भ्रष्टाचार के खिलाफ मु:ह बंद रखें!
toc news internet channal
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
10 अक्टूबर को नयी दिल्ली में सीबीआई और भ्रष्टाचार निरोधी ब्यूरो का 19वां सम्मेलन आयोजित किया गया।जिसमें मूल रूप से जवाबदेही (लेकिन किसकी ये ज्ञात नहीं) और पारदर्शिता (किसके लिये) तय करने के लिये भ्रष्टाचार निरोधक कानून में बदलाव करने पर कथित रूप से विचार किया गया। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए देश के प्रधानमन्त्री ने कहा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अधिक चिल्लाचोट करना ठीक नहीं है! उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों द्वारा आवाज उठाना एक प्रकार से भ्रष्टाचार का दुष्प्रचार करना है, जिससे देश के अफसरों का मनोबल गिरता है और विश्व के समक्ष देश की छवि खराब होती है। इसलिये उन्होंने उन लोगों को जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाते रहते हैं को एक प्रकार से अपना मुंह बन्द रखने को की सलाह दी है। दूसरी ओर प्रधानमन्त्री ने माना है कि देश की आर्थिक तरक्की के साथ-साथ देश में भ्रष्टाचार भी तेजी से बढा है! वहीं उन्होंने अन्य कुछ बातों के अलावा इस बात पर गहरी चिन्ता व्यक्त की, कि ईमानदार अफसरों और कर्मचारियों को बेवजह भ्रष्ट कहकर बदनाम किया जा रहा है, जो ठीक नहीं है, क्योंकि इससे उनका मनोबल गिरता है! उन्होंने माना कि भ्रष्टाचार के अधिकतर बड़े मामले कारोबारी कम्पनियों से सम्बन्धित हैं। (जबकि इन कम्पनियों को खुद प्रधानमन्त्री ही आमन्त्रित करते रहे हैं!) जिन्हें रोकने और दोषियों को सजा देने के लिये नये तरीके ढूँढने और नये कानून बनाने की जरूरत है| प्रधानमन्त्री ने भ्रष्टाचार को रोकने के लिये सख्त रवैया अपनाये जाने की औपचारिकता को भी दोहराया।
प्रधानमन्त्री का उपरोक्त बयान इस बात को साफ लफ्जों में इंगित करता है कि उनको भ्रष्टाचार या भ्रष्टाचार से बेहाल देशवासियों की नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार के कारण संसार के समक्ष देश के बदनाम होने की और देश के अफसरों को परेशान किये जाने की सर्वाधिक चिन्ता है। सच में देखा जाये तो ये बयान भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश के प्रधानमन्त्री का कम और एक अफसर या एक रूढिवादी परिवार के मुखिया का अधिक प्रतीत होता है। वैसे भी इन दोनों बातों में कोई विशेष अन्तर नहीं है, क्योंकि भारत की अफसरशाही देश का वो चालाक वर्ग है, जो शासन चलाने में सर्वाधिक रूढिवादी है। अफसर कतई भी नहीं चाहते कि देश में अंग्रेजी शासन प्रणाली की शोषणकारी रूढियों को बदलकर लोक-कल्याणकारी नीतियों को लागू किया जावे।
डॉ. मनमोहन सिंह का उपरोक्त बयान इस बात को प्रमाणित करता है कि वे एक अफसर पहले हैं और एक लोकतान्त्रिक देश के प्रमुख बाद में, इसलिये देश के लोगों द्वारा उनसे इससे अधिक उम्मीद भी नहीं करनी चाहिये! वे तकनीकी रूप से भारत के प्रधानमन्त्री जरूर हैं, लेकिन जननेता नहीं, राष्ट्रनेता या लोकप्रिय नेता नहीं, बल्कि ऐसे नेता हैं, जिन्हें देश की जनता के हितों का संरक्षण करने के लिये नहीं, बल्कि राजनैतिक हितों का संरक्षण करने के लिये; इस पद पर बिठाया गया है। जो एक जननेता की भांति नहीं, बल्कि एक अफसर और एक सीईओ (मुख्य कार्यकारी अधिकारी) की भांति देश को चलाते हुए अधिक प्रतीत होते रहे हैं।
इस बारे में, एक पुरानी घटना का जिक्र करना जरूरी समझता हूँ, जब मैं रेलवे में सेवारत था। एक काम को एक अधिकारी द्वारा इस कारण से दबाया जा रहा है, क्योंकि उन्हें बिना रिश्वत के किसी का काम करने की आदत ही नहीं थी! जब मुझे इस बात का ज्ञान हुआ, तो मैंने उससे सम्पर्क किया। उसने परोक्ष रूप से मुझसे रिश्वत की मांग कर डाली। मैंने रिश्वत की राशि एकत्र करने के लिये उससे कुछ समय मांगा और मैंने इस समय में रिश्वत नहीं देकर; उस भ्रष्टाचारी के काले कारनामों के बारे में पूरी तहकीकात करके, अनेक प्रकरणों में उसके द्वारा अनियमितता, भेदभाव और मनमानी बरतने और रिश्वत लेकर अनेक लोगों को नियमों के खिलाफ लाभ पहुँचाने के सबूत जुटा लिये और इस बात की विभाग प्रमुख को लिखित में जानकारी दी। इस जानकारी को सूत्रों के हवाले से स्थानीय दैनिक ने भी खबर बनाकर प्रकाशित कर दिया।
विभाग प्रमुख की ओर से भ्रष्टाचारी के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने के बजाय, मुझसे लिखित में स्पष्टीकरण मांगा गया कि मैंने लिखित में आरोप लगाकर और एक रेलकर्मी को बदनाम करने की शिकायत करके, रेलवे की छवि को नुकसान पहुँचाने का कार्य किया है। जिसके लिये मुझसे कारण पूछा गया कि क्यों ना मेरे विरुद्ध सख्त अनुशासनिक कार्यवाही की जावे? खैर...इस मामले को तो मैंने अपने तरीके से निपटा दिया, लेकिन इस देश के प्रधानमन्त्री आज इसी सोच के साथ काम कर रहे हैं कि भ्रष्टाचारियों के मामले में आवाज उठाने से देश की छवि खराब हो रही है और अफसरों का मनोबल गिर रहा है।
एक अफसर की सोच के साथ-साथ प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह का बयान एक रूढिवादी परिवार प्रमुख का बयान भी लगता है, हमें इसे भी समझना होगा। भारत में 90 फीसदी से अधिक मामलों में स्त्रियों के साथ घटित होने वाली छेड़छाड़ और यौन उत्पीड़न की घटनाओं को रूढिवादी परिवारों में यही कहकर दबा दिया जाता है कि ऐसा करने से परिवार की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचेगा और परिवार के साथ-साथ ऐसी स्त्री की छवि को नुकसान होगा। शासन चलाने में अंग्रेजों की दैन इसी शोषणकारी रूढिवादी व्यवस्था और जनता को अपनी गुलाम बनाये रखने की रुग्ण अफसरी प्रवृत्ति का निर्वाह करते हए प्रधानमन्त्री देशवासियों को सन्देश देना चाह रहे हैं कि भ्रष्ट अफसरों और भ्रष्ट व्यवस्था के बारे में बातें करने और आवाज उठाने से अफसरों की छवि खराब होती है और विदेशों में देश की प्रतिष्ठा दाव पर लगती है। जिसका सीधा और साफ मतलब यही है कि प्रधानमन्त्री आज भी देशवासियों के लिये कम और भ्रष्ट अफसरशाही के लिये अधिक चिन्तित हैं।
यह इस देश का दुर्भाग्य है कि भ्रष्टाचार के जरिये अनाप-शनाप दौलत कमाने वाने पूर्व अफसरों की संख्या दिनोंदिन राजनीति में बढती जा रही है और ऐसे में आने वाला समय पूरी तरह से भ्रष्ट अफसरशाही के लिये अधिक मुफीद सिद्ध होना है। ऐसे जननेता जनता को कम और लोकसेवक से लोकस्वामी बन बैठे अफसरों के हित में काम करके अधिक से अधिक माल कमाने और देश को अपनी बपौती समझने वाले होते हैं।
ऐसे हालात में देशभक्त, जागरूक और सतर्क लोगों को इस बात पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना होगा कि भ्रष्ट जन राजनेताओं से कहीं अधिक भ्रष्ट, देश की अफसरशाही है और पूर्व अफसर से राजनेता बने जन प्रतिनिधि उनसे भी अधिक भ्रष्ट और खतरनाक होते हैं। इन्हें किस प्रकार से रोका जावे, इस बारे में गहन चिंतन करने की सख्त जरूरत है, क्योंकि ऐसे पूर्व भ्रष्ट अफसरों को संसद और विधानसभाओं में भेजकर देश की जनता खुद अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रही है!