरी करें, तो सरकार के पास कौनसा जवाब होगा। आगे चलकर इससे शहर बनाम ग्रामीण में देश का विभाजन होना तय है। देश में आपसी वैमनस्यता का वातावरण भी निर्मित होगा। जबकि होना तो यह चाहिये कि प्रत्येक लोक सेवक को लोक सेवा के लिये हर हाल में और हर स्थान पर तत्पर रहना चाहिये और जो उसके लिये तैयार नहीं हों, उन्हें लोक सेवा में बने रहने का कोई हक नहीं। ऐसे लोगों को लोक सेवा से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाना चाहिये। फिर देखिये कितने लोग ग्रामीण क्षेत्र में जनता की सेवा से मुःह चुराते हैं।

सचाई कुछ और ही है। वास्तव में इस देश को बण्टाधार करने वाले है, इस देश के बडे बाबू जो स्वयं को महामानव समझते हैं और इससे भी बडी और शर्मनाक बात यह है कि इस देश का मानसिक रूप से दिवालिया राजनैतिक नेतृत्व इन बडे बाबुओं की बैसाखी के सहारे ही अपनी राजनीति कर रहा है। ये बडे बाबू कभी नहीं चाहेंगे कि ग्रामीणों को भी इंसान समझा जावे। यहाँ विचारणीय बात यह भी है कि ये बडे बाबू क्यों नहीं चाहते कि शहरी क्षेत्र के डॉक्टर गाँवों में सेवा करें? इसकी बडी वजह यह है कि इन बडे बाबुओं के पास काले धन की तो कोई कमी है नहीं, लेकिन केवल इस धन के बल पर ये बडे बाबू और इनके आका राजनेता अपनी सन्तानों को बडे बाबू की जाति में तो आसानी से शामिल नहीं करा सकते हैं। लेकिन देश में अनेक ऐसे मैडीकल कॉलेजों को इन्हीं बडे बाबुओं की मेहरबानी से पूर्ण मान्यता मिली हुई है, जो धनकुबेर बडे बाबुओं, राजनेताओं और उोगपतियों की निकम्मी और बिगडी हुई सन्तानों को मनचाहा डोनेशन लेकर डॉक्टर बनाने का कारखाना सिद्ध हो रहे हैं। इन मैडीकल कारखानों से पास होकर निकलने वाले डॉक्टर निजी प्रेक्टिस में तो सफल हो नहीं सकते। अतः उनको सरकारी क्षेत्र में ले-देकर डॉक्टर बनवा दिया जाता है और इन शहरी जीवों को डॉक्टरी करने के लिये कभी भी ग्रामीण क्षेत्रों की घूल नहीं फांकनी पडे इस बात का पक्का इलाज करने के लिये आधे-अधूरे ज्ञान वाले ग्रामीण डॉक्टर बनाकर ग्रामीण क्षेत्र में ही नियुक्त करवाने का घिनौना और विकृत विचार राजनैतिक नेतृत्व के माध्यम से इस देश पर लादा जा रहा है।

उपरोक्त निर्णय से यह बात भी सिद्ध हो चुकी है कि बडे बाबुओं की नजर से दुनियां को देखने के आदि इस देश के राजनैतिक नेतृत्व की नजर में शहरों में रहने वालों का जीवन इतना महत्वपूर्ण है कि उन्हें गाँवों में रहने वाले आलतू-फालतू लोगों की सेवा के लिये, गाँवों में क्यों पदस्थ किया जाये? यदि आधुनिक सुख-सुविधाओं में जीवन जीने के आदि हो चुके शहरी लोगों को ग्रामीण क्षेत्रों में नियुक्त किया गया तो ऐसा करना तो उनके खिलाफ क्रूरता होगी! जबकि गाँव में रहने वाले के मुःह में तो जवान होती ही नहीं। इसलिये उसका जैसे चाहे शोषण, तिरस्कार और अपमान किया जा सकता है। तब ही तो उक्त बैचलर ऑफ रुरल हेल्थ केयर (बीआरएच) कोर्स में प्रवेश के समय ही ग्रामीण क्षेत्र में रहकर सेवा करने की बाध्यकारी और असंवैधानिक शर्त थोपी जाने का प्रस्ताव है।

इसके विपरीत देश के धन से संचालित बडे-बडे शिक्षण संस्थानों में अध्ययन करने वाले अन्य सभी विद्यार्थियों को प्रवेश देने से पूर्व क्या भारत सरकार ऐसा नियम बना सकती है कि उनको आवश्यक रूप से देश में रहकर ही अपनी सेवाएँ देनी होंगी और वे विदेश में जाकर नौकरी नहीं करेंगे। या यदि विदेश में जायेंगे तो उनकी डिग्री अमान्य होगी। सरकार ऐसा कभी नहीं कर सकती! लेकिन क्यों? इस सवाल का उत्तर देश के उन करोडों लोगों को चाहिये, जिन्हें संविधान, देश सेवा और समानता की भावना में आस्था है!



लेखक जयपुर से प्रकाशित हिन्दी पाक्षिक समाचार-पत्र "प्रेसपालिका" के सम्पादक, विविध विषयों के लेखक, टिप्पणीकार, चिन्तक, शोधार्थी तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार, मनमानी, मिलावट, गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध 1993 में स्थापित एवं 1994 से राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली से पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन "भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान" (बास) (BAAS) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। जिसके हजारों आजीवन कार्यकर्ता राजस्थान के सभी जिलों एवं देश के आधे से अधिक राज्यों में सेवारत हैं। राष्ट्रीय अध्यक्ष : ऑल इण्डिया ट्राईबल रेलवे एम्पलाईज एसोसिएशन पूर्व राष्ट्रीय महासचिव : अजा एवं अजजा संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ dr.purushottammeena@yahoo.in Ph. 0141-2222225 Mob. : 098285-02666

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