-डॉ.शशि तिवारी-
इस लेख को लिखने का आशय किसी के पक्ष या विपक्ष में खड़े होने का कतई नहीं है और न ही किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का हैं। वक्त का तकाजा है चिंतन अब इस बात का हो कि क्या गलत है, क्या सही है? सत्य-सत्य रहेगा, असत्य-असत्य रहेगा। व्याख्याओं, निजी स्वार्थों से, परिस्थितियों, स्थितियों का हवाला दे लोगों को भ्रमित तो किया जा सकता है लेकिन झुठलाया नहीं जा सकता। यह निर्विवाद सत्य है कि मंदिर हमेशा पवित्र होता है? मंदिर की महत्ता उसके पुजारी से बढ़-घट या खण्डित भी हो सकती है। यह निर्भर करता है कि पुजारी का आचार, व्यवहार चरित्र कैसा है? हो सकता है कि पुजारी ये मान बैठे, भ्रमपाल बैठे की भगवान पर केवल उसी का अधिकार है भक्त का नहीं? पुजारी का ये अहंकार ही अतिवादी हो उसे उसकी नैतिकता से गिरा देता है? मंदिर का पुजारी व्यवस्था का एक अंग हो सकता है, वह भक्त हो यह जरूरी नहीं है। हो सकता है कि यही से भक्त - पुजारी के बीच अधिकारों को ले लड़ाई छिड़ जाए और पुजारी भक्त का मंदिर में प्रवेश न देने को अपना अधिकार और मंदिर का अपमान का बहाना बना अपनी गलतियों को भगवान के अपमान का बहाना बना सारा का सारा दोष भक्त के ही माथे पर मढ दें। यहां भक्तों का दायित्व होगा कि भ्रष्ट पुजारियों को मंदिर की गरिमा बनाए रखने के लिये उसे बाहर का रास्ता दिखाए।
आज देश के लोकतंत्र के मंदिर के साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हो रहा है, इसके लिये जनता उतनी दोषी नहीं है जितना कि राजनीतिक दल। जब ये ही भ्रष्टाचारियों, बालात्कारियों, अपहरण, डकैती के प्रकरणों में फंसे आरोपित दागदारों को पार्टियां टिकिट देगी तो ऐसे में जनता कर ही क्या सकती है सिवाय इसके कि बुरे और बहुत बुरे के बीच किसी एक को चुनें। लोकतंत्र के नाम पर जितनी हानि राजनीतिक पार्टियों ने कानून की कमियों का फायदा ले उठाया शायद ही कोई ऐसा करता हो। देश के लोकतंत्र के मंदिर को पाक साफ बनाए रखने की जवाब देही राजनीतिक पार्टियों की है? विपरीत परिणाम होने पर असली गुनाहगार भी ये ही होगी? क्या जनता को यह हक है कि यदि उसका जनप्रतिनिधि बलात्कारी, कालेधन का चोर, आदतन अपराधी है तो उसे अपराधी कहें? जबकि कानून अभी तक उस पर लगे आरोप सिद्ध नहीं हुए हैं? राजनितिक पार्टियों में क्या यह बहस का मुद्दा नहीं बन सकता? क्या यह संसद का अपमान है? यह भी यक्ष प्रश्न है क्यों, जानबूझकर राजनीतिक पार्टियों आरोपित लोगों को संसद में भेजना चाहती है? लोकतंत्र के नाम पर हम जनता और दुनिया में किस तरह का संदेश देना चाहते हैं? चिंतन तो इस बात पर भी होना चाहिये क्यों राजनीतिक पार्टियां बुरे लोगों के समर्थन में पैरवी करती है? क्यों नही चुनाव सुधार में पहल कर ऐसों को आने से रोकने का प्रयास करती है? डर - भय किस बात का?
कमोबेश अतिवादी अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह पूरी संसद को घेरा है, निःसंदेह उसे कहीं से भी उचित नहीं ठहराया जा सकता। राजनीतिज्ञों का भड़कना स्वभाविक है जबकि अरविंद केजरीवाल अपने दिये गए बयानों पर अड़ि़ग है अरविंद के बयान के एवज् में तमाम राजनीतिक बयान वीरों ने अपनी-अपनी भड़ास निकाल डाली। कांग्रेस के राशिद अल्वी तो इसे जनता की बेइज्जती मानते हैं, सपा नेता मोहन सिंह इसे असभ्य भाषा मानते हैं, मुख्तार अब्बास नकवी लोकतंत्र में ऐसे बयान स्वीकार नहीं किये जा सकते यह व्यवहार भारतीय लोकतंत्र और संविधान के प्रति अविश्वास है, रामविलास पासवान इसे लोकतंत्र पर हमला मानते हैं, लालू यादव की पार्टी में रामकृपाल यादव, केजरीवाल के खिलाफ विशेषाधिकार हनन के प्रस्ताव की बात कहते हैं, भाजपा के हृदेश दीक्षित केजरीवाल पर राजद्रोह का मुदमा चलाने की बात कहते हैं।
यहां सवाल यह नहीं है कि अरविंद केजरीवाल सही हैं या गलत लेकिन जाने अनजाने में हमारे माननीयों के लिये कुछ यक्ष प्रश्न जरूर उठ खडे हो चिंतन मनन के लिये मजबूर जरूर करते हैं? मसलन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 105 में माननीयों को संसद/विधान सभाओं में अभिव्यक्ति के लिये विशेषाधिकार संपन्न बनाया गया है, अर्थात् उनकी कही गई किसी बात, कृत्य हरकत के खिलाफ किसी भी कोर्ट में मुकद्मा नहीं चल सकता! इसके पीछे शायद संविधान निर्माताओं की यही मंशा रही होगी ताकि मानवीय अपनी बात बिना किसी भय, कानूनी पचड़े में पड़े बिना कह सके। स्वस्थ बहस जन मुद्दों पर हो सके क्या मर्यादा के अनुरूप हमारे माननीय व्यवहार कर रहे हैं? दूसरा संविधान के अनुच्छेद 19 जिसमें प्रत्येक नागरिक केा अभिव्यक्ति का अधिकार दिया गया है, उसका क्या? वहीं अनुच्छेद 25 में अंतःकरण की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता साम्प्रदायिकता का भी रूप ले लेती है? तीसरा अपराधी जेल से चुनाव तो लड़ सकता है भाग्य विधाता तो बन सकता है लेकिन सभी कैदी मतदान नहीं कर सकते ऐसा क्यो? राजनीतिक पार्टियां क्यों नही शासकीय नियमों की भांति अपने लिये वैधानिक सुचरित्रवाली बनाते?
आज भी संसद, विधान सभाओं में अच्छे लोगों की मात्रा ज्यादा है, अपवाद हर जगह हो सकते हैं? सभी लोगों को मिल खुले मन से इस बात पर पार्टी स्तर से ऊपर उठ न केवल बहस छेड़ना चाहिये बल्कि इस बुराई को दूर करने के लिये यदि कानून में कोई कमी है तो उसे भी संवैधानिक तरीके से संशोधित करना चाहिये, ताकि एक समाज के माध्यम से लोकतंत्र को और भी मजबूत किया जा सके। निःसंदेह भारत का लोकतंत्र कई देश भक्त लोगों की कुर्बानियों का नतीजा है। इसे किसी भी कीमत पर क्षीण नहीं होने देने की जवाबदेही भी ईमानदार जनप्रतिनिधियों की ही है, आखिर बड़े लोगों की जवाबदेही भी अधिक होती है।
मानव सेवा भाव में उम्र की कोई सीमा नहीं होती चूंकि, जनप्रतिनिधि शासकीय खजाने से पगार, पेंशन लेता है, इसलिये इनके पुलिस सत्यापन की व्यवस्था क्यों न हो? इसके अभाव में क्यों न ऐसे लोगों को वंचित रखा जाए? आरोपित जनप्रतिनिधियों के खिलाफ बाकी के ईमानदार जनप्रतिनिधि विरोध क्यों नहीं करते?
-डॉ.शशि तिवारी-
इस लेख को लिखने का आशय किसी के पक्ष या विपक्ष में खड़े होने का कतई नहीं है और न ही किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का हैं। वक्त का तकाजा है चिंतन अब इस बात का हो कि क्या गलत है, क्या सही है? सत्य-सत्य रहेगा, असत्य-असत्य रहेगा। व्याख्याओं, निजी स्वार्थों से, परिस्थितियों, स्थितियों का हवाला दे लोगों को भ्रमित तो किया जा सकता है लेकिन झुठलाया नहीं जा सकता। यह निर्विवाद सत्य है कि मंदिर हमेशा पवित्र होता है? मंदिर की महत्ता उसके पुजारी से बढ़-घट या खण्डित भी हो सकती है। यह निर्भर करता है कि पुजारी का आचार, व्यवहार चरित्र कैसा है? हो सकता है कि पुजारी ये मान बैठे, भ्रमपाल बैठे की भगवान पर केवल उसी का अधिकार है भक्त का नहीं? पुजारी का ये अहंकार ही अतिवादी हो उसे उसकी नैतिकता से गिरा देता है? मंदिर का पुजारी व्यवस्था का एक अंग हो सकता है, वह भक्त हो यह जरूरी नहीं है। हो सकता है कि यही से भक्त - पुजारी के बीच अधिकारों को ले लड़ाई छिड़ जाए और पुजारी भक्त का मंदिर में प्रवेश न देने को अपना अधिकार और मंदिर का अपमान का बहाना बना अपनी गलतियों को भगवान के अपमान का बहाना बना सारा का सारा दोष भक्त के ही माथे पर मढ दें। यहां भक्तों का दायित्व होगा कि भ्रष्ट पुजारियों को मंदिर की गरिमा बनाए रखने के लिये उसे बाहर का रास्ता दिखाए।
आज देश के लोकतंत्र के मंदिर के साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हो रहा है, इसके लिये जनता उतनी दोषी नहीं है जितना कि राजनीतिक दल। जब ये ही भ्रष्टाचारियों, बालात्कारियों, अपहरण, डकैती के प्रकरणों में फंसे आरोपित दागदारों को पार्टियां टिकिट देगी तो ऐसे में जनता कर ही क्या सकती है सिवाय इसके कि बुरे और बहुत बुरे के बीच किसी एक को चुनें। लोकतंत्र के नाम पर जितनी हानि राजनीतिक पार्टियों ने कानून की कमियों का फायदा ले उठाया शायद ही कोई ऐसा करता हो। देश के लोकतंत्र के मंदिर को पाक साफ बनाए रखने की जवाब देही राजनीतिक पार्टियों की है? विपरीत परिणाम होने पर असली गुनाहगार भी ये ही होगी? क्या जनता को यह हक है कि यदि उसका जनप्रतिनिधि बलात्कारी, कालेधन का चोर, आदतन अपराधी है तो उसे अपराधी कहें? जबकि कानून अभी तक उस पर लगे आरोप सिद्ध नहीं हुए हैं? राजनितिक पार्टियों में क्या यह बहस का मुद्दा नहीं बन सकता? क्या यह संसद का अपमान है? यह भी यक्ष प्रश्न है क्यों, जानबूझकर राजनीतिक पार्टियों आरोपित लोगों को संसद में भेजना चाहती है? लोकतंत्र के नाम पर हम जनता और दुनिया में किस तरह का संदेश देना चाहते हैं? चिंतन तो इस बात पर भी होना चाहिये क्यों राजनीतिक पार्टियां बुरे लोगों के समर्थन में पैरवी करती है? क्यों नही चुनाव सुधार में पहल कर ऐसों को आने से रोकने का प्रयास करती है? डर - भय किस बात का?
कमोबेश अतिवादी अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह पूरी संसद को घेरा है, निःसंदेह उसे कहीं से भी उचित नहीं ठहराया जा सकता। राजनीतिज्ञों का भड़कना स्वभाविक है जबकि अरविंद केजरीवाल अपने दिये गए बयानों पर अड़ि़ग है अरविंद के बयान के एवज् में तमाम राजनीतिक बयान वीरों ने अपनी-अपनी भड़ास निकाल डाली। कांग्रेस के राशिद अल्वी तो इसे जनता की बेइज्जती मानते हैं, सपा नेता मोहन सिंह इसे असभ्य भाषा मानते हैं, मुख्तार अब्बास नकवी लोकतंत्र में ऐसे बयान स्वीकार नहीं किये जा सकते यह व्यवहार भारतीय लोकतंत्र और संविधान के प्रति अविश्वास है, रामविलास पासवान इसे लोकतंत्र पर हमला मानते हैं, लालू यादव की पार्टी में रामकृपाल यादव, केजरीवाल के खिलाफ विशेषाधिकार हनन के प्रस्ताव की बात कहते हैं, भाजपा के हृदेश दीक्षित केजरीवाल पर राजद्रोह का मुदमा चलाने की बात कहते हैं।
यहां सवाल यह नहीं है कि अरविंद केजरीवाल सही हैं या गलत लेकिन जाने अनजाने में हमारे माननीयों के लिये कुछ यक्ष प्रश्न जरूर उठ खडे हो चिंतन मनन के लिये मजबूर जरूर करते हैं? मसलन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 105 में माननीयों को संसद/विधान सभाओं में अभिव्यक्ति के लिये विशेषाधिकार संपन्न बनाया गया है, अर्थात् उनकी कही गई किसी बात, कृत्य हरकत के खिलाफ किसी भी कोर्ट में मुकद्मा नहीं चल सकता! इसके पीछे शायद संविधान निर्माताओं की यही मंशा रही होगी ताकि मानवीय अपनी बात बिना किसी भय, कानूनी पचड़े में पड़े बिना कह सके। स्वस्थ बहस जन मुद्दों पर हो सके क्या मर्यादा के अनुरूप हमारे माननीय व्यवहार कर रहे हैं? दूसरा संविधान के अनुच्छेद 19 जिसमें प्रत्येक नागरिक केा अभिव्यक्ति का अधिकार दिया गया है, उसका क्या? वहीं अनुच्छेद 25 में अंतःकरण की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता साम्प्रदायिकता का भी रूप ले लेती है? तीसरा अपराधी जेल से चुनाव तो लड़ सकता है भाग्य विधाता तो बन सकता है लेकिन सभी कैदी मतदान नहीं कर सकते ऐसा क्यो? राजनीतिक पार्टियां क्यों नही शासकीय नियमों की भांति अपने लिये वैधानिक सुचरित्रवाली बनाते?
आज भी संसद, विधान सभाओं में अच्छे लोगों की मात्रा ज्यादा है, अपवाद हर जगह हो सकते हैं? सभी लोगों को मिल खुले मन से इस बात पर पार्टी स्तर से ऊपर उठ न केवल बहस छेड़ना चाहिये बल्कि इस बुराई को दूर करने के लिये यदि कानून में कोई कमी है तो उसे भी संवैधानिक तरीके से संशोधित करना चाहिये, ताकि एक समाज के माध्यम से लोकतंत्र को और भी मजबूत किया जा सके। निःसंदेह भारत का लोकतंत्र कई देश भक्त लोगों की कुर्बानियों का नतीजा है। इसे किसी भी कीमत पर क्षीण नहीं होने देने की जवाबदेही भी ईमानदार जनप्रतिनिधियों की ही है, आखिर बड़े लोगों की जवाबदेही भी अधिक होती है।
मानव सेवा भाव में उम्र की कोई सीमा नहीं होती चूंकि, जनप्रतिनिधि शासकीय खजाने से पगार, पेंशन लेता है, इसलिये इनके पुलिस सत्यापन की व्यवस्था क्यों न हो? इसके अभाव में क्यों न ऐसे लोगों को वंचित रखा जाए? आरोपित जनप्रतिनिधियों के खिलाफ बाकी के ईमानदार जनप्रतिनिधि विरोध क्यों नहीं करते?
-डॉ.शशि तिवारी-